परशुराम जयन्ती पर विशेष – डाॅ.अमलदार ‘नीहार’

Parashuram Jayanti

परशुराम (रघुवंश-4/58,11/63-91,14/46)
‘‘परशुराम’ का अर्थ होता है-‘कुठारधारी राम’, एक विख्यात ब्राह्मण योद्धा जो जमदग्नि का पुत्र और विष्णु का छठा अवतार था। इसने अपनी बाल्यावस्था में ही अपने पिता की आज्ञा से जबकि उसके भाइयों में से कोई भी तैयार न हुआ, अपनी माता रेणुका का सिर काट डाला-दे0 जमदग्नि। इसके पश्चात् एक बार राजा कार्तवीर्य, जमदग्नि के आश्रम में आये और उसकी गौ को खोलकर ले गये। परन्तु घर आने पर जिस समय परशुराम को पता लगा तो वह कार्तवीर्य से लड़ा और उसे यमलोक पहुँचा दिया। जब कार्तवीर्य के पुत्रों ने सुना तो वह बड़े क्रुद्ध हुए-फलतः वे आश्रम में आये और जमदग्नि को अकेला पाकर उसे मार डाला।जब परशुराम जो कि इस घटना के समय आश्रम में नहीं था,वापिस आया तो अपने पिता के वध का समाचार सुन अत्यन्त क्षुब्ध हुआ, उसी समय उसने समस्त क्षत्रिय जाति का उन्मूलन करने की भीषण प्रतिज्ञा की। वह अपनी इस प्रतिज्ञा को पूरा करने में सफल हुआ, कहते हैं कि इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय जाति से मुक्त किया(या मुक्त करने का प्रयास किया?)वह क्षत्रिय जाति का नाशकर्Ÿाा बाद में दशरथ के पुत्र राम के द्वारा जबकि वह केवल सोलह ही वर्ष के थे (दे0रघु011/68, 91) परास्त किया था। (वास्तव में रघुवंश के ग्यारहवंे सर्ग में श्लोक संख्या 64 सेेे 91 तक परशुराम के कठोर चरित का वर्णन मिलता है। इन श्लोकों में यह स्पष्ट नहीं होता कि राम उस समय सोलह वर्ष की अवस्था के थे, हाँ! श्लोक संख्या 67 में दशरथ-पुत्रों के लिए ‘बालसूनु’ शब्द आया है तथा श्लोक संख्या 82 में चन्द्र्रमा की सोलह कलाओं से प्रतीकात्मक अर्थ भले ही कोई निकाल ले, कवि कालिदास का ऐसा कोई भी आशय इंगित नहीं है।) कहते हैं कि कार्तिकेय की शक्ति से ईष्र्या होने के कारण उसने क्रौंच पर्वत को भी एक बार तीरों से बींध दिया था-तु0 मेघ0 57; सात चिरंजीवी में इनकी भी गिनती है(सात चिरंजीवी नहीं, सात अमर-अश्वत्थामाबलिव्र्यासो हनूमान विभीषणश्च।कृपश्च परशुरामश्च सप्तैते अमराः)विश्वास किया जाता है कि परशुराम अब भी महेन्द्र पर्वत पर बैठ तपस्या कर रहे हैं-तु0गीत0।’’(वा0शि0 आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश-पृ0578)।

परशुराम ने एक बार अपना पराक्रम पार्वतीपुत्र गणेश के सम्मुख प्रकट किया था, जब शिवजी से मिलने गये परशुराम को द्वारपाल बने गणेश ने रोका था। तब परशुराम ने अपने परशु-प्रहार से गणेश को एकदन्त बना दिया था(हिन्दी साहित्य कोश भाग 2,पृ0 122)। गणेशजी के एकदन्त होने का हेतु अन्यत्र रावण को बताया गया है(महाकवि माघ ने कल्पना की है कि विलास-लीला में विदग्ध वधुओं के कर्णावतंस के लिए प्रतापी रावण ने गौरीनन्दन गजानन को एकदन्त बना दिया था-शिश्ुपालवधम् 1/60)। हिन्दी साहित्यकोश के इसी खण्ड में परशुराम की कथा आप्टे कोश से काफी मिलती-जुलती है, पर कुछ बातें अतिरिक्त भी लिखी गयी हैं, जैसे जब परशुराम के अन्य भाइयों ने पिता की निर्मम आज्ञा का पालन नहीं किया तो पिता ने सबको संज्ञाहीन कर दिया। फिर परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए माँ का शिरच्छेद कर दिया। पिता ने प्रसन्न हो जब वर माँगने के लिए कहा तो परशुराम ने चार वर माँगे-‘एक-माँ पुनर्जीवित हो जाय, दूसरे उन्हें मरने की स्मृति न रहे, तीसरे भाई चेतनायुक्त हो जाँय और चैथे मैं परमायु होऊँ।’ इसके साथ यह भी संकेत है कि कार्तवीर्य(सहस्रार्जुन) की एक हजार भुजाओं को परशुराम ने काटकर फेंक दिया था। शिवजी का धनुष तोड़ने के बाद जब राम ने परशुराम के धनुष की भारी प्रत्यंचा चढ़ा दी तो परशुराम को विष्णु के रामावतार का बोध हुआ और वे महेन्द्र पर्वत पर तप हेतु चले गये।

