आखि़र हम हिन्दी-दिवस क्यों मनायें..? – डॉ. अमलदार ‘नीहार’

हिन्दी-दिवस

निज भाषा उन्नति लहै सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा-ज्ञान के मिटै न हिय कौ सूल।। (भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र)

यदि हम अपनी मातृभूमि पर गर्व कर सकते हैं तो अपनी मातृभाषा के प्रति भी हमारा समर्पण ठीक वैसा ही होना चाहिए। यह ऐसा कठिन दौर चल रहा है कि पाँव अभी ज़मीन पर टिके नहीं और हमारा अहंकार सातवाँ आसमान छूने को बेताब है। हम इतने बड़े पामर और पागल हो चुके हैं कि व्यक्ति विशेष को ही राष्ट्र का पर्याय मानने को उतावले हो रहे हैं। याद रखिए कि राष्ट्र से हमारी पहचान है, हमसे राष्ट्र की पहचान नहीं है और यदि किसी के विराट व्यक्तित्व से इस राष्ट्र की पहचान है तो वह लोकायत इतिहास के ललाट पर गौरव-तिलक बनकर हज़ारों साल हर आने वाली पीढ़ी को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता रहेगा। मेरे और आपके जैसे लाखों-करोड़ों लोग इस दुनिया में आये और हुबाबे-आब की तरह फ़ानी हो इसी की ख़ाक में मिल गये। इसलिए यदि गर्व-गुमान करना ही है तो इस देश की मिट्टी पर करो, यहाँ के समुद्र, यहाँ के पहाड़, नदी, जंगलों पर गर्व करो, यहाँ की ऋतुओं पर गर्व करो। गर्व करो अपनी संस्कृति पर, लेकिन उसका पालन भी करो। गर्व करो अपनी मातृभाषा पर और उससे खूब प्यार करो। हमें गर्व है इस देश की बहुलांश विपुलांश जनता की ज़ुबान की भाषा पर, जन-जन के हृदय-राष्ट्र की भाषा भारत-भारती हिन्दी पर। यह जनता इसी भाषा(अपनी बोलियों) के माध्यम से अपनी मर्मान्तक वेदना, अपने उमंग-उल्लास, स्नेह-सौहार्द तथा रोष-घृणा को अभिव्यक्त करती चली आ रही है। अन्य ‘दिवसों’ की तरह वर्ष में एक बार 14 सितम्बर को पेन्हायी गाय की तरह हमारा प्रेम उमगता है और फिर हम शान्त हो जाते हैं। हमारा एक तर्क यह हो सकता है कि अपने अनेक उत्सव-त्योहार की तरह नयी प्रेरणा देने हेतु, उत्साह जगाने हेतु हमें हिन्दी दिवस अवश्य मनाना चाहिए, पर बात इतनी सीधी और सरल भी नहीं है। अंग्रेजों के ज़माने से हिन्दी को बेपटरी करने की लगातार साजिश रची जाती रही है। पहले जो काम अंग्रेज किया करते थे, वही काम अब उनके हिन्दुस्तानी अश्वेत नाती-पोते कर रहे हैं। ज़माना बड़ी तेजी से बदल रहा है और ज़माने के साथ हम भी–हमारी ज़िन्दगी का ढर्रा, हमारा रहन-सहन, पहनावा, खान-पान और हमारी भाषा भी बदलती जा रही है। गूगल और इण्टरनेट के दौर में हम पुराने लोग पिछड़ते चले जा रहे है। यह कम्प्यूटर और तकनीक का युग है। वैसे जो भाषा हमारे बचपन में माँ-बाप बोलते थे, आज हमारे बच्चे वह भाषा नहीं बोलते। समय के साथ बहुत कुछ मिट गया और पिट गया। बाहर की दुनिया में बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहा है। यह परिवर्तन घर के भीतर हमारे दैनिक व्यवहार में ही नहीं दिखायी देता, बल्कि स्कूल-कॉलेज, विश्वविद्यालय, कार्यालय, कचहरी और बौद्धिक गोष्ठियों में भी दिखायी देता है। कुछ लोग तो इतने अधिक आधुनिक हो गये हैं कि उनकी बातचीत तथा व्याख्यान में सींग फटकारते साँड़ की तरह अंग्रेजी बलपूर्वक घुस चुकी है। बदलती भाषा के साथ उनके शील-संस्कार में तेजी से गिरावट आ रही है और मानवीय मूल्य धसकते चले जा रहे हैं। नयी पीढ़ी के बच्चे और युवा अनावश्यक रूप से एक वाक्य के भीतर हिन्दीतर तीन-चार शब्दों के प्रयोग के बिना अपनी बात