रीता दास राम , पी.एच.डी. शोध छात्रा, मुंबई विश्वविद्यालय
“अपने जन्म के लिए भी जो मोहताज है उसकी कोख का,
जाने क्यों स्त्री उस पुरुष पर निर्भर होती है।”
उपन्यासकारों में सर्वश्रेष्ठ उपन्यास कार प्रेमचंद और उनका साहित्य भारतीय संस्कृति की धरोहर है, पहचान है। जितनी शिद्दत से उन्होंने समाज की अन्य समस्याओं पर लेखनी चलाई है, उतनी ही सूक्ष्म दृष्टि नारी की व्यथा पर भी केंद्रित की है। जगत की कल्पना का उद्गम हैं स्त्री–पुरुष। समाज के निर्माण में दोनों ही अहम भूमिका निभाते रहे हैं, उसी समाज में पुरुष को मान सम्मान दिया जाता है और स्त्री की उपेक्षा होती रही है, यह बात व्यथित करती है। महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, राजा राममोहन राय महापुरुषों और प्रेमचंद जैसे साहित्यकार जिन्होंने राष्ट्रीय-आंदोलन के साथ-साथ भारत में नारी-आंदोलन, सती-प्रथा एवं नारी की समस्या की ओर लोगों का ध्यानाकर्षण किया और स्त्री को उसके अधिकारों के प्रति जागरूक किया।
हमारे पुरुष प्रधान समाज में बरसों से पुरुषों की हुकूमत रही है। आज स्त्री के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए उठे स्त्री के स्वर में स्वर मिलाने वाले पुरुषों का भी एक वर्ग हैं, जो उन्हें सम्मान देना चाहता है, उनका साथ देना चाहता है। शिद्दत से महसूस करते रहे पुरुष वर्ग ने भी स्त्री विमर्श पर आवाज बुलंद की है। इस पर शायर मजास की दो पंक्तियाँ याद आती हैं –
“ तिरे मत्थे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन ,
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था ”
डॉ सुरेश सिन्हा के अनुसार, “उस नए युग में नारी के ऊपर से उस भौंडे, कृत्रिम और अविश्वासपूर्ण आवरण को उतार कर जिसे प्रेमचंद पूर्व काल के उपन्यासकारों ने अपनी तथा कथित आदर्शवादिता एवं सुधारवादिता के जोश में आकर पहना दिया था और जिसके फलस्वरूप नारी का स्वरूप बोझिल ही नहीं हो गया था, आडंबरपूर्ण और अविवेकपूर्ण-सा प्रतीत होने लगा था। नारी की आत्मा को उसकी तमाम अच्छाइयों और बुराइयों के साथ प्रेमचंद ने पहली बार यथार्थवादी ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया।”1 स्त्री की मनोदशा उसकी जटिलताएँ, समाज में उसकी स्थिति पर ढेरों साहित्य रचे गए। विमर्श हुये, उनमें साहित्य सम्राट प्रेमचंद का महत्व पूर्ण योगदान है। प्रेमचंद ने हिन्दी साहित्य को ‘सेवासदन’ (1918 ई॰), ‘वरदान’ (1921 ई॰), ‘प्रेमाश्रम’ (1921 ई॰), ‘रंगभूमि’ (1925 ई॰), ‘कायाकल्प’ (1926 ई॰), ‘निर्मला’ (1927 ई॰), ‘प्रतिज्ञा’ (1929 ई॰), ‘गबन’ (1931 ई॰), ‘कर्मभूमि’ (1932 ई॰), ‘गोदान’ (1936 ई॰), ‘मंगलसूत्र’- कुल ग्यारह उपन्यासों की अमूल्य निधि समर्पित की हैं। अफसोस मंगलसूत्र अधूरा ही रह