कहते हैं कि परशुराम ने जब जीती हुई सारी भूमि का दान कर दिया तो अपने लिए समुद्र से भूमि माँगी और समुद्र ने उन्हें रहने के लिए जमीन दी। यह भी वर्णन मिलता है कि ऋषि कश्यप को दिये वचन के अनुसार उन्होंने धरती पर निवास करना छोड़ दिया था। वाल्मीकीय रामायण (प्रथम भाग 7 पृष्ठ 170 से 174 तक)में परशुराम का प्रसंग वर्णित है, जिसमें आरम्भ में भयभीत दशरथ की प्रार्थना (जिसका उŸार परशुराम नहीं देते) के साथ परशुराम और राम का संवाद दिखाया गया है। रामचरित मानस में महाकवि तुलसी ने इस कथा को वाल्मीकि से भिन्न नाटकीय रूप दे दिया है। महाभारत में भी परशुराम की कथा का विस्तार मिलता है। कहते हैं कि पितामह भीष्म ने धनुर्विद्या सीखने के लिए परशुराम को अपना गुरु बनाया था, किन्तु काशिराज की कन्याओं के सन्दर्भ में उत्पन्न विवाद के कारण (प्रतापी भीष्म ने अपनी सौतेली माँ सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य के लिए काशिराज की तीन कन्याओं-अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का, स्वयंवर में जुटे राजाओं के शौर्य को पराभूत कर अपहरण कर लिया। उन्होंने अम्बिका तथा अम्बालिका का विचित्रवीर्य से विवाह करा दिया, किन्तु शाल्वराज के प्रति अपने गुप्त पूर्व प्रणय की बात कह आपŸिा प्रकट करने वाली अम्बा को उन्होंने मुक्त कर दिया। वह अम्बा जब शाल्व के पास पहुँची तो उसने उसे परपुरुष के स्पर्श से दूषित मानकर स्वयं भीष्म से पराजित और अपमानित होने के कारण लज्जा का अनुभव करते हुए ठुकरा दिया। इस परिस्थिति में निराश्रित और अपमानित दिशाहीन जीवन के गहन अन्धकार में भटकती अम्बा ने तपस्विनी का जीवन जीने का विचार किया, किन्तु अपने मातामह राजर्षि होत्रवाहन की कृपा से वह परम तेजस्वी ब्राह्मण योद्धा परशुराम की शरण में पहुँच गयी। उसे न्याय दिलाने के लिए परशुराम ने अपने शिष्य भीष्म के सम्मुख ऐसा प्रस्ताव रखा, जिसे स्वीकार करना सत्यव्रती भीष्म के लिए असम्भव था। फलतः भयानक युद्ध हुआ गुरु और शिष्य के बीच। विष्णु के अंशावतार शंकर-शिष्य परशुराम और वसुरूप भीष्म, दोनों में पराजय स्वीकार करने को कोई तैयार नहीं। एक परमायु को प्राप्त सात अमरों में एक तो दूसरा इच्छामृत्यु का वरदानप्राप्त अपने युग का अप्रतिम योद्धा। नारद तथा तमाम सारे मुनियों के निवेदन पर परशुराम को युद्ध से निवृŸा होने की पहल करनी पड़ी। चैबीस दिनों तक चले इस युद्ध में किसी तरह गुरु की लाज बची। नारदादि के निवेदन पर भगवान विश्वकर्मा द्वारा आविष्कार किये गये प्रस्वाप नामक अस्त्र का प्रयोग करने से भीष्म के शिष्यत्व ने अपने अस्त्र को रोक लिया। गुरु-शिष्य के इस भयंकर युद्ध से मचा हुआ लोकव्यापी हाहाकार तो शान्त हो गया, किन्तु अम्बा के हृदय का हाहाकार शान्त न हुआ।प्रतिशोध की ज्वाला में दग्ध काशिराजकन्या ने कठिन तप हेतु जंगल की राह ली) शास्त्र-पारंगत शिष्य को पराजित न कर पाने का मलाल गुरु को ऐसा हुआ कि ब्राह्मणेतर जाति को धनुर्विद्या न सिखाने का प्रण कर लिया। यद्यपि गुरु भी पक्के ब्राह्मण न थे, वे तन से ब्राह्मण थे तो मन से क्षत्रिय थे। तपस्या का तेज उन्हें ब्राह्मण घोषित करता था तो काल-कोदण्ड और कठोर कुठार उनके क्षत्रियत्व की ताल ठोंकता था, किन्तु प्रण तो उन्हें प्राणाधिक प्यारा था। यही कारण था कि द्रोणाचार्य से उपेक्षित कर्ण ने जब छद्म वेश धारण कर परशुराम से धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त कर ली और गुरु को इसका पता चल गया तो उन्होंने शिष्य की सारी योग्यता, दीनता और विनम्रता को भूलकर, अवसर पड़ने पर सारी विद्या भूल जाने का शाप दे दिया। शिष्य का छल गुरु की स्नेह-तरलता को नष्ट कर देता है। इस प्रकार अप्रतिम योद्धा भीष्म से प्राप्त लज्जाजनक पराजय के अपमान का दण्ड पहले से ही अभिशप्त अभागे और कुण्ठित कर्ण की श्रद्धा को मिली।

