-
-
-
-
- कोरोना को हराएँ
-
-
-
संक्रमण से बचाव के सभी उपाय अपनाएं
आओ हम सब मिलकर कोरोना को हराएं।
कितना भी जरूरी हो, घर से बाहर न जाएँ
संक्रमण से खुद बचें और दूसरों को भी बचाएं।
घर पर ही किताबें पढ़ें, टीवी देखें, नाचे-गाएं
अपने परिवार के साथ अच्छा वक्त बिताएं।
दोस्तों-रिश्तेदारों से कुछ समय तक दूरी बनाएं
ईमेल करें, फोन करें औ’ वीडियो चैट पर बतियाएं।
बार-बार हाथ धोएं और साफ-सफाई अपनाएं
भूलकर भी हाथों को न अपने चेहरे पर लगाएं।
सरकारी निर्देशों का पालन करें और करवाएं
देशभक्ति का यह मौका बिल्कुल भी ना गवाएं।
इस मुश्किल वक्त में आपस के मतभेद भुलाएं
विचारधारा आपकी चाहे जो हो, सब साथ आएं
कुछ समय आर्थिक तंगी खुशी-खुशी सह जाएं
अर्थव्यवस्था से पहले खुद बचें, दूसरों को बचाएं।
बुखार खांसी और सर दर्द को बिल्कुल न छिपाएं
कोरोना का लक्षण दिखने पर तुरंत जाँच करवाएं।
तुलसी, नीम, गिलोय का उपयोग करें औ’ करवाएं
अपनी और परिजनों की प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाएं।
-
-
-
- गाँव लौटते मजदूर
-
-
छोड़ कर अपना गाँव आए
सवार सपनों की नाव आए।
चूर हुए अब सब सपने
लौट चले हैं घर अपने।
शहर सभी बनाते ये
फिर भी छत न पाते ये।
बरसों-बरस श्रम किया
लगाकर पूरा दम किया।
खूंटी पर इच्छाएँ टांगी थीं
बस रोटी-छत ही माँगी थी।
वो भी शहर ने दिया नहीं
अपनों सा कुछ किया नहीं।
जब मजबूरी थी भारी
और चारों ओर लाचारी।
तब मालिक ने छोड़ा साथ
न लगा कुछ उनके हाथ।
भूख से बच्चे रोते रहे
हर उम्मीद ये खोटे रहे।
सोचा है ये थक हार-कर
अपने मन को मार-कर।
अब गाँव अपने जाएंगे
लौट कर शहर न आएँगे।
-
-
-
- चले गए गाँव श्रमिक
-
-
गलियाँ हो गईं सूनी और घरों में पड़ गए ताले
चले गए अब गाँव श्रमिक सब इनमें रहने वाले।
बरसों-बरस जहाँ था अपना खून-पसीना बहाया
उस शहर ने इस संकट में कर दिया इन्हें पराया।
सेवा में वो जिनकी तत्पर रहते थे दिन-रात
पड़ी मुसीबत तो किसी ने सुनी न कोई बात।
एक तरफ तो थी भयंकर कोरोना महामारी
और उस पर भूख ने भी थी बढ़ाई लाचारी।
दाना नहीं रसोई में, न जेब बचा कोई पैसा
भूख से बच्चे रो रहे, दिन आया अब ऐसा।
निकल पड़े सड़कों पर, लेकर पेट वो खाली
लाचार गरीबी से बढ़कर होती न कोई गाली।
लेकर साइकल या पैदल ही, करने लगे सफर
चलते रहे दिन-रात, रख कर सामान सर पर।
धूप-छांव की फिक्र बिना, सफर रहा ये जारी
साथ किसी का मिला नहीं, संकट था ये भारी।
टीवी पर भी बस इनकी चर्चा ही हो पाती है
बहुतों को तो रस्ते रोटी भी न मिल पाती है।
भूख-थकान से लड़ते-लड़ते, हो गए थे बेहाल
सड़कों पर ही सो जाते जब रुक जाती थी चाल।
चलते-चलते पैदल, घिस गए चप्पल-जूते
नाउम्मीदी में निकल पड़े, अपने ही बलबूते।
जैसे-तैसे, सब कुछ सहकर, पहुँच गए अब गाँव
मिल जाए रोजी-रोटी और अपनी छत की छाँव।
-
-
-
- औज़ार करें पुकार
-
-
उल्टा ही पड़ा है
वो तसला कई दिनों से
नहीं की सवारी उसने
मजदूर के सर की
सीधा होकर
मिट्टी, गारे से भर कर।
फावड़े को
इंतजार है
कि कई दिनो से
अलग पड़ा हुआ
उसका हत्था कब लगेगा
और कब
मारा जाएगा उसे
हत्थे को पकड़कर
मुंह के बल
मिट्टी खोदने के लिए
या मसाला बनाने के लिए
चुनाई का।
छेनी को
ये आराम
अब रास नहीं आ रहा
वो चाहती है
कि उसे मिले
चोट हथौड़े की
जोरदार, अपने सर पर
और वो भेद दे पत्थर
भले ही हो जाए
खुद घायल
हथौड़े का रंग
चमकीले काले से
अब पीला होने लगा है
नहीं हो पा रहा
उसका व्यायाम
पत्थर पर करके चोट
चमक आता था
उसका चेहरा
और निखर जाता था
उसका रंग।
कई दिनों से
ये सब
और इनके सब साथी
कर रहे पुकार
है सबको इंतज़ार
कब आएँगे कामगार?
कब आएँगे कामगार?
परिचय
कवि – शैलेश शुक्ला
सम्प्रति – सहायक प्रबन्धक (राजभाषा)
एनएमडीसी लिमिटेड
दोनिमलाई, बेल्लारी, कर्नाटक
संपर्क – 8759411563