आचार्य शुक्ल के कबीर संबंधी मूल्यांकन का पुनर्पाठ

  • डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी ही नहीं, संपूर्ण भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठतम आलोचक माने जाते हैं। उनका आलोचकीय व्यक्तित्व इतना विराट और गंभीर रहा है कि कोई दूसरा आलोचक उनके समकक्ष प्रतीत नहीं होता। वे विश्व के तीन श्रेष्ठतम आलोचकों में से एक हैं, जिनमें अरस्तू, रामचंद्र शुक्ल और मैथ्यू आर्नल्ड का समावेश किया जाता है। भारतीय परंपरा में आचार्य उसे माना गया है, जो प्रस्थान-प्रवर्तक हो और अतीत से लेकर वर्तमान तक को नूतन बना दे तथा भविष्य के लिए विवेकपूर्ण संकेत कर जाए। शुक्ल सही मायने में ऐसे ही आचार्य थे। उनका आलोचनात्मक लेखन गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से अतिशय उत्कृष्ट तथा उपयोगी है। उनके आलोचकीय व्यक्तित्व की गुरुता आज तक महसूस की जा सकती है। फलतः बाद के आलोचकों ने अपनी बहुत सारी शक्ति उनकी स्थापनाओं से टकराने में जाया की है। इस दृष्टि से आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी के पहले महत्वपूर्ण आलोचक हैं, जो शुक्लजी की मान्यताओं से सर्वप्रथम टकराते हैं। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में इनका आगमन भी आचार्य शुक्ल के तुरंत बाद होता है। जिस तरह आचार्य शुक्ल संस्कृत और अंग्रेजी से हिंदी में आए थे, उसी तरह हजारी प्रसाद द्विवेदी संस्कृत और अपभ्रंश से हिंदी में आते हैं। लेकिन आचार्य शुक्ल की आलोचनात्मक मान्यताएं उस समय के किसी व्यक्ति-विशेष से प्रेरित और प्रभावित नहीं थी जबकि द्विवेदीजी की आत्मा पर रवीन्द्रनाथ टैगोर कुंडली मारकर बैठे थे। द्विवेदी के लिए उनका अतिक्रमण लगभग असंभव था। इन्होंने एक स्पष्ट ऐतिहासिक दृष्टि तथा विश्व मानवतावाद का प्रतिमान लेकर हिंदी आलोचना के भव्य प्रासाद में प्रवेश किया। चूंकि आचार्य शुक्ल की आदिकाल, कबीर और छायावाद संबंधी मान्यताएं अपनी दृष्टिगत मर्यादा और उपलब्ध सामग्री की सीमा के कारण विवाद का विषय रही हैं, फलत: हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हीं विषयों को अपने विवेचन का आधार बनाया। आपने ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ लिखकर आचार्य शुक्ल की कतिपय मान्यताओं को चुनौती देने का कार्य किया। इनका मानना था कि भक्ति काव्य भारतीय चिंता धारा का स्वाभाविक विकास है, उसे इस्लाम की प्रतिक्रिया मानना सही नहीं होगा। उन्होंने स्वयं लिखा है” मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि यदि इस देश में इस्लाम न भी आया होता, तो भी भक्ति काव्य का बारह आना वैसे ही होता जैसा कि आज है “1 यहां विचारणीय है कि द्विवेदी ने आचार्य शुक्ल की जिन मान्यताओं का खंडन करना चाहा, वहां उनके आधे- अधूरे कथन को उद्धृत किया अथवा उतने ही पक्ष को उद्धृत किया, जो उनके विवेचन में सहायता करते हों। इसे उनका व्यावहारिक चातुर्य माना जाएगा, क्योंकि एकबारगी पाठक उसके प्रवाह में बह ही जाता है। इस कार्य में उनकी व्यास शैली भी सहकारी भूमिका में है।

