होलिका-दहन का ‘प्रह्लाद-पर्व’ और भारतीय किसान : चिन्तनपरक ललित निबन्ध

होलिका-दहन

श्रावण शुक्ल पूर्णिमा का पर्व ‘रक्षाबन्धन’ ब्राह्मण वर्ग का, आश्विन शुक्ल दशमी का ‘दशहरा’पर्व मुख्यतः क्षत्रिय वर्ग का, कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाने वाला आलोक पर्व ‘दीपावली’वैश्य समुदाय का तथा फाल्गुन पूर्णिमा तथा चैत्र प्रतिपदा का यह महान पर्व ‘होलिकोत्सव’ श्रमिक वर्ग, अर्थात् शूद्र समुदाय से संबन्धित माना जाता है, किन्तु विचारणीय बात यह है कि आज इन त्योहारों को सभी वर्ग/वर्ण, जाति के लोग सोल्लास मनाते हैं। व्यवहारिक रूप में इन चारों त्योहारों में क्रमशः पहले से दूसरे को, दूसरे से तीसरे को और तीसरे से चैथे पर्व को अधिक व्यापक लोक-स्वीकृति मिलती गयी है। तत्त्वतः यह किसान संस्कृति का महान पर्व है। यह किसानों का ‘नवान्नेष्टि-यज्ञ’ है, जिसमें वह अपनी नयी फसल के आगमन के उल्लास में जौ-गेहूँ की बालियों को भूनता है। फलदार चने को भूनकर जो ‘होरहा’ तैयार करता है, वह खेतों के गर्भ में बीज-वपन रूपी कृषि-यज्ञ की पूर्णता का बोध ‘हो रहा’का आश्वासन भी है। उसकी ‘होली’का ‘मंगल होना’यही है, बाकी तो खाद-बीज की महँगाई, महँगी सिंचाई, जानलेवा कर्जखोरी, कठिन परिश्रम के बावजूद ठगी का शिकार बनाये जाने की विडम्बना आदि इतने कष्ट हैं उसके पास कि बारहों महीने किसान का कलेजा जलता है। ‘मगारि हिये होरी सी’ केवल घनानन्द की विरहिणी की हृदय-ज्वाला नहीं है, बल्कि किसान के हृदय में भी ‘होली’जलती रहती है। फसलों के पक जाने पर ‘जो हो ली, सो होली’मान वह सारा दुःख-दर्द अपना भूल भी जाता है नवान्न की यह ‘होली’मनाकर–मानो उसके स्वेद-सीकर मोती बनकर उसे आनन्द से भर देते हैं। इसलिए भारत देश में अतीव उमंग-उल्लास के साथ व्यापकता की दृष्टि से भी हिन्दू त्योहारों में ‘होली’ से बड़ा दूसरा कोई महान पर्व नहीं। गले लगकर ग्लानि मिटाने का नाम होली है, नवीन उत्साह-उमंग, आशा-उल्लास से भर जिजीविषा के साथ अभिनव वर्ष में प्रवेश का नाम ‘होली’ है। अन्य त्योहारों की तरह इसकी भी अपनी पौराणिक कथा है। ‘होलिका हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु की दुलारी भगिनी ‘होलिका’ का बाह्य-आन्तरिक मल-कश्मल (अपने आस-पास बिखरी गन्दगी का ढेर, अनावश्यक खर-पतवार और मानसिक दोष-दुरित-लोभ, घृणा, मोह, क्रोध, ईष्र्या-द्वेष, दम्भ, अहंकार, व्यभिचार, चैर्यवृत्ति, वैमनस्य आदि विकार) का प्रतीकात्मक दहन और तदुपरान्त दूसरे दिन ‘रंग-भरी’पर्व की परंपरा का आधार पौराणिक आख्यान लगभग सभी को मालूम है। चूँकि लोग इस आख्यानक से भलीभाँति अभिज्ञ हैं तो यह भी जानते हैं कि हिरण्यकशिपु द्वारा विष्णुभक्त प्रह्लाद को अपनी राह से हटाने का यह कोई पहला प्रयास न था। उसे मारने के जितने भी उपाय किये गये, सब व्यर्थ साबित हुए। उसके लिए तो ‘विष्णु’ नाम ही महाकवच की तरह था, जो मानो उसकी सब प्रकार से रक्षा कर लेता। उसकी भक्ति-भावित प्राणों की पुकार-डोर में बँधे विष्णु(जो सर्वत्र अखिल ब्रह्माण्ड में परिव्याप्त हो) अपने अदृश्य हाथों से उसकी सहायता करने को तत्पर रहते। देवताओं के घोषित शुभाकांक्षी श्री हरि सदैव उनके संकट-मोचन बनकर दैत्यों की पराजय का कारण बन जाते, इसलिए विष्णु तथा देवताओं से जातीय वैमनस्य और सृष्टिकत्र्ता विधाता द्वारा प्राप्त वरदान के अहंकार में चूर वह दैत्यराज हिरण्यकशिपु दिन-रात दहता रहता। ऐसी स्थिति में पुत्र प्रह्लाद की अविचल विष्णु-भक्ति मानो प्रकारान्तर से देव जाति की ही उसके लिए खुली चुनौती थी। उसके कलेजे पर साँप लोटता कि उसका ही पुत्र कुलांगार बनकर उसे इतनी पीड़ा दे रहा है। असुर-संस्कार में दीक्षित और सुर-द्रोही तेजस्वी गुरु शुक्राचार्य की अनुकम्पा-छाया में पला उद्धत वह दैत्यराज इस प्रकार समस्त देव जाति और उसके महानायक महामायावी विष्णु से बद्धमूल बैर का ही भाव रखता था। भूतभावन महाशिव तथा सृष्टिकत्र्ता ब्रह्मा चूँकि हर किसी से निस्संग तथा सर्वशुभाकांक्षी पितामह तुल्य बने रहने वाले, इसलिए असुरों के भी उतने ही आराध्य थे। उनके ही वरदानों से वे फलते-फूलते और उत्पात मचाते हुए तामसी वृत्ति के कारण नष्ट भी हो जाते। इस प्रकार अभिलषित वरदानों के प्रभाव से मदोन्मत्त हिरण्यकशिपु अपने तापसी तेज से सबको तपाने लगा।