क्षत्रिय जाति के प्रति परशुराम का बैर परिस्थितिवश पैदा हुआ था, जो इतना दृढ़मूल हो गया कि उन्होंने क्षत्रिय जाति को धरती से ही मिटा देने का संकल्प ले लिया। उनका यह संकल्प तामसी था। वे ब्राह्मणपुत्र होते हुए भी जघन्य कर्म की ओर प्रवृŸा हुए और क्षत्रिय राजाओं की जमीन छीनकर उन्होंने ब्राह्मणों को दान कर दी। एक प्रकार से उन्होंने भूमिहीन भिक्षोपजीवी ब्राह्मणों को भूस्वामी अथवा भूमिहार(भूमिवाला, भूमि का मालिक-खेवनहार, चूड़िहार, कुम्हार या कोहार और लोहार की तर्ज पर)बना दिया। हो सकता है भूमीकृत् या भूमिकृत् से भूमिकार और फिर भूमिहार शब्द विकसित हुआ हो। मुझे ऐसा लगता है कि गिने-चुने विद्वान ब्राह्मण तथा पुरोहित आदि राजन्य वर्ग की अनुकम्पा से पहले से समृद्ध रहे होंगे, किन्तु अधिकांश दीन-हीन ब्राह्मणों कोे जीते हुए राज्यों के भूदान से परशुराम ने सबल तथा आर्थिक रूप से सशक्त बनाया होगा। उनमें से कुछ ब्राह्मण,जो कई पीढ़ियों से दरिद्रता का दंश झेल रहे होंगे, परशुराम की कृपा से अयाचित भू-सम्पŸिा पाकर अपनी भौमिक शक्ति-समृद्धि की पहचान के लिए अपने नाम के साथ ‘भूमिहार’ लगाना शुरू कर दिया होगा, अर्थात् जो पहले भूमिहीन थे, अब भूमि वाले हो गये या कर दिये गये। ऐसे नये-नये भूस्वामी बने ब्राह्मणों ने क्रमशः अपना पेशेवर पौरोहित्य कर्म त्याग दिया होगा और किसी से दान स्वीकार करने में झिझक लगने लगी होगी। कालान्तर में खान-पान तथा रहन-सहन में उनका ब्राह्मण संस्कार भी शिथिल हो गया होगा। इस प्रकार पहला भूदान-यज्ञ इस धरती पर परशुराम ने आरम्भ किया। सम्भवतः भूमिहार जाति की उत्पŸिा यहीं से हुई होगी। हो सकता है कि मेरी बातें कोरी कल्पना हों, मेरा अनुमान मिथ्या हो, पर यह तो मेरे चिन्तन का एक छोर है। इधर देखने में आया है कि कुछ अंचलों में ब्राह्मण वर्ग प्रतिवर्ष परशुराम की जयन्ती मना रहा है और अब भूमिहार जाति के कुछ लोग भी इस जयन्ती में(क्या उपकारी के प्रति कृतज्ञ-भाव अथवा जातीय चेतना से उत्प्रेरित?)शामिल हो रहे हैं। उनके मानस के किसी कोने में सम्भावित इस तथ्य का बीज अंकुरित हो सकता है। वैसे भी भूमिहार का जातीय इतिहास दुर्लभ ही है, लेकिन यह सच है कि इस जाति के आस्पद ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों से सम्बन्धित रहे हैं, जो मेरे कथन में निहित सम्भावित सत्यता को संकेतित अवश्य करते हैं। ध्यातव्य है कि इस जाति के साथ विशेषण के रूप में ‘ब्राह्मण’ और ‘ब्रह्मर्षि’ का प्रयोग अनायास नहीं है। अत्यधिक व्यवहृत शब्द ‘राय’ भी मेरी राय में यदि ‘रय’ से उद्भूत हो तो प्रतीकात्मक अर्थ ‘नदी के प्रवाह की भाँति निरन्तर प्रगतिशील और रूढ़ियों के तटबन्धों को तोड़ आगे बढ़ने वाला’ हो सकता है और यदि इसे ‘रै’(अंग्रजी में भी ‘आरएआई’) से सम्बन्धित माना जाय तो इसका अर्थ धन-दौलत और समृद्धि से जनित है। अभिप्राय यही कि परशुराम ने ‘रै-विहीन’ ब्राह्मणों को सम्पन्न-समाढ्य तथा प्रगतिशील(राय) बना दिया। इसे दूर की कौड़ी समझा जाय या कुछ और, किन्तु चिन्तन की एक दिशा अथवा लीक तो दिखायी देती है। वैसे अंग्रजों के जमाने में जनता का गला घोंटने वाले बहुत से ऐसे लोग भी थे, जो ब्रिटिश हुकूमत की खुशामद करके अथवा उनके हक़ में हिन्दुस्तानी जनता का रक्त चूसकर राय बहादुर या राय साहब कहलाये, यह अलग बात है। मेरी इस बात का संकेत अन्यत्र भी मिलता है।(मानस पीयूष खण्ड-1,पृष्ठ-239) यह लेखक न तो बहुत बड़ा विचारक है न कोई इतिहासवेŸाा, इसलिए कोई दावा नहीं करना चाहता इस विषय में।