आचार्य शुक्ल ने भी भक्ति के उद्भव पर सूरदास अथवा भ्रमरगीतसार की भूमिका नामक पुस्तक में सविस्तार लिखा है। उन्होंने यह प्रतिपादित किया है कि भक्ति के उद्भव का संबंध किस तरह श्रीमद्भागवत पुराण, नारद भक्ति सूत्र और आलवार भक्तों से जुड़ जाता है। उनकी भेदक इतिहास दृष्टि एवं गंभीर लेखनी का संस्पर्श पाकर भक्ति की समूची परंपरा उद्भासित हो उठी है। हिंदी साहित्य के इतिहास में आचार्य शुक्ल के जिन वक्तव्यों को द्विवेदी जी ने विवादास्पद बनाने का प्रयास किया वह इस प्रकार हैं :

1.”देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देव मंदिर गिराए जाते थे, देव मूर्तियां तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वह कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत ना तो वे गा ही सकते थे, ना बिना लज्जित हुए सुन सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया, तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए।इतनी भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जन समुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छाई रही ।अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था” ?2

आचार्य द्विवेदी ने यह बताने की कोशिश की है कि मुसलमानों के आगमन के पूर्व ही देश में अनेक जातियां आ रही थीं और इस देश की संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई थीं। उन्होंने सूर साहित्य में शुक्ल जी के उपर्युक्त उद्धरण पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा है कि “मुसलमानों के आगमन के पहले भी सैकड़ों जातियां इस देश में आकर हिंदू धर्म का कवच पहन चुकी थीं। नई-नई जातियों के आने से नई-नई समस्याएं खड़ी हो गईं और हिंदू शास्त्रकारों ने नई-नई स्मृति और नए-नए रूप में पुराण रचकर इन समस्याओं को हल करने की चेष्टा की थी । उस समय तक हिंदू जाति के अंदर अदम्य जीवनी- शक्ति और संपूर्ण सत्य की अवधारणा वर्तमान थी। इस जीवनी शक्ति के कारण ही वह नई व्यवस्था बना सकी थी, परंतु मुसलमानों के आने से वह शक्ति स्तंभित सी हो गई। अब तक जो जातियां आई थी, उनकी अपनी कोई जबरदस्त संस्कृति न थी पर मुसलमानों की संस्कृति केवल सशक्त और संयत ही नहीं थी, उसमें भारतीय संस्कृति के विरोधी उपादान भी थे, यह बड़ी विकट समस्या थी| “3 क्या हिंदू जाति के भीतर की अदम्य जीवनीशक्ति के स्तंभित अर्थात जड़वत होने तथा अपने पौरुष से हताश जाति जैसे पदबंध में अर्थ के धरातल पर कोई भेद हो सकता है। यदि नहीं तो इसका आशय यह है कि द्विवेदीजी शुक्लजी की ही बात को उनका प्रतिवाद करते हुए कह रहे हैं।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि द्विवेदी जी यह बताने की कोशिश करते हैं कि भारतीय जन समुदाय जो कुछ सोच रहा था, हिंदी साहित्य उसे जानने का सबसे बड़ा साधन था। वह भारतीय जनमानस की स्वाभाविक चिंताधारा थी। जबकि आचार्य शुक्ल इसके पहले ही जनता की चित्तवृत्ति के संचित प्रतिबिंब को ही साहित्य बतला चुके थे ।इसी तरह द्विवेदीजी यह भी कहते हैं कि हिंदी साहित्य हतदर्प पराजित जाति की संपत्ति नहीं है, जबकि आचार्य शुक्ल ने ऐसा कहीं नहीं कहा है। ठीक इसी तरह द्विवेदी भक्ति काव्य में चार आना अर्थात पचीस प्रतिशत मुसलमानी प्रभाव स्वीकार भी करते हैं। कहने का आशय यह कि वे आचार्य शुक्ल की किसी भी मान्यता को तर्क अथवा प्रमाण के आधार पर ध्वस्त नहीं कर पाते, यह दूसरी बात है कि इससे हिंदी आलोचना में एक नई बहस आरंभ होती है। आचार्य शुक्ल ने भक्तिकाल के तीन बड़े कवियों जायसी, सूर और तुलसी पर स्वतंत्र पुस्तकें लिखी थी और उनकी कविता के मर्मस्थल की मार्मिक पहचान की थी। उन्होंने उक्त कवियों की कविताओं के भावपक्ष और कलापक्ष का जो सूक्ष्म तथा संतुलित विवेचन किया है, वैसा पाठ विश्लेषण अन्यत्र दुर्लभ है। वह किसी कारणवश कबीर पर पूरी पुस्तक नहीं लिख पाये और इसी कमी को पूरा करने के लिए द्विवेदी जी आगे आते हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आचार्य शुक्ल ने जितना भी कबीर पर लिखा है वह व्यावहारिक आलोचना का अद्भुत नमूना है। उन्होंने कबीर के रचनात्मक व्यक्तित्व की जो छवि निर्मित की है, वह अपनी वस्तुनिष्ठता के कारण ख़ारिज नहीं हो सकी। यही कारण है कि आज आचार्य शुक्ल के कबीर संबंधी मूल्यांकन का पुनर्पाठ तैयार करने की महती आवश्यकता है। आचार्य शुक्ल ने कबीर के संदर्भ में जो स्थापनाएं दी उनमें निम्नलिखित बातें विचारणीय हैं:

1) “जो ब्रह्म हिंदुओं की विचार पद्धति में ज्ञानमार्ग का एक निरूपण था उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही नहीं प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठ योगियों की साधना का समर्थन किया।

2) कबीर ने ज्ञान मार्ग की जहां तक बातें की हैं वह सब हिंदू शास्त्रों की हैं जिनका संचय उन्होंने रामानंद जी के उपदेशों से किया।

3) ज्ञान मार्ग की बातें कबीर ने हिंदू साधू- सन्यासियों से ग्रहण की जिसमें सूफियों के सत्संग से उसमें प्रेम तत्व का मिश्रण किया और अपना एक अलग पंथ बनाया।

4) उपासना के बाह्य- स्वरूप पर आग्रह करने वाले कर्मकांड को प्रधानता देने वाले पंडितों और मुल्लों दोनों को उन्होंने खरी खरी सुनाई और राम -रहीम की एकता समझाकर हृदय को शुद्ध और प्रेम में करने का उपदेश दिया।

5) यद्यपि वे पढ़े-लिखे ना थे पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी जिससे उनके मुंह से बड़ी चुटीली और व्यंग्य चमत्कारपूर्ण बातें निकलती थीं।

6) कबीर अपने श्रोताओं पर अच्छी तरह भाषित करना चाहते थे कि हमने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है इसी से वह प्रभाव डालने के लिए बड़ी लंबी चौड़ी गर्वोक्तियां भी कभी-कभी कहते थे।

7) कबीर के बीजक में वेदांत तत्व, हिंदू मुसलमानों को फटकार, संसार की अनित्यता, हृदय की शुद्धि, प्रेम साधना की कठिनता, माया की प्रबलता, मूर्ति पूजा तीर्थाटन आदि की असारता और नमाज, व्रत ,आराधन की निंदा इत्यादि प्रसंग हैं। सांप्रदायिक शिक्षा और सिद्धांत के उपदेश मुख्यतः साखी के भीतर हैं जो दोनों में हैं ।इसकी भाषा सधुक्कड़ी अर्थात राजस्थानी पंजाबी मिली खड़ी बोली। पर रमणीय शब्द में गाने के पद हैं जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं कहीं पर भी बोली का व्यवहार है।

8) भाषा बहुत परिष्कृत और परिमार्जित ना होने पर भी कबीर की उक्तियों में कहीं-कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार हैं प्रतिभा उनमें बड़ी प्रखर थी इसमें संदेह नहीं। “4