गया। प्रेमचंद ने अपने साहित्य द्वारा समाज की वास्तविक स्थिति पर सिर्फ प्रश्न ही नहीं उठाये, समस्याएँ ही बयान नहीं की, बल्कि समाधान की ओर भी लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है। वे अपने युग के ऐसे हस्ताक्षर हैं जो मील का पत्थर साबित होते हैं। उनके आत्ममंथन की स्थिति उनके साहित्य में नजर आती है। उनके तत्कालीन युग के ग्रामीण समाज का चित्रण उनके साहित्य में दिखाई पड़ता है। यही कारण है कि उनके साहित्य में हर पात्र सजीव हो उठे हैं।
मैनेजर पांडे लिखते हैं, “बीसवीं सदी के भारतीय समाज के इतिहास की सबसे बड़ी घटना है अँग्रेजी राज की गुलामी से मुक्ति के लिए इस देश की जनता का संघर्ष। प्रेमचंद उस संघर्ष की वास्तविकताओं और संभावनाओं के अनन्य कथाकार होने के कारण बीसवीं सदी के प्रतिनिधि कथाकार भी हैं।”2 बेड़ियों में जकड़े भारत में जिस वक्त चेतना का संचार, विकास की भावना एवं जागरण की सोच ने जन्म लिया। स्त्री भी पीछे नहीं थी जिसका प्रमाण हमें प्रेमचंद के साहित्य में नजर आता है।
राजनैतिक क्षेत्र में भी प्रेमचंद युगीन नारियों की दखल थी। प्रेमचंद के नारी पात्रों की यह विशेषता है कि वे भारतीय है। ‘गबन’ में ‘जालपा’ प्रेमचंद के नारी शक्ति रूपी पात्रों को देख कर आश्चर्य होता हैं, एक ओर उसका पति को सर्वस्व मानने वाला रूप, तो दूसरी ओर क्रांतिकारी होना। वह सबल चरित्र का ऐसा उदाहरण हैं, जो बिना झगड़े तत्परता और बहादुरी से जिंदगी की जद्दोजहद से जुझती है। अपनी समझ से जो भी रास्ता अख़्तियार करती हैं उस पर अडिग रहती है। रीतिरिवाज, अंधविश्वास और संस्कारों को नकारते हुये ज्ञान के उदात्त रूप को आत्मसात करती है। जालपा का यह रूप प्रेमचंद के दृष्टि के विकास का द्योतक है। वहीं ‘कर्मभूमि’ में ‘सुखदा’ एक समाज कल्याण और आत्म शक्ति के रूप में उभरा व्यक्तित्व है। ‘सुखदा’ का घर परिवार, ससुर की ज़िम्मेदारी को निभाते हुये, पति का साथ ना होने पर भी, बाहर नौकरी करना, एवं लोकहित की भावना के लिए आवाज उठाना, जेल जाना नारी के चारित्रिक विशेषता के सशक्त उदाहरण है। देश प्रेम की भावना और मानव कल्याण की भावना से जुड़ा पात्रों का व्यक्तित्व प्रेमचंद के साहित्य की गरिमा हैं। मृदुला, गोदावरी, नोहरी, सलोनी सभी इसके उदाहरण हैं।
जिस दौर में नारी को देवी मान कर पूज्यनीय भावनाओं से विभूषित किया जाता था, उस दौर में स्त्री की स्थिति दासी के तुल्य ही थी। प्रेमचंद स्त्री को उसके गुणों के कारण पुरुष से श्रेष्ठ मानते थे। वे मानते थे त्याग और वात्सल्य की मूर्ति नारी के जीवन का वास्तविक आधार प्रेम हैं और यही उसकी मूल प्रकृति भी। वे स्त्रियों का बेहद सम्मान करते थे। उनके नारी पात्र सिर्फ एक साहित्यकार की कल्पना मात्र नहीं हैं बल्कि भारतीय नारी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं।
