आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद संपूर्ण मध्य कालीन साहित्य का नया पाठ

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  • प्रियंका मिश्रा (शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय)

आज प्रख्यात आलोचक और मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष डाॅ. करुणाशंकर उपाध्याय की सद्यःप्रकाशित पुस्तक ‘मध्यकालीन कविता का पुनर्पाठ’ मिली। इसमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद संपूर्ण मध्य कालीन साहित्य का एक गंभीर और प्रामाणिक पाठ तैयार किया गया है।यह विद्वानों, आलोचकों, शोधार्थियों से लेकर हर वर्ग के पाठक के लिए एक जरूरी पुस्तक है। इसमें अनेक मौलिक और नवीन स्थापनाएं की गई हैं जिसके कारण यह पुस्तक संपूर्ण मध्य कालीन साहित्य का एक वस्तुनिष्ठ और मानक पुनर्पाठ बन गई है। इसमें तीन आलेख ‘वैश्विक संदर्भ में गुरु जाम्भोजी की प्रासंगिकता, भारतीय पर्यावरणीय दृष्टि और संत जाम्भोजी का चिंतन ‘तथा वर्तमान परिदृश्य में संत वील्होजी के काव्य की प्रासंगिकता नामक तीन अध्याय जाम्भाणी साहित्य को भी समर्पित हैं।

डाॅ.उपाध्याय की यह पुस्तक न केवल मध्य कालीन साहित्य का पुनर्विश्लेषण करती है अपितु उसके प्रति पाठकों में नया आकर्षण भी भरती है। लेखक ने मध्य कालीन कविता की शक्ति एवं संभावना का सही दिशा में निर्वचन करने के लिए ‘भक्तिकाव्य और उत्तर आधुनिकता, वैश्वीकरण के दौर में संत नामदेव की प्रासंगिकता, भारतीय योग परंपरा और कबीर, कबीर साहित्य में गुरु का वर्तमान संदर्भ, रामचंद्र शुक्ल के कबीर संबंधी मूल्यांकन का पुनर्पाठ, सूफीकाव्य का समाजशास्त्र और वर्तमान समय, जायसी का विरह-वर्णन, पुष्टिमार्ग और सूरदास, रामायण और रामचरितमानस में प्रतिष्ठित मूल्यों की सार्वभौमिकता, रामचरितमानस आदर्श सामाजिक व्यवस्था का महाकाव्य, सामाजिक प्रतिबद्धता का लोकवृत्त, हिंदी के पहले नारीवादी कवि हैं तुलसी, जिसमें सब रम जाएं वही राम हैं, रामलीला की परंपरा और तुलसीदास, तुलसीदास और ताजमहल, तुलसी की भाषा, आचार्य कवि गोस्वामी तुलसीदास, वैश्विक संदर्भ में गुरु जाम्भोजी की वाणी की प्रासंगिकता, भारतीय पर्यावरणीय दृष्टि और संत जाम्भोजी का चिंतन, वर्तमान परिदृश्य में संत वील्होजी के काव्य की प्रासंगिकता, भक्तिकालीन कवियों का काव्य चिंतन, रीतिकालीन कवियों का काव्य चिंतन, मनीषी परंपरा के साहित्यिक आचार्य नित्यानंद शास्त्री, मराठी रामकाव्य का स्वरूप और अयोध्या कालयात्री है” जैसे पच्चीस अध्यायों के माध्यम से किया गया है। इस पुस्तक में अनेक अंतःअनुशासनिक, मौलिक, साहसिक और क्रांतिकारी उद्भावनाएं की गई हैं। उपाध्यायजी इतिहास, परंपरा, संस्कृति, दर्शन, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अंतरराष्ट्रीय संबंध और रक्षा विशेषज्ञ भी हैं जिसकी झलक इस पुस्तक में अनेक स्थलों पर देखी जा सकती है। इसका सबसे बड़ा वैशिष्ट्य यह है कि लेखक ने भारतवर्ष की गतिशील लोकोन्मुख परंपरा, जातीय चेतना, विश्व – संदृष्टि तथा उत्तर आधुनिक पाठ-केन्द्रित आलोचना पद्तियों के सामरस्य द्वारा सचमुच एक नया पाठ तैयार किया है। यह पुस्तक हमारे जैसे शोधार्थियों एवं मध्यकाल के अध्येताओं के लिए एक बड़ा संबल है।

लेखक ने जिस तल्लीनता और अंतर्दृष्टि के साथ समूचे मध्यकाल का नए संदर्भों की सापेक्षता में जो वस्तुनिष्ठ और मानक पाठ तैयार किया है वह अनेक नए प्रस्थान एवं प्रतिमान प्रतिष्ठित करने वाला है। यह पुस्तक हिंदी के हर वर्ग के पाठक के लिए बेहद उपयोगी है।इसमें जिस सहजताऔर स्पष्टता के साथ मध्यकालीन काव्य की जटिलता और बहुस्तरीयता को उद्घाटित किया गया है वह यह सिद्ध करता है कि समझ का कोई विकल्प नहीं है। यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने डाॅ.उपाध्याय को दो राष्ट्रीय संगोष्ठियों में सुना है और आज फिर उनसे मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ। मुझे इस बात का गर्व है कि हिंदी का इतना बड़ा आलोचक हमारे क्षेत्र से है। मैं कामना करती हूं कि डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय इसी तरह निरंतर लिखते रहेंगे और अपने उच्चस्तरीय लेखन द्वारा हिंदी आलोचना को विश्वस्तरीय बनाने में सफल होंगे। शुभकामनाओं के साथ हिंदी पाठकों से आग्रह करती हूं कि वे इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें अन्यथा वे आलोचना के रचनात्मक स्वरूप, व्यापक विश्व-बोध और वर्तमान संदर्भ की सापेक्षता में मध्यकाल को समझने से वंचित रह जाएंगे।

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