परशुराम के व्यक्तित्व में ब्राह्मण की, किन्तु रक्त में क्षत्रियत्व का उŸााप है। वे भार्गव और जामदग्न्य हैं तो रेणुकेय भी हैं।शौर्य तथा पराक्रम उनकी प्रकृति है। हाथों में काल-कुठार और कराल कोदण्ड है तो नागिन-सी फुफकारती शापमयी वाणी उनके मुँह से निकलती है। उनकी जिह्वा भी एक प्रकार से मुँह के म्यान में विराजमान तलवार ही है। वे मन से चाहे जितने पितृभक्त हों, पर वचन और कर्म की कठोरता का बीज संस्कार तो मातृकुल से ही प्राप्त किया है। पिता जमदग्नि का ब्राह्म तेज और क्षत्राणी रेणुका का रजोगुणी क्षात्र धर्म आखिर किस प्रकार के शिशु को जन्म देता?
परशुराम पर अलग ढंग से सोचा जा सकता है। उन्होंने दुष्ट तथा निरंकुश राजाओं को चुन-चुनकर मारा। शरणागत की यथासामथ्र्य रक्षा की। किसी धर्मपरायण क्षत्रिय के विरुद्ध शस्त्रपाणि होने का प्रसंग नहीं दिखायी देता। आखिर राम के किसी पूर्वज के साथ परशुराम का कोई बैर तो किसी को विदित नहीं है। महाराज जनक या उनके पूर्वजों से भी उनके बैर की कोई कथा पढ़ने को नहीं मिलती। वास्तव में अन्याय, अत्याचार और दूसरों के शोषण में प्रवृŸा दुर्मद शक्तियों को छिन्नमूल करने की भावना का नाम है परशुराम। आज भी यह देखने को मिलता है कि पीड़ित और प्रताड़ित व्यक्ति किस प्रकार विवश होकर प्रतिरोध के लिए हथियार उठा लेता है। वस्तुतः दुर्मद सŸाा और दीनार्Ÿाशोषी शक्तियों की प्रतिरोधी प्रवृŸिा में ही परशुराम-तŸव निहित है। यह प्रायः देखने को मिलता है कि सार्वकालिक और सार्वभौमिक सत्य की इस ज्वाला को कोई गुल्म आच्छादित नहीं कर सकता। अवरोधों की तमाम सारी परतों को तोड़कर यह ज्वाला प्रकट होकर रहती है। परशुराम के सन्दर्भ में मेरी काव्यात्मक अभिव्यक्ति कुछ इसी प्रकार की है-

शंकर का भ्रूभंग प्रलय का परशुराम में मूर्त बना
या फिर काली कल्यानी का छलका सात्त्विक क्रोध घना।
‘परशु’ तत्त्व में ताप तपन का, कालदण्ड कोदण्ड तना
और नाम अभिराम ‘राम’ में ब्रह्म सत्य का सार सना।।
रामकथा की पृष्ठभूमि का नायक शौर्य-पुजारी-सा,
स्वत्व-सुरक्षा हेतु रणंजयनाम एक अवतारी-सा।
ब्रह्मचर्य-दीपित ललाट विभ्राट वेश त्रिपुरारी-सा,
रेणुकेय था उष्ण लहू दुर्मद सत्ता पर भारी-सा।।
परशुराम वह नाम कि संगम शिव का और भवानी का,
परशुराम वह नाम कि संगम अंगारे का पानी का।
ब्राह्मण ऋषि के तपोतेज का क्षत्रिय वीर जवानी का,
परशुराम वह नाम कि संगम शाप-शिलीमुख मानी का।।
परशुराम पौरुष-प्रतीक था दुष्ट-दलन का, दानी का,
था कृतान्त जो शोण वीचिरम सहस्रबाहु अभिमानी का।
पितृवचन का पालक बालक भार्गव भक्ति-गुमानी का
और पिनाकी शिष्य, क्रोध का दावानल तूफानी का।।
छल से, बल से सत्ता जब-जब शोषण-चक्र चलाती है,
कामधेनु-सी प्रजा हाँक निज बाड़े में ले जाती है,
रंजन का निज धर्म भूलकर सबको शूल चुभाती है,
स्वयं सुरा पी, तर्क-शिला आश्वासन-भाँग पिलाती है।।
भारत ही वह देश नहीं भूमण्डल सारा डोल रहा,
भय से स्वार्थ-भक्ति में कोई उसकी ही जय बोल रहा।
कितनों का इतिहास मिटा या कितनों का भूगोल रहा
शक्ति स्वयंभू आसुर सबको भोग-तुला पर तोल रहा।।
कम्पित काल-दिशाएँ, जब-जब इतना अत्याचार हुआ,
व्योम हृदय को चीर भयंकर क्रन्दनमय चीत्कार हुआ।
भस्मभूत चिनगारी से ही प्रलयगर्भ संसार हुआ,
महाकाल से दीक्षित तब-तब परशुराम-अवतार हुआ।।