प्रेमचंद के नारी पात्रों में शहरीय वर्ग, गाँव का किसान समुदाय और अभिजात्य वर्ग के दर्शन होते हैं। अतः इनके व्यवहार, आचरण, प्रतिक्रियाओं पर सामंती आर्थिक व्यवस्था का पूरा प्रभाव पड़ता है। उनकी कृतियों में सामाजिक परिस्थितियाँ सत्यता लिए हुये ज्यों की त्यों नजर आती है। कहीं कोई काल्पनिकता का बोध नहीं होता। असफलताएँ भी नजर आती है और सफलताओं द्वारा नई दिशा भी दिखाई गई है। हम देखते हैं उनके नारी पात्रों में माँ, पत्नी, प्रेमिका, बहन, सौतेली माँ, दोस्त, अति आधुनिका, बदचलन, वेश्या, भाभी, ननंद, समाज सुधारक, देशप्रेमी, परिचारिका, आश्रिता आदि कई रिश्ते दिखाई भी देते हैं और ध्वनित भी होते हैं।
ग्रामीण सभ्यता से आकर्षित इस साहित्यकार ने ग्रामीण जीवन को जीया है, आत्मसात किया है। संघर्षरत एवं मेहनतकश नारियाँ प्रेमचंद के साहित्य की जान है। अपने जीवन को सुखी, स्वतंत्र व संपन्न बनाने के कार्य में जुटी हुई है। गोदान में ‘धनिया’ सशक्त इरादे की निडर और धैर्यवान स्त्री यथासंभव परिस्थितिवश विरोध और विद्रोह का साहस रखती है। वहीं ‘झुनिया’ प्यार करके शादी का फैसला करती है यहाँ वो पुरुष से ज्यादा सशक्त हैं। पति में हिम्मत नहीं होने की वजह से सास ससुर को अपने रिश्ते के बारे में खुद बताती है। ‘झुनिया’ गर्भावस्था में ताड़ी पी कर आए गोबर की प्रताड़ना का शिकार होती है, फिर भी हड़ताल में घायल गोबर की जी जान से सेवा कर उसे स्वस्थ करती है। यह स्त्री-पुरुष के बीच विरोधाभास नारी नियति समझ के जीती रही है। जहाँ एक ओर आदर्शवादिता को ओढ़े ग्राम्य समाज का ये किसान वर्ग डरते-डरते जिंदगी जीता है और डरते-डरते ही मर जाता है, वहीं उनकी औरतें रोते कलपते हिम्मत बाँधें जिंदगी जीती हैं एवं परिस्थिति से समझौते करना व हर हाल में संतुष्टि बनाएँ रखना इनके जीवन का आधार होता है। जो उपन्यास के अंतिम दृश्य में लेखक साक्षात सच्चाई प्रस्तुत कर देते है। “महाराज घर न गाय है न बधिया, न पैसा, यही पैसे हैं । यही इनका गोदान यही और पछाड़ खाकर गिर पड़ती है।”3 किसान वर्ग के संघर्ष का चित्रण यहाँ तकलीफ देता है।
प्रेमचंद युगीन समाज में नारी पूरी तरह पुरुष के अधीन रही। ये वो दौर था जब पति के संपत्ति पर पत्नी का हक न था। पति के मरते ही पत्नियाँ जायदाद, संपत्ति से बेदखल हो जाया करती थी। यह बात कहने के लिए बुरी लगती है किन्तु अक्षरंश सत्य है। प्रेमचंद ने विधवा समस्या को अपने साहित्य में बार-बार उभारा है। यह समाज का शाश्वत प्रश्न है जो हर वर्ग के स्त्री के सम्मुख उपस्थित है। ‘गबन’ में विधवा रतन कहती हैं, “न जाने किस पापी ने यह कानून बनाया था कि पति के मरते ही हिन्दू नारी इस प्रकार स्वत्व-वंचिता हो जाती है।”