9) इसमें कोई संदेह नहीं है कि कबीर ने नैतिक मोर्चे पर जनता के बड़े भाग को संभाला जो नाथपंथियो के प्रभाव से प्रेम भाव और भक्ति रस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था।उनके द्वारा यह बहुत बड़ा कार्य हुआ।इसके साथ ही मनुष्य की एक सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और उसे भक्ति के ऊंचे से ऊंचे स्थान की ओर बढने के लिए बढ़ावा दिया। 5

आखिर कबीर के अवदान का इतना बहुमुखी और वैज्ञानिक विश्लेषण और किसने किया है? शुक्लजी कबीर की प्रतिभा की प्रखरता का दो बार उल्लेख करते हैं। क्या हम शुक्लजी जैसे आलोचक से यह अपेक्षा रखते हैं कि वह वस्तुनिष्ठ विश्लेषण के बजाय किसी कवि का करतार लेकर यशगान करे? आचार्य शुक्ल ने अवसर मिलने पर अपने विश्वविख्यात निबंध ‘काव्य में रहस्यवाद में भी कबीर पर विशेष रूप से लेखनी चलाई है। वे लिखते हैं कि-
10-” ब्रह्म, माया,पंचेन्द्रिय,जीवात्मा,विकार, परलोक आदि को लेकर कबीरदास ने अनेक मूर्तस्वरूप खड़े किए हैं। इन मूर्त रूपकों में ध्यान देने की बात यह है कि जो रूपयोजना केवल अद्वैतवाद,मायावाद आदि वादों के स्पष्टीकरण के लिए की गई है उसकी अपेक्षा वह रूपयोजना जो किसी सर्वस्वीकृत, सर्वानुभूत तथ्य को भावक्षेत्र में लाने के लिए की गई है , कहीं अधिक मर्मस्पर्शी है।उदाहरण के लिए मायावाद-समन्वित अद्वैतवाद के स्पष्टीकरण के लिए कबीर की यह उक्ति लीजिए-

” जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहिर भीतरि पानी।
फूटा कुंभ , जल जलहि समाना, यह तत कथो गियानी।।”

यह वेदांत ग्रंथों में लिखा हुआ दृष्टांत कथन मात्र है।अच्छा, इसी ढंग की एक दूसरी कुछ और विस्तृत रूपयोजना देखिये-

” मन न डिगै ताथै तन न डराई।
अति अथाह जल गहिर गंभीर, बांधि जंजीर जलि बोरे हैं कबीर।
जल की तरंग उठी , कटी है जंजीर, हरि सुमिरत तट बैठे हैं कबीर।।”

इसमें ज्ञानोदय द्वारा अज्ञान का बंधन कटने और भव सागर के पार लगने का संकेत है।यह बंधन हरि की कृपा से कटा है, इससे कबीरदास अब उनका स्मरण करते और गुण गाते हैं।यह एक निरूपित सिद्धांत का वास्तव में घटित तथ्य के रूप में चित्रण मात्र है। ज्ञान से मुक्ति होती है और ज्ञान ईश्वर के अनुग्रह से होता है।यह एक वाद या सिद्धांत है।कबीरदास जी इस बात इस रूप में सामने पेश करते हैं मानों यह सचमुच हुई है– वे भव सागर के पार हो गए हैं और फूले नहीं समा रहे हैं।हम जानते हैं कि इसकी व्याख्या के लिए ऐसे बंधे और मंजे हुए वाक्य मौजूद हैं कि यह तो साधक की उस दिव्य अनुभूति की दशा है जिसमें वह अपने को इस भौतिक कारागार से मुक्त और बाह्य की ओर अग्रसर देखता है।’ पर यदि कोई कहे कि यह सब कुछ नहीं, यह एक सांप्रदायिक सिद्धांत का काव्य के ढंग पर स्वीकार मात्र है, तो हम उसका मुंह नहीं थाम सकते।”6