पूरी नहीं कर सकते और सुनने वाला या तो उससे चमत्कृत होता है या भयभीत। इसी प्रकार कुछ लोग अपने वक्तव्य में उर्दू शब्द अधिक रखते हुए सोचते हैं कि इससे उनकी भाषा को प्रभावशाली बनाया जा सकता है। संस्कृत के संस्कार में ढली हुई भाषा अपनी श्रेष्ठता का गुमान करती है। इस प्रकार अलग-अलग जन-समूहों में, अलग-अलग देश और काल में अलग-अलग भाषा बोली और समझी जाती रही है। मैं समझता हूँ कि विषय-प्रसंग, पात्र, देश के अनुरूप अपनी प्रशिक्षित सहजता के साथ हम जिस भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त कर पाते हैं, वही सर्वोत्तम स्वरूप हो सकता है अपनी भाषा का और अपनी भाषा के अस्तित्व को बचाये रखने हेतु साल में हम एक बार अपने प्रियजनों के जन्मदि की तरह उसे ‘दिवस’ के रूप में मनाते चले आ रहे है। हमारे देश में लगभग तीन चौथाई लोग हिन्दी बोलते-लिखते और समझते हैं। भारत के बहुलांश भूगोल की यह लाडली भाषा है, किन्तु यह इसका दुर्भाग्य भी है कि उपेक्षिता वृद्ध माता की तरह दुर्दशा का शिकार हो रही है। नयी शिक्षा की खूबियों का ढोल पीटने वाली व्यवस्था ने ज्ञान-दान की परम्परा को मुनाफ़े का व्यापार बना दिया है तो हिन्दी को तिरस्कृत करने में उसने कभी कोताही नहीं की है। यह दुःखद सत्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्ष पूरे होने पर अपनी प्रचारित छद्म उपलब्धियों को रेखांकित करते हुए ‘अमृत महोत्सव’ भले मनाया हो, पर आज भी यह अभागिन हिन्दी न तो न्यायालय की भाषा बन सकी, न पूरे देश में कार्यालय की भाषा बन पायी और न ही इसे ‘राष्ट्रभाषा’ का दर्ज़ा मिला। यदि ‘राष्ट्रभाषा’ के बिना कोई राष्ट्र गूँगा माना जाता है तो सवाल उठता है कि इस राष्ट्र को कब तक गूँगा बनाकर रखा जायेगा? हमारे देश ने चाहे जितनी उपलब्धियाँ हासिल की हों, पर आज तक इसे एक राष्ट्रभाषा दे पाने में हम असफल रहे हैं। फिर इसका दिवस मनाने की आवश्यकता ही क्या है? भाषा सदैव माँ के स्तन्य की भाँति हमारे लहू में बचपन से घुल-मिल जाती है, हमारे प्राणों में रमती है, हमारी साँसों को सुवासित करती है। आज हिन्दी के पास समृद्ध व्याकरण है, समृद्ध शब्दकोश है, लोकोक्तियाँ और मुहावरे हैं। इस भाषा ने अपने साहित्य तथा समाचारों से भारतीय स्वाधीनता-आन्दोलन को प्रभावित किया। देश के अनेक महापुरुषों ने हिन्दी को न केवल सिर-माथे लगाया, बल्कि जन सामान्य के बीच इसे ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी फिल्मों तथा गीतों ने पूरी दुनिया में धूम मचायी है। हम यह गर्व के साथ कह सकते हैं कि हमारी हिन्दी भारत से बाहर अनेक देशों के सैकड़ों विश्वविद्यालयों में पढ़ायी जाती है और विश्व की सबसे अधिक बोली जाने वाली तीसरी तथा चौथी भाषा है। इतनी सशक्त भाषा होने के बावजूद हिन्दी के साथ ‘परायी भाषा’ जैसा बर्ताव होता रहा है। हिन्दी की रोटी खाने वाले शिक्षक, प्राफेसर और अधिकारी जब प्राइवेट स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाते हुए गर्व का अनुभव करते हैं और अपने घर में संवाद का माध्यम अंग्रेजी को चुनते हैं तो कुछ कहने को शेष नहीं बचता है। ऊँचे-ऊँचे मंचों पर साक्षात्कार के दौरान अपनी भाषा के टुटपुँजिए लोग अंग्रेजी की वकालत करते हैं और अंग्रेजी में व्यवहार करने वाले जब प्रपंचपूर्वक हिन्दी की सेवा के लिए पुरस्कार झटक लेते हैं तो इससे बड़ी विडम्बना भला और क्या हो सकती है?