महाकवि कालिदास कृत ‘रघुवंशम्’ महाकाव्य में ग्यारहवें सर्ग में कुल 29 श्लोकों में बड़े विस्तार सक परशुराम और राम की कथा का वर्णन हुआ है, जिसका मेरे अनूदित ‘रघुवंश-प्रकाश’ में यथावत् काव्यनिबद्ध भावानुवाद प्रस्तुत हुआ है–
संस्कृत
तेजसः सपदि राशिरुत्थितः प्रादुरास किल वाहिनी मुखे।
यः प्रमृज्य नयनानि सैनिकैर्लक्षणीयपुरुषाकृतिश्चिरात्।।63।।
हिन्दी
लगा दिखायी देने तत्क्षण ऐसा पुंजप्रकाश वहाँ
सेना के सम्मुख, सब सैनिक चकाचैंध दृग कौन कहाँ?
एक-एक कर आँखें मलकर देखा सबने-‘‘कौन अरे!
देवलोक से उतरा जैसे दिव्य पुरुष का रूप धरे।’’
संस्कृत
पित्र्यमंशमुपवीतलक्षणं मातृकं धनुरूर्जितं दधत्।
यः ससोम इव धर्मदीधितिः सद्विजिह्व इव चन्दनदु्रमः।।64।।,
हिन्दी
विप्र पिता क्षत्रिय माता के लक्षण लक्ष्य कलेवर पर
वह तेजस्वी पुरुष धार उपवीत अंस महेष्वासधर।
था ऐसा विकराल वेश सँग सूर्य-सोम भी प्रकटे हों
मानो शीतल चन्दन तरु मंे व्याल भयंकर लिपटे हों।
संस्कृत
येन रोष परुषात्मनः पितुः शासने स्थितिभिदोऽपि तस्थुषा।
वेपमानजननीशिरश्छिदा प्रागजीयत घृणा ततो मही।।65।।
हिन्दी
रोष परुष जमदग्नि पिता के इतने अन्ध पुजारी थे,
मर्यादाच्युत होने पर भी केवल आज्ञाकारी थे।
भय से कम्पित मातृ-शीश को पित्राज्ञा सुन काट लिया
प्रथम घृणा तदनन्तर भार्गव ने पृथ्वी का त्याग किया।
संस्कृत
अक्षबीजवलयेन निर्बभौ दक्षिणश्रवणसंस्थितेन यः।
क्षत्रियान्तकरणैकविंशतेव्र्याजपूर्वगणनामिवोद्वहन्।।66।।
तं पितुर्वधभवेन मन्युना राजवंशनिधनाय दीक्षितम्।
बालसूनुरवलोक्य भागर्वं स्वां दशां च विषसाद पार्थिवः।।67।।
हिन्दी
सव्येतर श्रुति-आलम्बित रुद्राक्षवलय कुछ कहता-सा
दाने थे इक्कीस, पराक्रम-कीर्तिकथाशय लहता-सा।
क्षत्रिय मूल मिटा देने का जितनी बार प्रयास किया
गणना में उतने दानों का अक्षमाल था धार लिया।
परशुराम ने पितृहनन से क्रोधित परुष प्रतिज्ञा की-
‘क्षत्रिय से भू-भार मिटाऊँ, रहे न कोई भी बाकी।’
जामदग्न्य को देखा दशरथ ने जब, चिन्ताग्रस्त हुए
प्राण-प्रतीकाश निज बालक अल्पवयस लख त्रस्त हुए।
संस्कृत
नाम राम इति तुल्यमात्मजे वर्तमानमहिते च दारुणे।
हृद्यमस्य भयदायि चाभवद्रत्नजातमिव हारसर्पयोः।।68।।
हिन्दी
राम व परशुराम समसंज्ञक एक तत्व के धारक थे,
एक अमन्दानन्दकन्द गुण अपर परशु-भयकारक थे।
ग्रीवहार-भुजगेन्द्र सदृश ही मणिमय उभय प्रतीत हुए
‘राम’ नाम से आनन्दित भी दशरथ अति भयभीत हुए।
संस्कृत
अघ्र्यमघ्र्यमिति वादिनं नृपं सोऽनवेक्ष्य भरताग्रजोयतः।
क्षत्रकोपदहनार्चिषं ततः संदधे दृशमुदग्रतारकाम्।।69।।
हिन्दी
‘ अघ्र्य लीजिए! अघ्र्य लीजिए!!’ दशरथ सत्वर बोल उठे,
इस प्रकार उनके उर मानो भार्गव-भय-हिल्लोल उठे।
उधर न लख क्रोधावतार ने वक्र भृकुटि से देखा था
जिधर राम उस ओर, दृगों में लाल अनल का लेखा था।
संस्कृत
तेनकार्मुकनिषक्तमुष्टिना राघवो विगतभीः पुरोगतः।
अङ्गुलीविवरचारिणं शरं कुर्वता निजगदे युयुत्सुना।।70।।
क्षत्रजातमपकारवैरि मे तन्निहत्य बहुशः शमं गतः।
सुप्तसर्प इव दण्डघट्टनाद्रोषितोऽस्मि तव विक्रमश्रवात्।।71।।
हिन्दी
परशुराम संगर-अभिलाषी मुष्टिबद्ध कोदण्ड लिए
अंगुलि से शर खींच तूण से, मुख पर तेज प्रचण्ड लिए-
निर्भय होकर खड़े राम से साभिमान यह वचन कहा-
‘‘क्षत्रिय मेरा शत्रु जाति से, पितृ हनन का हेतु रहा।
इसीलिए इक्कीस बार कुल क्षत्रिय का निर्मूल किया
थी थोड़ी तब शान्ति मिली जब नष्ट शोक का शूल किया।
किन्तु पराक्रम सुनकर तेरा, क्रोध अनल बन जाता है,
उठता हो फुफकार, दण्ड से सोया साँप जगाता है।’’
संस्कृत
मैथिलस्य धनुरन्यपार्थिवैस्त्वं किलानमितपूर्वमक्षणोः।
तन्निशम्य भवता समर्थये वीर्यशृंगमिव भग्नमात्मनः।।72।।
अन्यदा जगति राम इत्ययं शब्द उच्चरित एव मामगात्।