वास्तव में ‘देव और दानव’मानव-मन की ही दो प्रवृत्तियाँ हैं, किन्तु मिथकीय आख्यानों में रूपक के आवरण में कथागत मार्मिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु रमणीय अभिव्यक्ति दिखायी देती है। उन आख्यानों में भी दोनों एक ही ऋषि की पृथक्-पृथक मातृ-कुक्षि से प्रसूत संतानें हैं। सुर और असुर की दो प्रवृत्तियाँ–एक सद्गुणों की दिव्यता के आलोक से आवृत्त, सर्वहितकारी प्रकाशदाता, दूसरा प्रायः मकारादि-व्यस्त, हिंसक और परपीड़न में लगा हुआ। ‘कामायनी के इड़ा सर्ग में कवि जयशंकर प्रसाद ने मानव-मन की दोनों प्रवृत्तियों का वर्णन किया है–‘था एक पूजता देह दीन, दूसरा अपूर्ण अहंता में अपने को समझ रहा प्रवीण’1 इसे हम व्यापक समाज में बराबर देख-परख सकते हैं। अन्यायी और अत्याचारी जब कभी ताकतवर हो जाता है तो वह विनाश के कार्य करता है। अहंकारियों का प्रायः यह स्वभाव बन जाता है कि वह प्रतिकूल को पदाक्रान्त और अनुकूल को चारण बनाकर रखे। उसके शत्रु की प्रशंसा करने वाला भी उसका परम शत्रु ही होता है। अतः जन्म-जन्मान्तर के संस्कार-वश दिन-रात विष्णु का गुण-कीर्तन करने वाला पुत्र प्रह्लाद भी उस अहंकारी असुर को अब अपना घोर शत्रु ही प्रतीत होता। हिरण्यकशिपु की दहकती आँखों में क्रोध के अंगारे भरे रहते और प्रह्लाद को एक पल के लिए देखना भी उसे पसन्द न था। उसे लगता कि प्रह्लाद का जन्म भी जैसे देवताओं का ही कोई षड्यन्त्र हो, क्योंकि उसे समझाने-बुझाने का हर सत्भव प्रयास करके वह हार चुका था और अब उसे सदा के लिए हटाने का प्रयास कर रहा था। पिता होने के कारण स्वयं अपने हाथों उसे नहीं मारना चाहता था। प्रह्लाद की निर्मम हत्या के अनगिन प्रयासों की इसी कड़ी में ‘होलिका’का प्रसंग भी आता है। कहते हैं कि ‘होलिका’ प्रह्लाद की बुआ थी और उसे भी यह वरदान प्राप्त था कि ‘‘वह आग में नहीं जल सकती’, पर ब्रह्मा जी ने उस वरदान के फलीभूत होने की भी एक शर्त रख दी थी। लोग प्रमाद में प्रायः भूल जाया करते हैं कि प्रत्येक वरदान के गुब्बारे में कहीं एक छोटा-सा छेद अवश्य होता है और उसी प्रकार भीषण अभिशाप की ज्वाला में भी कल्याण का छोटा-सा बीज विद्यमान रहता है। होलिका ने उस वरदान का दुरुपयोग किया और स्वयं जलकर भस्म हो गयी। उसकी गोद में बैठे प्रह्लाद के लिए भीषण आग की लपटों ने अपने स्वाभाविक धर्म का त्याग कर दिया। विज्ञान-बुद्धि ऐसे मिथकीय आख्यान-सत्य को स्वीकार नहीं करती। स्त्री-विमर्शकार भी चाहें तो ‘होलिका-दहन’के साथ ‘रंग-स्नान’और इस धूम-मस्ती भरे आमोद-पर्व को लेकर नारी जाति पर पुरुष का सनातन अत्याचार घोषित कर दें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