इस तरह आचार्य शुक्ल यह प्रतिपादित करते हैं कि कबीर की काव्य पंक्तियाँ दार्शनिक धारणाओं, सूत्रों , अनुभवों को परंपरा में केवल दुहराती हैं।इसमें बहुत कुछ मार्मिक कविता भी विचारों की एकरसता से दब -सी गयी है।शुक्ल जी इसके बरक्स लोकजीवन से अनुप्राणित पंक्तियों पर भी टिप्पणी करते हैं जिनमें अपेक्षित काव्य-सौष्ठव है। वे अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि – “अब देखिए कि उक्त पंक्तियों की अपेक्षा कबीरदास जी नीचे दी हुई उक्तियाँ, जो लोकमत या अनुभव सिद्ध तथ्यों को सामने रखतीं हैं, कितनी मर्मस्पर्शिणी हैं। देहावसान सबसे अधिक निश्चित एक भीषण तथ्य है। उसके निकट होने की कैसी मूर्तिमान चेतावनी इस साखी में है-

” बाढ़ी आवत देखि करि तरिवर डोलन लाग।
हमें कटे की कुछ नहीं , पंखेरू घर भाग।।”

हवा में हिलता हुआ पेड़ मानों बढ़ई को आता देख कांपता है- बुढ़ापे से हिलता शरीर मानों काल को पास पहुँचता देख थर्राता है। शरीर कहता है कि हमारे नष्ट होने की परवाह नहीं, हे आत्मा! तू अपनी तैयारी कर !

” मेरो हार हिरानो मैं लजाउं।
हार गुह्यो मेरो राम ताग , बिचि बिचि मानकि एक लाग।
पंच सखी मिली हैं सुजान , चलहु त जइए त्रिवेनी न्हान।
न्हाइ धोइ के तिलक दीन्ह, ना जानूं हार किनहि लीन्ह।
हार हिरानो, जन बिलम कीन्ह , मेरो हार परोसिनी आहि लीन्ह।”

यह उस मन के खो जाने का पछतावा है जो ईश्वर का स्मरण किया करता था। जीवात्मा कहता है कि ‘मुझे पंचेन्द्रियाँ बहकाकर त्रिगुणात्मक प्रवाह में अवगाहन कराने ले गयी जहां मन फंस गया। उसी मन के प्रेम को लेकर मुझे उस प्रिय के पास जाने का अधिकार था। अब उसके बिना जाते नहीं बनता। इंद्रियों ने बेतरह ठगा। इस पद में ईश्वर और परलोक मानने वाले मनुष्य मात्र की सामान्य भावना का अनुसरण करके बड़ा ही मूर्त विधान है। कुछ खटकने वाला शब्द त्रिवेणी (त्रिगुणात्मक प्रवाह) है क्योंकि प्रकृति के तीन गुण एक दर्शन विशेष के भीतर की निरूपित संख्या है। पर इस शब्द से अध्यवसान में बड़ा सुन्दर समन्वय हो गया है।
अन्योक्ति पद्धति का अवलंबन कबीरदास जी ने कम ही किया है। अधिकतर स्थानों में उन्होंने विकारों, भूतों, इंद्रियों, चक्रों, नाड़ियों इत्यादि की शास्त्रों में बंधी हुई केवल संख्याओं का उल्लेख साध्यवसान रूपकों में करके पहेली बुझाने का काम किया है। उनकी जो अन्योक्तियां या अध्यवसान प्रहेलिका के रूप में नहीं है और वादमुक्त है, वे शुद्ध काव्य के अंतर्गत आ सकती है।वाद या सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित बातों को स्वभाव सिद्ध तथ्य के रूप में चित्रित करना और उनके प्रति अपने भावों का वेग प्रदर्शित करके औरों के हृदय में उस प्रकार की अनुभूति उत्पन्न करने की चेष्टा करना, हम सच्चे कवि का नहीं मानते, मतवादी का काम मानते हैं। मनुष्य का हृदय अत्यंत पवित्र वस्तु है। उसे प्रकृत मार्ग से यों ही इधर-उधर भटकाने की चेष्टा , चाहे वह निष्फल ही क्यों न हो , उचित नहीं।”7