व्रीडमावहति मे स संप्रति व्यस्तवृत्तिरुदयोन्मुखे त्वयि।।73।।
हिन्दी
‘‘मिथिला में जिस गुरु पिनाक को कोई वीर झुका न सका,
तोड़ दिया है तूने उसको-सुना घोर आश्चर्य-छका।
तोड़ा नहीं धनुष वह तूने, वीर्यशृंग मम तोड़ा है,
मैं शंकर का ख्यात शिष्य, अपमान नहीं यह थोडा़ है।”
‘‘लोग समझते राम मुझे, संसार ‘राम’ जब कहता था,
केवल मैं ही राम-नाम की संज्ञा का पद गहता था,
किन्तु प्रकर्ष पराक्रम तेरा सुन-सुन पीड़ा जगती है,
राम-नाम सम्बोधित जब तू, मुझको लज्जा लगती है।।’’
संस्कृत
बिभ्रतोऽस्त्रमचलेऽप्यकुण्ठितं द्वौ रिपू मम मतौ समागसौ।
धेनुवत्सहरणाच्च हैहयस्त्वं च कीर्तिमपहर्तुमुद्यतः।।74।।
हिन्दी
‘‘क्रौंचाचल से टकराकर भी जो न अकुण्ठित होता हो,
ऐसा परशु न कर में किसी वीर के मण्डित होता हो।
ऐसे परशुराम के सम्मुख बस दो बैरी वीर हुए,
दोनों ही मेरे अपराधी वीर्यवान रणधीर हुए।
कामधेनु गो-वत्स पिता से हैहय ने था छीन लिया,
तुमने भी तो कीर्ति हरण कर मुझे अधिक ही दीन किया।।’’
संस्कृत
क्षत्रियान्तकरणोऽपि विक्रमस्तेन मामवति नाजिते त्वयि।
पावकस्य महिमा स गण्यते कक्षवज्ज्वलति सागरेऽपि यः।।75।।
हिन्दी
‘‘क्षत्रियान्तकारक बल-विक्रम मेरा भला न लगता है,
जब तक तुझे न जीत सकूँ मैं, अन्तस् कहीं सुलगता है;
किन्तु अनल का क्या प्रताप है सूखी घास जलाने से?
जले जलधि में, सही प्रशंसा वाडवाग्नि कहलाने से।।’’
संस्कृत
विद्धि चात्तबलमोजसा हरेरैश्वरं धनुरभाजि यत्वया।
खातमूलमनिलो नदीरयैः पातयत्यपि मृदुस्तटदु्रमम्।।76।।
हिन्दी
‘‘जीर्ण-पुरातन हरधनु-भंजन-मद की मदिरा मीठी थी
मत भूलो पहले ही हरि ने शक्ति पिनाकी हर ली थी।
यह न पराक्रम, खातमूल तरु किया नदी की धारा ने
पवन सहज ही उसे ढहा दे, इस पौरुष को क्या मानें?’’
संस्कृत
तन्मदीयमिदमायुधं ज्यया संगमय्य सशरं विकृष्यताम्।
तिष्ठतु प्रधनमेवमप्यहं तुल्यबाहुतरसा जितस्त्वया।।77।।
हिन्दी
‘‘अच्छा राम! भले ही पीछे मेरा तुमसे रण होगा,
यह लो चाप, शरासन कर दो, निर्णय फिर तत्क्षण होगा।
इतना भी कर लेते हो तो निज मन को समझाऊँगा-
तुम मेरे सम बली, यहाँ से हार मानकर जाऊँगा।’’
संस्कृत
कातरोऽसि यदि वोद्गतार्चिषा तर्जितः परशुधारया मम।
ज्यानिघातकठिनाङ्गुलिर्वृथा वध्यतामभययाचनांजलिः।।78।।
हिन्दी
‘‘भीतिभाव-आक्रान्त कहीं यदि मन में ग्लानि सुबोध भरा,
तेज चमकती परशुधार लख है समाज भी डरा-डरा।
ज्यानिघात-किणकठिनांगुलि फिर वृथा, माँग लो क्षमा सरल
हाथ जोड़कर, परुष परशुधर का इतना तो हृदय तरल।।’’
संस्कृत
एवमुक्तवति भीमदर्शने भार्गवे स्मितविकम्पिताधरः।
तद्धनुग्र्रहणमेव राघवः प्रत्यपद्यत समर्थमुत्तरम्।।79।।
पूर्वजन्मधनुषा समागतः सोऽतिमात्र लघुदर्शनोऽभवत्।
केवलोऽपि सुभगो नवांबुदः किं पुनस्त्रिदशचापलांछितः।।80।।
हिन्दी
रौद्ररूप अति वेश विभीषण परशुराम जब बोले यों,
महेष्वास वह सस्मित सम्मुख लेकर हाथ राम ने त्यों
दिया उचित उत्तर बिन बोले, सुधि पहले की जाग उठी-
पूर्व जन्म नारायण का शाङ्र्ग सुभग यह-वही!वही!!
शोभा थी अभिराम राम की-रूप धनुर्धर, वैसी ही-
नवनीरद में इन्द्रधुष-छवि, कहना क्या? उस जैसी ही।।
संस्कृत
तेन भूमिनिहितैककोटि तत्कार्मुकं च बलिनाऽधिरोपितम्।
निष्प्रभश्च रिपुरास भूभृतां धूमशेष इव धूमकेतनः।।81।।
हिन्दी
भू पर कार्मुक-कोटि टिकाकर ज्या से ज्यों संयुक्त किया,
सबल राम ने परशुराम को संशय से भी मुक्त किया।
क्षत्र-परंतप उस भार्गव का भाल तेज से हीन हुआ
जैसे बुझे अनल, रह जाये केवल चारों ओर धुआँ ।।
संस्कृत
तावुभावपि परस्परस्थितौ वर्धमानपरिहीनतेजसौ।
पश्यति स्म जनता दिनात्यये पार्वणौ शशिदिवाकराविव।।82।।
हिन्दी
सम्मुख दोनों राम खड़े थे-बढ़ा एक का तेज घटा,
राकापूर्व प्रदोषकाल की चन्द्र-दिवाकर-यथा छटा।