संस्कृत शब्दकोशों में ‘हुल्’धातु से (भ्वादि गण परस्मै पद में) ‘होलसि’ रूप बनता है, जिसका अर्थ होता है-जाना, ढाँपना या छिपाना।2 वास्तव में ‘होलिका’ नाम हिरण्यकशिपु की भगिनी का नहीं, बल्कि उसके उस कवच-वैशिष्ट्य का है-उस झीने आवरण अथवा उस वस्त्र का यह नाम हो सकता है, जिसे ओढ़कर वह अग्नि की कराल काल-लपटों से बच जाया करती थी। विज्ञान के लोग भलीभाँति जानते हैं कि कुछ ऐसे पदार्थ हैं, जिनका प्रयोग करके कुछ लोग दहकते अंगारे पर नंगे पाँव चलने का चमत्कार दिखलाया करते हैं। मुझे लगता है कि ‘बुलेट-प्रूफ’की तरह ‘फायर-प्रूफ’ परिधान की कल्पना बेमानी नहीं है। अपने अभिमान-पूर्ण क्रूरता के इस खेल में बुआ ने संभ्रमाख्यवृत्ति के कारण अपने भतीजे को जल्दी से निज आँचल की ओट में छिपा लिया होगा और खुद बेचारी निरावरण जल मरी होगी। यहाँ कुछ और भी कथाएँ गढ़ी जा सकती हैं-जैसे यह कि ‘‘बुआ ने जान-बूझकर वह अग्नि-शामक परिधान प्रह्लाद को उढ़ा दिया और स्वयं अपने प्राणों का बलिदान कर दिया।’सोचने का एक पहलू यह भी हो सकता है।वामपंथी तथा दलित चेतना के मनीषी चिन्तक मिथकीय आख्यानों की स्थूल सत्यता को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते और उसे भारतीय मूल वासियों की अनार्य संस्कृति पर एक हमले की साजिश के तौर पर गढ़ी गयी कहानी मानते हैं। यह व्यापक शोध का विषय हो सकता है, किन्तु इसे हम उसी मिथक पर ही केन्द्रित मानकर नहीं चलना चाहते।प्रसाद जी ऐसे अतिरंजित आख्यानों में कुछ सत्यांश को घटना से सम्बद्ध मानते हैं–‘‘आदिम युग के मनुष्यों के प्रत्येक दल ने ज्ञानोन्मेष के अरुणोदय में जो भावपूर्ण इतिवृत्त संगृहीत किये थे, उन्हें आज गाथा या पौराणिक उपाख्यान कहकर अलग कर दिया जाता है; क्योंकि उन चरित्रों के साथ भावनाओं का भी बीच-बीच में संबन्ध लगा हुआ-सा दीखता है। घटनाएँ कहीं-कहीं अतिरंजित-सी भी जान पड़ती हैं। तथ्य-संग्रहकारिणी तर्कबुद्धि को ऐसी घटनाओं में रूपक का आरोप कर लेने की सुविधा हो जाती है। किन्तु उनमें भी कुछ सत्यांश घटना से संबद्ध है, ऐसा तो मानना ही पड़ेगा।3 सुनते हैं कि पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब-स्थित चिनाब नदी के तट पर बसा मुल्तान ही हिरण्यकशिपु की राजधानी थी, विष्णुभक्त प्रह्लाद का जन्म यहीं पर हुआ था। इस पौराणिक कथा के आधार पर द्वापर युग में कुछ स्मारक बनाये गये थे, जिसके भग्नावशेष वहाँ अब भी मौजूद है। इस होली पर्व को मनाये जाने के व्यापक हेतु-आयाम हैं। फाल्गुन की पूर्णिमा और चैत्र प्रतिपदा का संगम अपने आप में कई अर्थ-संकेतों का द्योतन करता है।यह वर्तमान सृष्टि के आदि पुरुष वैवस्वत मनु का जन्मदिन भी है, रतिपति कामदेव का पुनर्जन्म भी इसी दिन हुआ था, अर्थात् इसी दिन भगवान शंकर के आग्नेय नेत्र से भस्मीभूत कामदेव ने उनकी ही कृपा से ‘अनंग’ रूप में सभी प्राणियों के मानस में अवस्थित अमरत्व प्राप्त किया था।