यहाँ इतने बड़े उद्धरण को प्रस्तुत करने का मूल कारण यह है कि आचार्य शुक्ल ने जिस वैज्ञानिक चेतना और वस्तुनिष्ठता के साथ कबीर की सृजनात्मकता तथा रचनात्मक दृष्टि का विश्लेषण किया है वैसा दूसरा और कौन आलोचक कर पाया है? उन्होंने कवि के व्यक्तित्व, विचार, दर्शन, रहस्य-चेतना, संवेदना एवं कलात्मक संदर्भों के विश्लेषण में जिस तटस्थता और सहृदयता का परिचय दिया है वह अन्यत्र दुर्लभ है। कबीर के काव्य के अभावात्मक पक्षों का निर्वचन करते हुए उसमें निहित काव्यात्मक शक्तियों का जिस खुले मन से शुक्लजी ने प्रशंसा की है वह हिंदी आलोचना की विशिष्ट उपलब्धि है।

इसके ठीक विपरीत जब द्विवेदी कबीर पर विचार करते हैं तो उन्हें आचार्य शुक्ल की उक्त स्थापनाएं बेहद नागवार लगती हैं। फलतः वे उक्त विषय पर अपना भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। द्विवेदीजी ने कबीर को योगी के बजाय भक्त माना जिसे आचार्य शुक्ल पहले ही कह चुके थे।
आचार्य शुक्ल की कबीर संबंधी मान्यताओं पर घोर असहमति व्यक्त करते हुए द्विवेदी जी ने निम्नलिखित बातें कही हैं :-

1-” कबीर योगियों के द्वारा प्रभावित तो बहुत हैं पर वह स्वयं वही नहीं जो योगी हैं। हम यहां फिर एक बार कहते हैं कि कबीर दास यौगिक क्रियाओं को भी बाह्याचार्य ही मानते थे।”6

2-” उनका केंद्रीय विचार भक्ति था। वे भक्ति को प्रधान मानते थे। उसके रहने पर बाह्याचार का होना ना होना गौण बात है।”8

3″- जिस दिन से महा गुरु रामानंद ने कबीर को भक्ति रूपी रसायन दी उस दिन से उन्होंने सहज समाधि की दीक्षा ली ।आंख मूंदने और कान सूंघ के टंटे को नमस्कार कर लिया मुद्रा और आसन की गुलामी को सलामी दे दी।”9

4-“कबीर ने ही इस इतने बड़े विश्व व्यापार को निरर्थक नहीं समझा ।उन्होंने उसे इस असीम प्रियतम की लीला का उन्मेषयिता माना है।”10
5-“कबीर ने कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके अपनी बात नहीं कही थी। उनकी छंदोंयोजना, उक्तिवैचित्र्य और अलंकार विधान पूर्ण रूप से स्वाभाविक और अयत्नसाधित है।”11

6-“भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रुप में भाषा से कहलवा लिया है- बन गया है तो सीधे-सीधे नहीं दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नजर आती है। “12

इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य द्विवेदी शुक्ल जी से एकदम अलग हटकर कबीर के संबंध में बातें कहने का प्रयास करते हैं लेकिन उनकी स्थापना शुक्ल जी की स्थापना को निरस्त नहीं कर पाती। द्विवेदी जी भले ही कबीर को वाणी का डिक्टेटर कहते हैं। लेकिन हिंदी का सामान्य पाठक आज भी आचार्य शुक्ल द्वारा प्रतिपादित सधुक्कड़ी अर्थात राजस्थानी, पंजाबी मिली खड़ी बोली को ही उनकी भाषा मानता है। साथ ही रमैनी और सबद के गीतों में ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली का व्यवहार परिलक्षित होता है। द्विवेदी जी की बात उसके गले नहीं उतरती। उसमें केवल भावोद्गार है, कोई तटस्थ आलोचकीय विश्लेषण नहीं। डॉ.नामवर सिंह ने ‘दूसरी परंपरा की खोज’ लिखकर द्विवेदीजी को आचार्य रामचंद्र शुक्ल से अलग बताने का प्रयास किया है, परन्तु वस्तुस्थिति इससे कोसों दूर है। द्विवेदीजी तथा बाद के अन्य आलोचकों ने शुक्लजी के कबीर पर लिखे गए समस्त लेखन को पढ़े बगैर अपने काम की कुछ पंक्तियों को उद्धृत करके आचार्य शुक्ल को कबीर विरोधी सिद्ध करने का प्रयास किया है जो तथ्यात्मक दृष्टि से ग़लत है। ऐसी स्थिति में शुक्लजी के कबीर संबंधी मूल्यांकन का नया पाठ तैयार करना वैज्ञानिकता का तकाजा है।इसे हम हिंदी आलोचना के अविवेक को दर्शाने वाला एक ज्वलंत पृष्ठ कहेंगे कि जिस आचार्य शुक्ल ने कबीर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की संपूर्ण शक्ति, प्रतिभा, रचनात्मक संदर्भों और अभावात्मक आयामों को पूरी निःसंगता एवं तटस्थता के साथ विश्लेषित किया उसे ही कबीर के विरोधी के रूप में प्रचारित किया गया। आचार्य शुक्ल ने कबीर की रचनाओं के आभ्यंतर से लेकर उसके भाषिक और शिल्प-सौष्ठव तक के विवेचन में जिस आलोचनात्मक विवेक का मानक उपस्थित किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है।शुक्लजी ने कबीर की प्रखर प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए उनके काव्य के मार्मिक स्थलों की पहचान और तलस्पर्शिनी व्याख्या जिस स्तर पर की है, उसकी तुलना में कबीर के तथाकथित शुभचिंतक आलोचक कहीं नहीं ठहरते। आचार्य शुक्ल ने कबीर द्वारा सामाजिक विसंगतियों, सांप्रदायिक भेदभाव, बाह्याडंबर, पाखंड, हिंसा आदि पर किए गए काव्यात्मक प्रहार को भी रेखांकित किया है। उन्होंने कबीर की लोकधर्मिता को सराहा भी है। ऐसे दृष्टि-सजग, न्यायप्रिय आलोचक को कबीर के विरोधी के रूप में प्रचारित करने का जो अपकर्म हिंदी आलोचना ने किया है, वह बेहद चिंतनीय है। इस भ्रम का निराकरण करने तथा शुक्लजी के अवदान को सही संदर्भ में समझाने की कोशिश हमने की है।मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरे इस प्रयास से शुक्लजी के कबीर संबंधी मूल्यांकन पर खुला विमर्श आरंभ होगा। यह कबीर के मूल्यांकन के वैज्ञानिक प्रयास को बढ़ावा देगा।

संदर्भ सूची:
1-हिंदी साहित्य का इतिहास– आचार्य रामचंद्र शुक्ल पृष्ठ -2 2- वही पृष्ठ 60.

3- सूर-साहित्य – आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पृष्ठ 44-45

4- हिंदी साहित्य का इतिहास -आचार्य रामचंद्र शुक्ल पृष्ठ 68.

5- वही – पृष्ठ 56.

6- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के श्रेष्ठ निबंध – संपा.सत्यप्रकाश मिश्र पृष्ठ -144-145।
2- वही पृष्ठ 60.

3- सूर-साहित्य – आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पृष्ठ 44-45

4- हिंदी साहित्य का इतिहास -आचार्य रामचंद्र शुक्ल पृष्ठ -68.

5- वही – पृष्ठ 56.

6- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के श्रेष्ठ निबंध – संपा.सत्यप्रकाश मिश्र पृष्ठ -144-145।

7- वही पृष्ठ -145-146.

8- कबीर-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पृष्ठ -93

9- वही पृष्ठ। 135

10- वही पृष्ठ-151

11- वही पृष्ठ-213

12- वही पृष्ठ -217

13- वही पृष्ठ –3

1 COMMENT

इस पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया दें