4 वैधव्य के कई उदाहरण उनके उपन्यास में है। जैसे ‘वरदान’ में वृजरानी वैधव्य की शिकार होते हुये प्रताप के प्रेम में पड़ कर भी विवाह नहीं कर सकती। कमलचरण की अकाल मृत्यु पर वृजरानी के दुख का वर्णन करते हुये प्रेमचंद लिखते हैं, “सौभाग्यवती स्त्री के लिए उसका पति संसार की सबसे प्यारी वस्तु होती हैं। वह उसी के लिए जीती है और उसी के लिए मरती हैं। उसका हँसना बोलना उसी को प्रसन्न करने के लिए और उसका बनाव श्रंगार उसी को लुभाने के लिए होता है, उसका सुहाग उसका जीवन हैं और सुहाग उठ जाना उसके जीवन का अंत हैं।”5 प्रतिज्ञा में ‘पूर्णा’ सौंदर्य की मूर्ति होते हुए वैधव्य को नसीब समझ कर कृष्ण की मूर्ति में लीन हो जाती है। पति की मौत के बाद धर्मावलंबियों एवं पोंगा पंडित द्वारा एक विधवा की अस्मत से खेला जाना दुखद चित्रण हैं। ‘गायत्री’ रासलीला के दलदल में धंस कर रह जाती हैं। वहीं ‘धुनिया’ और ‘स्वामिनी’ अपने मन मुताबिक विवाह करके संतुष्ट जीवन जीती हैं। इनके उपन्यासों में कल्याणी, रतन, रेणुका देवी, ऐसी विधवाएँ हैं जिन्हें वैधव्य से कोई शिकायत नहीं। विरंजन(वरदान), गायत्री (प्रेमाश्रम), बागेश्वरी (कायाकल्प), कल्याणी (निर्मला), रुक्मिणी (निर्मला), रतन (गबन), और रेणुका देवी (कर्मभूमि) ये ऐसी स्त्रियाँ हैं, जिन्होंने विधवा जीवन स्वीकारते हुये उन्हें जीया है। उसके मर्यादा की रक्षा की है। ‘प्रतिज्ञा’ में विधवा पुनर्विवाह का सारा तारतम्य संभव सकने के बावजूद किसी पात्र के द्वारा प्रेमचंद यह नहीं घटित करा पाये। बल्कि पूर्णा को वनिता आश्रम भेज दिया गया। इससे यह साफ जाहीर होता है कि प्रेमचंद यह फैसला समाज पर छोडना चाहते थे, थोपना नहीं।
इज्जत, शारीरिक सुंदरता, शारीरिक निर्बलता एवं उसके दैवीय गुणों को महिमामंडित कर नारी को बल पूर्वक घर में बंद रहने पर मजबूर किया गया है। यही कारण है कि परिवार में पुरुष वर्ग कब्जा जमाये बैठे हैं। वहीं स्त्री अपने पारिवारिक स्थान से गिरते हुये शीघ्र ही गुलाम बन गई। ‘गोदान’ में गोविंदी आदर्श पत्नी का उत्कृष्टतम उदाहरण हैं एवं पुरुष वर्ग द्वारा नारी से अपेक्षा का चरमोत्कर्ष, हम डॉ मेहता के वक्तव्य में देखते हैं। डॉ मेहता कहते हैं “संसार में जो कुछ सुंदर हैं उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ, मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि मैं उसे मार ही डालूँ तो भी प्रतिहिंसा का भाव उसमें ना आए, अगर मैं उसकी आँखों के सामने किसी स्त्री को प्यार भी करूँ तो भी उसकी ईर्ष्या ना जागे।”6