इस कहानी को स्थूल प्रत्यय-दृष्टि के अलावा प्रतीकों के माध्यम से भी समझा जा सकता है और वही उचित भी है। इस प्रकार संस्कृत-कोशों के समर्थन से ‘होलिका’ शब्द का अर्थ द्योतित होगा-‘‘वह व्यक्ति, जो अपने आप को किसी आवरण में छिपाकर रखता है। ‘आवरण’ क्या है? जब किसी सत्य अथवा वास्तविक चरित्र को आच्छादित करने के लिए मिथ्यात्व-कवच का वरण किया जाता है, वही ‘आवरण’ है, अर्थात् पाखण्ड, छल, ढोंग, दम्भ अथवा बहुरूपियापन-यही आवरण है। इन आवरण-स्वरूप बुराइयों को समूल दहन कर देने का संकल्प ही ‘होलिका-दहन’ है। जब हम किसी पर्व को मनाते हैं तो उसके पीछे जीवन-धारा की तरह एक अन्तर्कथा परम्परा रूप में चलती रहती है। वास्तव में अन्तर्कथा तो छिलके की तरह होती है, उसके भीतर श्रेयस् की मीठा गूदा और सत्य का तात्त्विक उपदेश बीज की तरह विद्यमान रहता है, जो हमारे आत्मोन्नयन के लिए बेहद जरूरी होता है। कम से कम वर्ष में एक बार हम अपनी बुराइयों को होम कर देने की प्रतिज्ञा जरूर करें और उन्हें दूर करने की पुरजोर कोशिश भी करें। कोई भी त्योहार मनाने का यही वास्तविक उद्देश्य होता है। मनुष्य के अन्तःकरण में उसके सर्वाधिक प्रबल षड्रिपु काम-क्रोध, लोभ-मोह, और मद-मात्सर्य यथावसर दबोच लेना चाहते हैं और अनवधानता की विषम स्थिति में विनाश भी कर डालते हैं। ऊपर से मनुष्य प्रकृत अन्यान्य आदतों से इन तमाम शत्रुओं को बलवत्तर बना देता है। ये आदतें हैं-पैशुन्य वृत्ति (चुगलखोरी), असूया (अकारण पर-निन्दा), चाटुवृत्ति (स्वार्थ-पूर्ति अथवा अन्य कारणों से चापलूसी करना), दम्भ और पाखण्ड-प्रदर्शन आदि। ये ही सारे दोष उस शाश्वत सत्य, चिन्मय और आनन्दमय परमात्म के एकांशभूतआत्मा के मिथ्या मायावरण हैं और यही ‘होलिका’ है। जो होलिकावरण को धारण करते हैं, उनका देर-सबेर दहन हो जाता है।