एक डूबने वाला तम में, तपन बना था जीवन में
और दूसरा चन्द्रप्रभायुत संज्ञक शीतल जन-जन में।।
संस्कृत
तं कृपामृदुरवेक्ष्य भार्गवं राघवः स्खलितवीर्यमात्मनि।
स्वं च संहितममोघमाशुगं व्याजहार हरसूनुसंनिभः।।83।।
न प्रहर्तुमलमस्मि निर्दयं विप्र! इत्यभिभवत्यपि त्वयि।
शंस किं गतिमनेन पत्त्रिणा हन्मि लोकमुत ते मखार्जितम्।।84।।
हिन्दी
शंकर-नन्दन कार्तिकेय सम राम सदय बलशाली थे
और वहीं पर परशुराम भी खड़े तेज से खाली थे।
देखा उनकी ओर राम ने, हस्त-धनुष नारायण का
जिसकी ज्या पर शर अमोघ, जो होता लक्ष्यपरायण का।
बोले-‘‘यद्यपि अभी आपने इतना गर्व-गुमान किया,
जाति-प्रकृति-प्रतिकूल शील से मेरा है अपमान किया;
किन्तु नहीं अव्यर्थ वाण से निर्दय बनकर मारूँगा,
जैसा कहें आप, वैसा ही शर का लक्ष्य विचारूँगा।
कहें आपकी गति रोकूँ या दिव्यलोक का पुण्यगमन,
कठिन तपस्या कर जो पायी शक्ति,मखार्जित यश का धन?
संस्कृत
प्रत्युवाच तमृषिर्न तŸवतस्त्वां न वेद्मि पुरुषं पुरातनम्।
गां गतस्य तव धाम वैष्णवं कोपितो ह्यसि मया दिदृक्षुणा।।85।।
भस्मसात्कृतवतः पितृद्विषः पात्रसाच्च वसुधां ससागराम्।
आहितो जयविपर्ययोऽपि मे श्लाघ्य एव परमेष्ठिना त्वया।।86।।
हिन्दी
सुन राघव की गिरा परशुधर बोले-‘‘ऐसी बात नहीं,
पुरुष पुरातन को न समझ पाया हूँ मैं भी, है न सही।
भू पर वैष्णव तेज निरखने की मेरी अभिलाषा थी
जान-बूझकर कुपित किया, यह लीला-कौतुक-क्रीड़ा थी।
जितने भी थे शत्रु पिता के, तृणवत् भस्मीभूत किया
और ससागर भूमि जीतकर सब ब्राह्मण को दान दिया।
क्षत्राणी का दुग्धपान कर परशुराम सो क्यों न करे?
हार गया जो परम पुरुष से, यह गौरव की बात अरे!’’
संस्कृत
तद्गतिं मतिमतां वरेप्सितां पुण्यतीर्थगमनाय रक्ष में।
पीडयिष्यति न मां खिलीकृता स्वर्गपद्धतिरभोगलोलुपम्।।87।।
हिन्दी
‘‘मतिमानों में श्रेष्ठ राम हे! मुझे अनीप्सित वैभव है,
ऐहिक-आमुष्मिक सुख जितने जो कि भोग से सम्भव है।
पुण्य तीर्थ हित ईप्सित गति को मिले न बाधा सौख्य यही,
अर्जित दिव्यलोक जो, करिये शर अमोघ से नष्ट वही।।’’
संस्कृत
प्रत्यपद्यत ततेति राघवः प्राङ्मुखश्च विससर्ज सायकम्।
भार्गवस्य सुकृतोऽपि सोऽभवत्स्वर्गमार्गपरिघो दुरत्ययः।।88।।
हिन्दी
मान राम ने कहना उनका वह अमोघ शर छोड़ दिया
ऐन्द्र दिशा में, दिव्य लोक का मार्ग वहीं से मोड़ दिया।
बहुत पुण्य से परशुराम ने दिव्यलोक वह पाया था,
व्याज वाण प्रतिरोधक के, स्वेच्छा से जिसे गँवाया था।।
संस्कृत
राघवोऽपि चरणौ तपोनिधेः क्षम्यतामिति वदन्समस्पृशत्।
निर्जितेषु तरसा तरस्विनां शत्रुषु प्रणतिरेव कीर्तये।।89।।
हिन्दी
और राम ने विनयशीलता का स्वाभाविक परिचय दे
क्षमा माँग ली, उनकी ऐसी गुरुता को फिर कौन कहे?
महातपस्वी के युग चरणों को छू तुरत प्रणाम किया;
(कुलगौरव-अनुकूल अतिथि को था यथेष्ट सम्मान दिया।)
क्योंकि पराक्रमशाली रिपुको जीत विनय दिखलाता है
तो ऐसा व्यवहार जगत में उसकी कीर्ति बढ़ाता है।।
संस्कृत
राजसत्त्वमवधूय मातृकं पित्र्यमस्मि गमितः शमं यदा।
नन्वनिन्दितफलो मम त्वया निग्रहोऽप्ययमनुग्रहीकृतः।।90।।
हिन्दी
अनुगृहीत भृगुनन्दन बोले-‘‘मेरा दूर विकार हुआ,
मिला अनिन्दित फलवाला यह दण्ड, बड़ा उपकार हुआ
और रामकृत कृपामोघ ने क्षात्र-रजोगुण दूर किया,
ब्राह्मणयोग्य पितापद सात्त्विक गुण से है भरपूर किया।।’’
संस्कृत
साधयाम्यहमविघ्नमस्तु ते देवकार्यमुपपादयिष्यतः।
ऊचिवानिति वचः सलक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजमृषिस्तिरोदधे।।91।।
हिन्दी
‘‘(चलूँ साधनारत हो जाऊँ अब होकर मैं शान्त प्रमन,
जीवन का इतिहास लिखा है रुधिर-नदी में स्नात प्रधन।)
कार्य आपका विवुधवृन्द का बिना विघ्न के पूरा हो’’-
लक्ष्मण सहित राम से कह यह भार्गव अन्तर्धान अहो।।

