- डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय (अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय )
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदीं हिंदी के बहुआयामी रचनाकार माने जाते हैं। आप उच्चकोटि के ललित निबंधकार, अंतरदृष्टि-संपन्न इतिहासकार, सुधी समीक्षक तथा सांस्कृतिक कथाकार माने जाते हैं। आपका संपूर्ण सृजन भारतीय परंपरा, सांस्कृतिक निष्ठा और मानवतावाद से परिपुष्ट है। आपके द्वारा लिखित उपन्यासों में बाणभट्ट की आत्मकथा, चारूचन्द्र लेख, पुर्ननवा तथा अनामदास का पोथा का परिगणन किया जाता है। लेकिन इन उपन्यासों में केवल पुर्ननवा को ही औपन्यासिक रूपबंध के सम्यक निर्वाह की हैसियत प्राप्त है। आपके दूसरे उपन्यास आधुनिक औपन्यासिक ढाँचे का अतिक्रमण करते हैं। पुर्ननवा का एक अप्रतिम वैशिष्ट्य यह भी है कि इसमें आपके सौंन्दर्यशास्त्राीय चिंतन तथा नारी विषयक दृष्टिकोण का भी उन्मेष परिलक्षित होता है। इस उपन्यास के नारी चरित्रों की सृष्टि में आपका सांस्कृतिक राग, दुर्निवार जीवनास्था तथा समाजशास्त्राीय चिंतन अपने समूचे राग-रंग के साथ उपस्थित है। यहाँ भी नारी के प्रति आपका आदर्शवादी रवैया अभिव्यक्ति पाता है परन्तु यहां आपकी स्थापना ज्यादा बड़े प्रश्नों, चिन्ताओं की सापेक्षता में रूपाकार पाती है। यह उपन्यास जड़ समाज-व्यवस्था तथा परंपरागत सामाजिक संरचनाओं की संवेदनहीनता के विरोध में द्विवेदी जी की क्रांतिधार्मिता को भी उजागर करता है। चूंकि भारतीय परंपरा जटिल और बहुस्तरीय है अतः जो भी लेखक उसके प्रति आस्थावान होगा, वह उच्चतर मुल्यों तथा महानीय आदर्शों का भी प्रतिष्ठाता होगा।
प्रस्तुत उपन्यास में चन्द्रा आचार्य द्विवेदी की मानवीय संलग्नता से उद्भूत एक ऐसा चरित्र है जो अपने सामर्थ्य और विद्रोही तेवर के कारण हिंदी उपन्यासों में एकांत विरल है। वह उपन्यास के आरंभ में उन्मादक प्रेयसी, बाद में विलासमयी प्रिया तथा अंत में ममतामयी माँ के त्रिगुणात्मक रूप के साथ हमारे समक्ष आती है। वह स्वानुभूत सत्य पर विश्वास करते हुए नारी के प्राकृतिक अधिकारों की सरेआम मांग करती है। उसके नारी सुलभ स्वाभाविक अधिकारों को सुमेर काका, मृणालंमजरी, न्यायधीश तथा अंत में सम्राट समुद्र गुप्त का भी समर्थन हासिल होता है। उसका अन्तर्बाह्म व्यक्तित्व एक रूप है। उसमें इतना साहस और शक्ति है कि वह अपने अंतर्यामी के निर्देश पर परंपरागत विधिविधानों तथा जर्जर मान्यताओं का केंचुल उतार फेंकती है और स्वयं को स्वच्छ, समर्थ तथा अभिनव रूप में उपस्थित करती है। सचमुच स्त्री- विमर्श के आयोजक-संयोजक भी इतने विलक्षण चरित्र की सृष्टि नहीं कर सके हैं। इस दृष्टि से वह द्विवेदी जी के समाजशास्त्राीय सोच को विस्तार, विश्वसनीयता तथा वस्तुनिष्ठता प्रदान करती है। ऐसी स्थिति में उसके व्यक्तित्व के तमाम आयामों का सही विश्लेषण अपेक्षित है। प्रस्तुत आलेख द्विवेदी जी की नारी चिंतनात्मकता, सांस्कृतिक दृष्टिकोण तथा अग्रगामी सोच को चन्द्रा के चारित्रिक वैशिष्ट्य के विश्लेषण द्वारा प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास है।
पुर्ननवा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्वपूर्ण उपन्यास है। जिसमें समुद्रगुप्त (लगभग 330 से 380 ई.) के समय को उपन्यास का विषय बनाया गया है परन्तु यह उपन्यास युग की सीमा का अतिक्रमण करके आज के प्रश्नों को रेखाकिंत करता है। कहना होगा कि द्विवेदी जी के उपन्यासों में नारी चरित्रों को गौरवास्पद जगह मिली है। आचार्य द्विवेदी नारी महिमा के प्रतिष्ठाता हैं। नारी जाति के प्रति उनके जैसा उदात्त दृष्टिकोण विरले ही लेखकों में मिलता है। उन्हें आजीवन स्त्री शरीर को किसी अज्ञात देवता का मन्दिर समझा है। आचार्य द्विवेदी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक चेतना से सम्पृक्त रचनाकार है। उनकी दृष्टि में समाज की सांस्कृतिक चेतना ही नारी जाति की विभिन्न समस्याओं का समाधान कर सकती है। जो व्यवस्था नारी के देवता की उपेक्षा करके मिट्टी का अधिक मोल आंकती है, नारी को क्रय-विक्रय योग्य जड़ पदार्थ मात्रा मानती है, भाग्य प्रताड़ित कुलवधुओं को ठिकाने की कुत्सित प्रवृत्ति को प्रश्रय देती हैं, उस जर्जर व्यवस्था पर तीव्र आघात करना जरूरी है। नारी के प्रति सम्मान-भावना से विरहित समाज-व्यवस्था बर्बरता की प्रतीक है। लेखक के शब्दों में सभ्यता और धर्मचरण की कसौटी उस देश की स्त्रियों का सम्मान और निश्चितता हैं।