इसी प्रकार ‘हिरण्याक्ष’ का अर्थ होता है-‘सोने की आँख वाला’ अथवा वह व्यक्ति, जिसकी नज़र सोने पर गड़ी हुई हो। इसी प्रकार ‘हिरण्यकशिपु’ का अर्थ होता है-‘सोना चुराने वाला’। ‘सोना’ क्या है-‘सोने की चिड़िया’से क्या समझते हैं? ‘सोना’से तात्पर्य है-धन-दौलत, समृद्धि, वैभव, खुशहाली, सुख-सम्पदा। जो इस सुख-समृद्धि को अपनी होलिका-शक्ति(छल-पाखण्ड, मक्कारी अथवा धूर्तता का आवरण, कपट का जाल) से अपहरण कर ले-खेतों में खड़ी फसल किसान की भले हो, पर वह महाजन अथवा बैंकों के चंगुल में हो, कमाने-खाने वालों की सम्पदा उनके ही खून-पसीने से पैदा हो, लेकिन काले कानून द्वारा टैक्स में अधिकांश लुट जाय, नीतियों के मकड़जाल में कारोबार डूब जाय, खटने वाला निवाले को तरसे, गरीब-लाचार फटेहाल बेमौत मरे जिसकी वजह से, वही ‘हिरण्यकशिपु’ है, ‘रुक्मस्तेय’ है। पौराणिक हिरण्यकशिपु को तो श्री विष्णु ने नृसिंह रूप धारण करके मार गिराया था, किन्तु यह जो कलिकाल का ‘होलिकावरण हिरण्यकशिपु’ है, इसे भला कौन मार सकता है? इसके हजारों मुख हैं, हजारों हस्त-पाद हैं, हजारों रूप हैं और सनातन काल से सत्ता-विधाताओं का यह भ दुलारा रहा है। इसने भी ठीक हिरण्यकशिपु के स्वर में सत्ता-सृष्टिकत्र्ता से यही वरदान माँग लिया है-

अनंताव्यक्तरूपेण येनेदमखिलं ततम्।
चिदचिच्छक्तियुक्ताय तस्मै भगवते नमः।। 34।।

यदिदास्यस्यभिमतान् वरान्मे वरदोत्तम।
भूतेभ्यस्त्वद्विसृष्टेभ्यो मृत्योर्मा भून्मय प्रभो।। 35।।

नान्तर्बहिर्दिवा नक्तमन्यस्मादपि चायुधैः।
न भूमौ नाम्बरे मृत्युर्न नरैर्न मृगैरपि।। 36।।

व्यसुभिर्वासुमद्भिर्वा सुरासुरमहोरगैः।
अप्रतिद्वंद्वतां युद्धे ऐकपत्यं च देहिनाम्।। 37।।

सर्वेषां लोकपालानां महिमानं यथाऽऽत्मनः।
तपोयोगप्रभावाणां यन्न रिष्यति कर्हिचित्।। 38।।