स्त्री को पुरुष की साथी होना चाहिए, न की सेविका। यह स्थिति काफी दिनों तक समझी नहीं जा सकी या स्त्रियों में स्वीकारने ही हिम्मत नहीं थी। ‘कायाकल्प’ में नायक की स्त्री पूछती है, “नारी के लिए पुरुष सेवा से बढ़कर और कोई विलास, भोग एवं श्रंगार नहीं हैं परंतु कौन कह सकता है कि नारी का यह त्याग उसका यह सेवा भाव ही आज उसके अपमान का कारण नहीं हो रहा हैं ?”7 यहाँ ये साफ नजर आता है कि नारी के आदर्श रूप का पुरुषों द्वारा इस्तेमाल किया जाता रहा है। प्रेमचंद जो इशारा कर गए थे आज के नारी समाज में आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के बदलाव परिलक्षित होते है।
आर्थिक निर्भरता ने स्त्री को समाज में गुलामी से जीने पर मजबूर कर दिया है। ‘मंगलसूत्र’ में प्रेमचंद नारी के ‘आश्रिता’ और उसके विरोध के मुद्दे को दर्शाते हैं। संतकुमार अपनी पत्नी पुष्पा से कहते हैं, “जो स्त्री पुरुष पर अवलंबित है उसे पुरुष की हुकूमत माननी पड़ेगी।”8 पत्नी पुष्पा का उत्तर हमें तत्कालीन समाज में नारी की स्थिति और उसका विरोध बयान करता है। “अगर मैं तुम्हारी आश्रिता हूँ, तो तुम भी मेरे आश्रित हो। मैं तुम्हारे घर में जितना काम करती हूँ उतना ही काम दूसरों के घर में करूँ, तो अपना निर्वाह कर सकती हूँ या नहीं बोलो? तब मैं जो कमाऊँगी वो मेरा होगा। यहाँ मैं चाहे प्राण भी दे दूँ, पर मेरा किसी भी चीज पर अधिकार नहीं। तुम जब चाहो मुझे घर से निकाल सकते हो।”9 यह दुखद चित्रण है ।
प्रेमचंद स्त्री के आर्थिक स्वतंत्रता एवं विकास के पक्षधर हैं किन्तु पश्चिमी सभ्यता के अनुकरण को नकारते हैं। पाश्चात्य देशों के वैवाहिक संबंधों में तलाक, स्वच्छंदता, विरोध, विद्रोह और व्यावहारिकता का अनुकरण की जो भावना भारत की कुछ उच्च शिक्षित पश्चिम से प्रभावित नारी में जागृत हो रही थी, उसे वे चिंता का विषय मानते थे। गोदान की मिस मालती का व्यंग्यपूर्ण परिचय हम देख सकते हैं। “आप नवयुग की साक्षात प्रतिमा है गाल कोमल पर चपलता कूट-कूट कर भरी हुई, झिझक या संकोच का कहीं नाम नहीं।”10 स्पष्ट है उनकी आत्मा भारतीय नारी में बसती थीं।
स्त्री को गर सच्चा प्रेम मिल जाय तो उसमें सहज ही सुधार आ जाता है, ये प्रेमचंद उपन्यासों के नारी पात्रों में झलकता है। ‘गबन’ की वेश्या ज़ोहरा और ‘गोदान’ की तितलीनुमा ‘सोसायटी लेडी’ मिस मालती ऐसी ही स्त्रियाँ हैं। वेश्या वृत्ति की समस्या पर प्रेमचंद की भावनाएं कोमल रही है। उनकी अवधारणा रही हैं, इस तरह की महिलाएँ समाज द्वारा ठुकराई हुई होती है। बेहतर जिंदगी का मौका मिलें तो वेश्यावृत्ति उनकी पसंद हरगिज नहीं होगी। ‘सेवासदन’ इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस उपन्यास में प्रेमचंद जी ने वेश्यावृत्ति जो दहेज का दुष्परिणाम है, को प्रस्तुत किया है। साथ ही साथ स्त्री की उन कोमल भावनाओं से हमें अवगत कराया है जो उनके भीतर के बदलाव का कारण होते हैं। जिन हालात के चलते सुमन अपने आप को वेश्यावृत्ति में झोंक देती है। ‘सेवासदन’ में बैंक के बाबू और समाज-सुधारक विट्ठल दास से स्वयं सुमन वेश्यावृत्ति अपनाने के वजह पर कहती हैं, “मैं जानती हूँ कि मैंने अत्यंत निकृष्ट कर्म किया है, लेकिन मैं विवश थी। इसके सिवाय मेरे लिए कोई रास्ता ना था।”