[रघुवंश-प्रकाश (रघुवंश महाकाव्य का काव्यनिबद्ध भावानुवाद, शोध एवं चयनित श्लोकों की व्याख्या) – डाॅ. अमलदार ‘नीहार’]
प्रकाशन वर्ष: 2014
राधा पब्लिेकेशंस
4231/1, अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली-110002

डाॅ. अमलदार ‘नीहार’
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
श्री मुरली मनोहर टाउन स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
बलिया
सम्पर्क: मो. 9454032550


परिचय 


  • डाॅ. अमलदार ‘नीहार’                     

   अध्यक्ष, हिन्दी विभागAmaldar Neehar
   श्री मुरली मनोहर टाउन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलिया (उ.प्र.) – 277001 

  • उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और संस्कृत संस्थानम् उत्तर प्रदेश (उत्तर प्रदेश सरकार) द्वारा अपनी साहित्य कृति ‘रघुवंश-प्रकाश’ के लिए 2015 में ‘सुब्रह्मण्य भारती’ तथा 2016 में ‘विविध’ पुरस्कार से सम्मानित, इसके अलावा अनेक साहित्यिक संस्थानों से बराबर सम्मानित।
  • अद्यावधि साहित्य की अनेक विधाओं-(गद्य तथा पद्य-कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध, ललित निबन्ध, यात्रा-संस्मरण, जीवनी, आत्मकथात्मक संस्मरण, शोधलेख, डायरी, सुभाषित, दोहा, कवित्त, गीत-ग़ज़ल तथा विभिन्न प्रकार की कविताएँ, संस्कृत से हिन्दी में काव्यनिबद्ध भावानुवाद), संपादन तथा भाष्य आदि में सृजनरत और विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित।Amaldar Neehar Books
  • अद्यतन कुल 13 पुस्तकें प्रकाशित, ४ पुस्तकें प्रकाशनाधीन और लगभग डेढ़ दर्जन अन्य अप्रकाशित मौलिक पुस्तकों के प्रतिष्ठित रचनाकार : कवि तथा लेखक।

सम्प्रति :
अध्यक्ष, हिंदी विभाग
श्री मुरली मनोहर टाउन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलिया (उ.प्र.) – 277001

मूल निवास :
ग्राम-जनापुर पनियरियाँ, जौनपुर

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