अर्थात् ‘‘आप अपने अनन्त और अव्यक्त स्वरूप से सारे जगत में व्याप्त हैं। चेतन और अचेतन, दोनों ही आपकी शक्तियाँ हैं। भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। प्रभो! आप समस्त वरदाताओं में श्रेष्ठ हैं। यदि आप मुझे अभीष्ट वर देना चाहते हैं तो ऐसा वर दीजिए कि आपके बनाये हुए किसी भी प्राणी से चाहे वह मनुष्य हो या पशु, प्राणी हो या अप्राणी, देवता हो या दैत्य अथवा नागादि-किसी से भी मेरी मृत्यु न हो। भीतर-बाहर, दिन में, रात्रि में, आपके बनाये प्राणियों के अतिरिक्त और भी किसी जीव से, अस्त्र-शस्त्र से, पृथ्वी या आकाश में-कहीं भी मेरी मृत्यु न हो। युद्ध में कोई मेरा सामना न कर सके। मैं समस्त प्राणियों का एकछत्र सम्राट होऊँ। इन्द्रादि समस्त लोकपालों में जैसी आपकी महिमा है, वैसी ही मेरी भी हो। तपस्वियों और योगियों को अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त है, वही मुझे भी दीजिए।4

महात्मा ध्रुव की ही तरह, बल्कि उससे भी अधिक दृढ़ निश्चयी रूप में विभुभक्त प्रह्लाद को याद किया जाता है। प्रह्लाद ने स्वयं को श्री विष्णु के प्रति प्रपन्न प्रमाणित करने के लिए जो यातनाएँ झेलीं, वह सब वास्तविक नहीं हो सकतीं और न ही उतनी विश्वसनीय। इन यातनाओं के वर्णन अनेक ग्रन्थों में कुछ हेर-फेर के साथ मिलता है। ‘श्रीविष्णु पुराण’ के प्रथम अंश के अट्ठारहवें और उन्नीसवें अध्याय में अपने ही पिता हिरण्यकशिपु द्वारा उन्हें बारम्बार मारने के असफल प्रयासों का उल्लेख मिलता है–‘‘हिरण्यकशिपु बोला–अरे दैत्यों! तुम इस दुर्मति को इस समुद्र के भीतर ही किसी ओर से खुला न रखकर सब ओर से सम्पूर्ण पर्वतों से दबा दो। देखो, इसे न तो अग्नि ने जलाया, न यह शस्त्रों से कटा, न सर्पों से नष्ट हुआ और न वायु, विष और कृत्या से ही क्षीण हुआ, तथा न यह मायाओं से, ऊपर से गिराने से अथवा दिग्गजों से ही मारा गया। यह बालक अत्यन्त दुष्टचित्त है, अब इसके जीवन का कोई प्रयोजन नहीं है। अतः अब यह पर्वतों से लदा हुआ हजारों वर्ष तक जल में ही पड़ा रहे, इससे यह दुर्मति स्वयं ही प्राण छोड़ देगा–

दैतेयाः सकलैः शैलैरत्रैव वरुणालये।
निश्छिद्रैः सर्वशः सर्वैश्चीयतामेष दुर्मतिः।।58।।

नाग्निर्दहति नैवायं शस्त्रैश्छिन्नो न चोरगैः।
क्षयं नीतो न वातेन न विषेण न कृत्यया।।59।।

न मायाभिर्न चैवाद्यात्पातितो न च दिग्गजैः।
बालोऽतिदुष्टचित्तोऽयं नानेनार्थोऽस्ति जीवता।।60।।5