अक्सर देखने में यह आता है कि जितने भी कमज़ोर लोग हैं अथवा कमज़ोर बना दिये गये हैं, उनके आनन्द-विधान के लिए ‘दिवस’ अथवा ‘पखवारे’ के साँचे में बैठा दिया जाता है, जैसे महिला दिवस, मातृ दिवस, श्रमिक दिवस, मातृदिवस, पितृ दिवस, मित्र दिवस, पृथ्वी दिवस, पर्यावरण दिवस, विज्ञान दिवस, प्रेम दिवस, विश्वशान्ति दिवस, योग दिवस, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, गाँधी दिवस, वैसे ही हिन्दी दिवस। हिन्दी दिवस को एक दिवसीय त्योहार के रूप में परिणत करने से कुछ होगा नहीं, जब तक इसे ठीक से प्रतिदिन के व्यवहार में नहीं लाया जायेगा। यह घोर लज्जा का विषय है हमारे लिए कि हिन्दी पट्टी का आधुनिक विद्यार्थी और कभी-कभी शिक्षक-प्रोफेसर भी हिन्दी भाषा का शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाता। हमें याद रखना होगा–

जिस माटी ने जनम दिया, जिस माँ ने पाला-पोसा,
जिस भाषा ने दे दुलार प्राणों को दिया भरोसा।
उसके प्रति कर्त्तव्य शेष है सबके सिर पर भारी,
एक दिवस क्या, जीवन भर की अर्पित साँस हमारी।।

जो लोग टूटकर अपनी भाषा माँ से प्यार करते हैं, उन्हें कभी-कभी हिन्दी के लिए और हिन्दी में किये गये अपने काम का लेखा-जोखा भी प्रस्तुत करते रहना चाहिए। अपने सभी हिन्दी-प्रेमी मित्रों, सहृदय मर्मज्ञ साहित्यिकों और होनहार विद्यार्थियों के लिए निम्नलिखित कविता कुछ सन्देश तो देती ही है–

197-प्रभापूर्य रवि-कर परस नेह नयन ‘नीहार’

उन्नत भाषा-सभ्यता, संस्कृति का उत्कर्ष।
राष्ट्र-चेतना-स्वर मुखर हिन्दी भारतवर्ष।।3060।।

राष्ट्र-भारती के बिना होकर ‘भा-रत’ मूक।
गति अवरुद्ध विकास की, सरस्वती-हिय हूक।।3061।।

उत्तर से दक्खिन अलग, पूरब-पश्चिम भेद।
दिल-दिमाग सबके बँटे, कटे-कटे से, खेद।।3062।।