11 आगे वह कहती है, “मेरे मन में नीति यही चिंता रहती थी कि आदर कैसे मिलें ।”12 यहाँ प्रेमचंद उन तथ्यों को उजागर करते हैं कि निम्न से निम्न स्तर के कार्य में संलग्न व्यक्ति भी मान चाहता है, सम्मान चाहता है, आदर चाहता है। तो स्त्री का घर में आदर सम्मान क्यों नहीं ? यहाँ प्रेमचंद समाज सुधारक की दृष्टि रखते हैं।
प्रेमचंद की रचनाओं में नारी पात्रों ने पर्दा-प्रथा, अनमेल-विवाह, दहेज-प्रथा आदि कई समस्याओं को भोगा है, उन्हें जिया है और सवाल भी उठाए है। अनमेल-विवाह हुए, स्त्री अपमानित होती रही, नौकरानियों से निम्नतर व्यवहार उनके साथ किया गया, समाज में बेटियाँ बोझ महसूस की गई। यह सारा हमें प्रेमचंद के साहित्य में नजर आता है। प्रेमचंद ने नारी की स्थिति सुधरने के लिए उसका आत्मनिर्भर होना स्वीकारा। ये उस दौर में एक बड़ी बात थी। ‘निर्मला’ द्वारा नारी का वह वर्ग सामने आता है, जो दहेज और अनमेल-विवाह में होम हो चुकी है। मानसिक अंतर-द्वंद्व और विषम-परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए सारी जिंदगी बिता देती है। खानदान का अच्छा होना मायने रखता है, किन्तु वर की योग्यता कोई मायने नहीं रखती। समाज के खोखले विचारों के सजीव चित्रण उस समय और मुखर हो उठते हैं, जब 45 वर्ष के तोता राम का विवाह 15 वर्ष की निर्मला से हो जाता है। ना निर्मला की जिंदगी सँवरती है, ना तोता राम के परिवार को तबाह होने से कोई रोक पाता है।
प्रेमचंद के उपन्यासों में नारी के ढेरों रूप हमने देखें, जिससे समाज को देखने, परखने और जाँचने का मौका मिला। प्रेमिका, विधवा, माता, परिणीता, मेहनतकश, वेश्या और समाज सेविका आदि कई रूपों में उनकी नारी पात्र अमित छाप छोडती हैं। जहाँ वर्तमान और भूतकाल की विषम स्थिति के दर्शन उनके उपन्यासों में होते हैं वहीं भविष्य को भी काफी आगे तक देखा गया है। अतः उनके साहित्य में नारी पात्र, स्त्री विमर्श का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करते हुये समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं।
संदर्भ सूची:
(1) उपन्यास कार प्रेमचंद, लेख-प्रेमचंद और उनकी नायिकाएँ, डॉ सुरेश सिन्हा, पृ 145.
(2) प्रेमचंद के आयाम, लेख-प्रेमचंद आज भी लोकप्रिय क्यों?, मैनेजर पांडे, पृ 30.
(3) गोदान, पृ 361.
(4) गबन, पृ 337.
(5) वरदान, पृ 115.
(6) गोदान, पृ 189.
(7) कायाकल्प, पृ 444.
(8) मंगलसूत्र,पृ 10.
(9) मंगलसूत्र, पृ 12.
(10) गोदान, पृ 60.
(11) सेवासदन, पृ 91-92.
(12) सेवासदन, पृ 60