‘प्रह्लाद’ का वास्तविक अर्थ होता है–प्रकृष्ट आह्लाद, असीम आनन्द, परमानन्द, परिवार-समाज तथा पूरे जन-समुदाय की सामूहिक खुशी। यह राग-रंग, अबीर और गुलाल उसी प्रकृष्ट आह्लाद, आमोद-प्रमोद अथवा आनन्द-उछाह की तरंग और उमंग का माधुर्य-पूर्ण प्रस्फुटन है, लोल हृदय के भाव-हिल्लोल की निर्मुक्त अभिव्यक्ति है। यह प्रपन्न भक्ति की उमंग और उस उमंग की तरंग भी है अथवा वैभव-समृद्धि पर डकैती डालने वाले क्रूर पंजों से कुछ समय के लिए मानो मुक्ति का हासोल्लास, मृदंग की ताल, यह कान्हा की बाँसुरी का जादुई संगीत है तो राधा के पद-मंजीर का नृत्तमय फाग-राग, भंग-रसपान और मिठाई-पक्वान्न-ग्रहण की पूरी मस्ती, टोली की हँसी-ठिठोली। ‘होली’ मधुमास के आगमन का भी पर्व है तो नव संवत्सर का मधुर-मृदुल प्रथम चरण भी, जैसे कोई नव परिणीता प्रिय-मिलन के स्वप्न-कज्जल से कलित झिलमिल विशाल नयन और अपने जावक-रंजित पद-छाप से निज सौभाग्य-मन्दिर में प्रवेश करती है। ‘मधु’ कहते हैं चैत्र के महीने को तो वैशाख का महीना ‘माधव’ कहलाता है। यही दिगन्त बसन्त का ‘मधु-माधव काल’ है। महाकवि कालिदास की तरह चैत्र-वैशाख को चाहें तो राम-लक्ष्मण की सुन्दर जोड़ी कह लीजिए अथवा अथवा योगेश्वर श्रीकृष्ण और गाण्डीवधर अर्जुन की। वैसे मधुमास का आगमन फाल्गुन के विदा होने के बाद ही आता है। फाल्गुन के आखिरी दिन पूर्णमासी की चन्दन-चाँदनी की छाया में होलिका का दहन होता है तो चैत्र के प्रथम दिन ‘रंगभरी’ का रंजक आयोजन। इस फाल्गुन का अर्थ कौन्तेय अर्जुन भी होता है, जिसने मधुसूदन श्री कृष्ण की सहायता से महाभारत महासमर में विजय-श्री प्राप्त की थी। उधर फाल्गुन की प्रत्यंचा ढीली होती है, इधर महाप्रतापी मरीचिमाली भी अपनी प्रखरता से दुरन्त हेमन्त के शीत-दुर्ग को ढहा देता है। आता है उतर धरती के जीवन में राग-रंग से भरा हुआ बसन्त, प्रकृति सजधजकर समने खड़ी हो जाती है, रसाल-माल की महकती मंजरियाँ निरावरण वातावरण को मादक बना देती हैं, प्रफुल्ल कलिकावलि के चारों ओर मरन्द-लोभी मिलिन्द-वृन्द गुंजार करते हैं, कोयल अपनी मधुर कुहुक से वन-उपवन तथा शस्य-श्यामल ग्राम-प्रान्तर में निसर्ग का संगीत छेड़ देती है, कुसुम-कार्मुक मदन बसन्त के हिंडोले पर बैठकर पंच पुष्पों के वाण चलाता है, खेतों में खड़ी जवान फसलों को बड़ी उमंग और चाहत की नज़रों से देखता है किसान भी। इस प्रकार यह किसान-संस्कृति का भी उल्लास-पर्व है। जौ और गेहूँ, चना और सरसों, आलू-मटर, अरहर-गन्ना से लदे हुए खेत किसान-श्रम के जीते-जागते महाकाव्य हैं। ये खेत किसान के फकीर मन में हुलास भरते हैं। उसके खाली पड़े अन्नागार एक बार फिर भरने वाले हैं-उसका सबसे बड़ा जीवन-धन, उसके परिश्रम का सुफल अब खेतों में पकने ही वाला है। उसे अच्छी तरह से मालूम है कि वह आढ़ती-मुनाफाखोर ‘हिरण्यकशिपुओं’ की सर्वग्रासी प्रवंचना का शिकार होने से नहीं बच सकता, लेकिन फिर भी मौत की गोद में झूमती ज़िन्दगी की तरह ‘प्रह्लाद’ की प्राप्ति से वह नाच रहा है, झूम रहा है, गा रहा है और मस्ती में है-मानो उसके दोनों ज़हान उसकी मुट्ठी में आ गये है। उसे नहीं मालूम कि उसके देश का सौभाग्य हजारोंझार होलिकाओं और हिरण्यकशिपुओं काले पिंजरे में कैद है। उसके ही इन खेतों में पल रही है वह सनई की फसल भी, जिसकी बटी सुनहली रस्सी आने वाले दिनों में शायद उसे ‘नीलकण्ठ’ ही बनाकर छोड़े। आजीवन बीज-खाद और सिंचाई-श्रम के गणित में अनुत्तीर्ण, महँगाई के कोड़े से लहूलुहान और कर्ज़ के पहाड़ से दुहरी कमर, दिल में फूलती साँसों का तूफान और अदद एक झुर्रीदार चेहरे के साथ वह इस दुनिया से विदा लेता रहा है। उसका ‘प्रह्लाद पर्व’ चाँद और मंगल पर पाँव रखने वाली युगान्तरकारी नीतियों के बोझ-तले आज भी कराह रहा है-