सोयी-सी संवेदना, रही वेदना जाग।
किसको कैसी पीर है, साधे चुप वैराग।।3063।।

दिल्ली दिल की मनचली, उसे चाहिए खीर।
उसकी चिन्ता में कहाँ किसके सिर शमशीर।।3064।।

जिस भाषा ने है दिया बेमिसाल अवदान।
कविर्मनीषी-सन्त की वाणी-ज्योति-वितान।।3065।।

भाषा-बल सम्बल मिला, जगा जागरण-मंत्र।
लहू उबल शोला बना, भारत हुआ स्वतंत्र।।3066।।

भाषा बन संवाद की, सुख-दुख की अभिव्यक्ति।
हिन्दी हो हर व्यक्ति की सुस्थिर चिन्तन-शक्ति।।3067।।

हिन्दी रोटी दे सके, हिन्दी दे सम्मान।
भाषा करुणा-प्रेम की, सबका हो कल्यान।।3068।।

जो बापू की लाडली, करे जवाहर प्यार।
बनते-बनते राष्ट्र-रव कहाँ फँसी मँझधार।।3069।।

जो थी गिरा सुभाष की, गूँज उठा ‘जय हिन्द’।
सुनकर नारा क्रान्ति का खिले सुमुख-अरविन्द।।3070।।

जिसमें भाव-विभूति है तुलसी और कबीर।
गोरख है, रैदास मन, मीरा पगली पीर।।3071।।

हैं रसखानि-रहीम भी, जहाँ जायसी जान।
केशव, घनआनन्द हैं कितने रसिक सुजान।।3072।।

पद्माकर, मति राम कवि बसे बिहारी देव।
भूषण जैसे राष्ट्रकवि, स्वाभिमान की टेव।।3073।।

क्या अवसाद प्रसाद जब, प्रेमचन्द रनधीर।
देवि महादेवी प्रकट, निकट निराला वीर।।3074।।

दिनकर, बच्चन-मधुकलश भरे छलकते छन्द।।
रत्नाकर के रस भरे मधुर भाव मकरन्द।।3075।।

कितने ही आचार्य-कवि, कथाकार-सम्राट।
गोर्की, चेखव से यहाँ इलियट-विभा विराट।।3076।।

हिन्दी हृदय-विकास-गति, मुक्ति-बोध-संग्राम।
लिपि कमनीया नागरी वैज्ञानिक गुण-ग्राम।।3077।।

क्या है इसका व्याकरण, गुनिए क्या आचार।
भाव और संवेदना, सम्यक् विवृत विचार।।3078।।

मुँहबोले-से मुहावरे, बोधगम्य लोकोक्ति।
शब्द-सुपद, रस-आभरण, वाक्य सुभग औ प्रोक्ति।।3079।।

अक्षर-मोती-माल से छन्द-छन्द मकरन्द।
झरे सुरभि फैले जगत् जिसकी कीर्ति बुलन्द।।3080।।

लव लिंगत्व-विचार कर, उचित विशेषण बूझ।
थोड़े से अभ्यास में सूझे नित् नव सूझ।।3081।।

शब्द-ब्रह्म-आराधना सम्यक् ज्ञान-प्रयोग।
सधे लोक-परलोक ज्यों कामधेनु-फल योग।।3082।।

हिन्दी-सेवा-सुख मिले जैसे माँ की गोद।
उदित मिहिर, सरसिज मुदित खिले, मधुप को मोद।।3083।।

लिखिए-पढ़िए एक ध्वनि, भाषा सरल-सुबोध।
कविगन वरिवस्या सृजन, बुधजन करते शोध।।3084।।

गागर में सागर भरे, शब्द अमृत-रसधार।
प्रभापूर्य रवि-कर परस नेह नयन-नीहार।।3085।।

रचनाकाल : 20 सितम्बर, 2023
बलिया, उत्तर प्रदेश
(नीहार-दोहा-महासागर : चतुर्थ अर्णव(पंचम हिल्लोल)अमलदार ‘नीहार’)

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