‘हिंदी बचाओ आंदोलन’ सड़कों पर नहीं उतरा, तो नहीं बचेगी हिंदी पत्रकारिता..!

हिंदी बचाओ आंदोलन

हिंदी पत्रकारिता की वर्तमान भाषा को लेकर हिंदी भाषा के भविष्य पर प्रश्नचिह्न खड़े होने लगे हैं। भाषा-विकास अथवा भाषा-दुर्गति के इस दौर को समझने के लिए हिंदी पत्रकारिता के अतीत की तरफ लौटना ज़रूरी है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं की भाषा अपेक्षाकृत शुद्ध और प्रभावशाली थी। गणेशशंकर विद्यार्थी से लेकर विद्यानिवास मिश्र तक का कालखंड पत्रकारिता के मिशन को आगे बढ़ा रहा था। इसमें निर्भीकता के साथ-साथ भाषा का उत्तरोत्तर विकास भी शामिल था। घटनाओं का सिलसिलेवार वर्णन पाठकों को वास्तविकता से रू-बरू कराने में पूर्णतया सक्षम था। कहीं कोई वैषम्य नहीं। प्रत्येक वर्ग के पाठकों की रुचियों-अभिरुचियों का ध्यान रखा गया। उल्लेखनीय है, उस समय के अधिकांश प्रकाशक-संपादक राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत और साहित्यिक थे। पत्र-पत्रिकाएँ भारतीय जनमानस की आँख-कान, दिल और दिमाग थीं। सम्भवतः इसी नाते भवानी प्रसाद मिश्र ने लिखा होगा –

“जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।”

धीरे-धीरे समय बदलता गया। प्रकाशन संस्थानों पर राजनेताओं और पूंजीपतियों का मालिकाना हक हो गया। अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव धीरे-धीरे अपनी जगह बनाने लगा। भारतीय भाषा में चलने वाले शैक्षणिक संस्थान क्रमशः बंद होने लगे। यहीं से शुरू होता है, पत्रकारिता की भाषा में अमावस। सरलता-सहजता और सम्प्रेषणीयता के नाम पर अंग्रेजी के शब्द जान-बूझ कर प्रयोग में लाए गए। अंग्रेजी दा मालिकों की तो बाछें खिल गईं। कहीं कोई नियंत्रण नहीं, न ही कोई सीमा-रेखा। सिद्धांतविहीन पत्रकारिता की छवि भाषाई पतन के साथ-साथ धूमिल होती गई ।

हिंदी पत्रकारिता का वर्तमान भाषाई स्तर चिंता का विषय है। यदि अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग इसी धड़ल्ले से होता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी अख़बार अपने पाठकों के लिए तरसेंगे। विषय की गम्भीरता इस बात से लगाई जा सकती है कि विगत पाँच वर्षों से अंग्रेजी माध्यम के शैक्षणिक संस्थानों में विस्फोट हुआ है। सब्जी विक्रेता, ऑटो चालक, मजदूर आदि के बेटे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई कर रहे हैं। जब ये युवा होंगे, तो अपने घरों में हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा के अख़बार नहीं लेंगे (दिखावा ही सही अंग्रेजी के अख़बार घरों में आएंगे)। कहने का निहितार्थ यह कि समय रहते यदि ‘हिंदी बचाओ आंदोलन‘ सड़कों पर नहीं उतरा, तो हिंदी पत्रकारिता नहीं बचेगी। इस आंदोलन को पुरज़ोर तरीके से आगे बढ़ाने में फ़िल्म और पत्रकारिता जगत अपनी भूमिका निभा सकता हैं। दुःखद यह कि फ़िल्म वाले खाते हिंदी की हैं लेकिन गाते हैं अंग्रेजी की! हाल ही में सिनेस्तान इंडियाज़ स्टोरी टेलर्स प्रतियोगिता ने केवल रोमन लिपि में लिखी पटकथा स्वीकार करने की बात करके हिंदी प्रेमियों को काफी निराशा किया। इसलिए फ़िल्म वालों से हिंदी के विकास की उम्मीद करना बेमानी है।

अब आइए हिंदी पत्रकारिता की कुछ बानगी देखते हैं :
1. पेरेंट्स की ओर से बच्चों के बिहेव पर सख़्त नियंत्रण या बहुत ही फ्री एनवायरमेंट बच्चे को झूठ बोलने पर मोटिव करता है।

2. बच्चों से ऐसे क्वेश्चन नहीं करना चाहिए, जिनके आंसर में झूठ बोलना…… बच्चे को कलर का पैकेट दिलवाने के बाद… एक वॉल को चारों ओर से रंग-बिरंगी कर देता है। उस टाइम …उसे कहें कि आज और कलर्स यूज करने की इजाज़त नहीं है ।
3. इसके लिए बच्चे को अकेले में कॉन्फिडेंस में लें । उसे कहें कि उसकी ओरिजिनालिटी को दिखावे से ज्यादा पसंद किया जाएगा ।
(समाचार पत्र के नाम का उल्लेख आवश्यक नहीं)

ऐसे में हिंदी भाषा को बल कहाँ से मिलेगा ? मीडिया तो भविष्य के खतरे को पहले ही सूंघ लेती है, फिर यह शुतुरमुर्गी मानसिकता क्यों ? कहने का आशय यह बिल्कुल नहीं कि पंडिताऊ भाषा का प्रयोग किया जाय या अंग्रेजी शब्दों से परहेज करें, लेकिन कहीं न कहीं संतुलन की बहुत जरूरत है। हिंदी के कठिन शब्दों के लिए अंग्रेजी कोई विकल्प नहीं। आम बोलचाल की भाषा में इनका सरलीकरण भी तो किया जा सकता है। फिर भी बात न बने तो प्रचलित अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से हिचकना नहीं चाहिए। इस संदर्भ में युवा पत्रकार विजय पांडेय का मानना है, ” पत्रकारिता में बोलचाल की भाषा का प्रयोग करना बेहतर है, ताकि लोग उससे जुड़ सकें, लेकिन यह प्रयोग संतुलित होना चाहिए। इसकी अति करना बिलकुल गलत है। जैसे डॉक्टर को चिकित्सक लिखने से बचना चाहिए। लेकिन महंगाई को इन्फिलेशन नहीं लिखना चाहिए।”

भाषाई संक्रमण के दौर में जब हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के नाम अंग्रेजीे और काम हिंदी में हों, पत्रकार बनने के लिए भाषा-ज्ञान का कोई बंधन न रह जाय, खबरों से शालीनता गायब होने लगे और सम्पादकों का लक्ष्य समाज का कोई वर्ग विशेष हो, तो यह चिंता का विषय है। याद रखें, यदि हिंदी भाषा को तिल-तिल कर मरने के लिए इसी तरह मजबूर किया गया, तो आने वाला कल भयावह होगा। यह वक़्त हिंदी पत्रकारिता के लिए आत्ममंथन का है। इसे वैश्विक भाषा-प्रवाह में बहना ही नहीं बल्कि धारा के विरुद्ध तैरकर अपना तथा अपने देश के गौरव की रक्षा भी करनी है । अस्तु ।

– डॉ. जितेंद्र पाण्डेय

(हिंदी विभागाध्यक्ष)
सेंट पीटर्स संस्थान,पंचगनी

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