देश-व्यवस्था द्रौपदी कहाँ करे फरियाद।
बुलबुल का पिंजरा लिए रोता है सय्याद।।

संदर्भ-संकेत:
1-जयशंकर प्रसाद-कामायनी(इड़ा सर्ग), पृष्ठ-82, राजकमल प्रकाशन पेपरबैक्स, संस्करण-2000
2-संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ्(संस्कृत-हिन्दी कोष), पृष्ठ-1334, सम्पादक-स्वर्गीय चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा, संस्करण-संवत् 2058
3-जयशंकर प्रसाद-कामायनी(आमुख), राजकमल प्रकाशन पेपरबैक्स, संस्करण-2000
4-श्रीमद्भागवत महापुराण-प्रथम खण्ड, सप्तम स्कन्ध का चैथा अध्याय, गीता प्रेस गोरखपुर
5-श्रीविष्णु पुराण-अनुवादक श्री मुनिलाल गुप्त, प्रथम अंश, अध्याय-19, गीता प्रेस गोरखपुर, 41वाँ पुनर्मुद्रण-संवत्-2068


परिचय 


  • डाॅ. अमलदार ‘नीहार’                     

   अध्यक्ष, हिन्दी विभागAmaldar Neehar
   श्री मुरली मनोहर टाउन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलिया (उ.प्र.) – 277001 

  • उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और संस्कृत संस्थानम् उत्तर प्रदेश (उत्तर प्रदेश सरकार) द्वारा अपनी साहित्य कृति ‘रघुवंश-प्रकाश’ के लिए 2015 में ‘सुब्रह्मण्य भारती’ तथा 2016 में ‘विविध’ पुरस्कार से सम्मानित, इसके अलावा अनेक साहित्यिक संस्थानों से बराबर सम्मानित।
  • अद्यावधि साहित्य की अनेक विधाओं-(गद्य तथा पद्य-कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध, ललित निबन्ध, यात्रा-संस्मरण, जीवनी, आत्मकथात्मक संस्मरण, शोधलेख, डायरी, सुभाषित, दोहा, कवित्त, गीत-ग़ज़ल तथा विभिन्न प्रकार की कविताएँ, संस्कृत से हिन्दी में काव्यनिबद्ध भावानुवाद), संपादन तथा भाष्य आदि में सृजनरत और विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित।Amaldar Neehar Books
  • अद्यतन कुल 13 पुस्तकें प्रकाशित, ४ पुस्तकें प्रकाशनाधीन और लगभग डेढ़ दर्जन अन्य अप्रकाशित मौलिक पुस्तकों के प्रतिष्ठित रचनाकार : कवि तथा लेखक।

सम्प्रति :
अध्यक्ष, हिंदी विभाग
श्री मुरली मनोहर टाउन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलिया (उ.प्र.) – 277001

मूल निवास :
ग्राम-जनापुर पनियरियाँ, जौनपुर

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