चन्द्रा पुनर्नवा उपन्यास की सहनायिका है। वह शाक्तिमत्ता में बेजोड़ है तथा आचार्य द्विवेदी की अप्रतिम नारी सृष्टि है। लोरिका चंदा की लोक कथा को आधार बनाकर द्विवेदी जी ने अपनी कल्पना एवं सर्जनात्मक ऊर्जा के बल पर कथित चरित्रा को विलक्षण गरिमा प्रदान की है। चन्द्रा विवेच्य कृति की सबसे प्राणवान नारी सृष्टि है। उसका दुर्भाग्य यही है कि उसके पिता ने लोभवश उसका विवाह मनुष्य रूप-धारी एक पशु से कर दिया है। जिसमें पुरूषत्व ही नहीं। वह नपुंसक है। वस्तुतः चन्द्रा की समस्या लगभग जयशंकर प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी जैसी है। परन्तु दोनों चरित्र अपनी सामर्थ्य के अनुपात में जूझते हैं। चन्द्रा अपने क्लीव पति के घर जाने पर भी उसे अपना धर्मसम्मत पति नहीं मानती। इस अन्याय को अपनी नियति मानकर हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठती।वह संघर्ष करती है।
चन्द्रा लड़कपन से ही गोपाल आर्यक को चाहती है। गोपाल आर्यक पौरूष एवं यौवन का साक्षात विग्रह है। उसमें गुणात्मक कुलीनता है। गुणात्मक कुलीनता का आशय गुणी ही कुलीन है से है। वह अपने कौशल एवं पराक्रम के बल पर हलद्वीप का राजा तथा समुद्रगुप्त का प्रधान सेनापति बनता है। उसका विवाह आर्य देवरावत की पालिता कन्या मृणाल से होता है। दोनों आर्य के आश्रम में सहशिक्षा पाए हुए हैं। चूँकि मृणाल-आर्यक के प्रणय बंधन से पूर्व ही चन्द्रा आर्यक को प्रेम करती थी और उसका विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध एक क्लीव व्यक्ति के कर दिया गया इसलिए विवाह के बाद भी वह पत्र द्वारा आर्यक से प्रेम निवेदन करती रहती है। आर्यक किंकर्तव्य विमूढ़ होकर चन्द्रा के सारे पत्रा मृणाल को दे देता है। मृणाल किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करती। इस बीच चन्द्रा क्लीव और क्रूर पति को छोड़कर आर्यक के पास आ जाती है। आर्यक लोक लज्जावश पूरब दिशा की ओर भाग खड़ा होता है। उसे भय था कि लोग क्या सोचेंगे। परन्तु चन्द्रा ने पीछा नहीं छोड़ा। उसे कायर पुरूष कहती सेवा में जुट जाती और आर्यक पानी-पानी हो जाता। चन्द्रा उद्वेल प्रेम है। प्रेम जो सीमा नहीं जानता, उचित-अनुचित का विवेक नहीं रखता, जो सदा उफनता रहता है। चन्द्रा का प्रेम एक भयंकर बुभुक्षा है एक सतत अतृप्त पिसासा। उसे समझ में नहीं आता कि इसमें दोष क्या ह? क्यों आर्यक भागा-भागा फिर रहा है? वह मृणाल और आर्यक दोनों को समान रूप से प्यार नहीं कर सकती? आर्यक को वह कायर और डरपोक कहती है। परन्तु आर्यक उसका कृतज्ञ भी है। उसी के कारण वह सम्राट समुद्रगुप्त के निकट पहुंच सका। हलद्वीप विजय का अवसर भी उसी के इशारे पर प्राप्त हुआ।
चन्द्रा के चरित्र में कुछ भी अदृप्त नहीं है। उसके मन में जरा भी कलुष नहीं। वह अपने को छिपाती नहीं फिरती। वह अकुण्ठ भाव से प्रेम की एक निष्ठ पुजारिन बनकर आर्यक पर अपना संपूर्ण सेवा भाव न्यौछावर कर देती है। वह जड़ व्यवस्था से सीधे टकराती है। वह रूढ़ संस्कारों को अपना धर्म मानकर अन्याय का पिष्ट पोषण नहीं करती। राजदण्ड के भय से पीली नहीं पड़ जाती और किसी अपराध-बोध से ग्रस्त होकर अधमरी नहीं हो जाती। वह उद्दाम सरिता की भांति कोई बंधन नहीं मानती। यहां तक कि सम्राट समुद्रगुप्त के पूछने पर परिणाम की चिन्ता किए बगैर वह साफ-साफ कह देती है कि वह आर्यक की विवाहिता वधू नहीं है। नतीजन सम्राट आर्यक के असदाचरण पर रोष प्रकट करते हैं। आर्यक लोकापवाद के डर से अपने मित्र भटार्क को सेनापतित्व का कार्य भार सौंपकर चुपचाप खिसक जाता है। वह अपने को छिपाता फिरता है। जबकि चन्द्रा जितनी स्पष्टवादी है उसका चरित्र भी उतना ही प्रखर हैउसमें कहीं भी विवशता के दर्शन नहीं होते। परिस्थितियाँ उसे तोड़ने में सफल नहीं होती। एक अविकल भाववेग, शक्ति का एक अटूट स्त्रोत उसे बल प्रदान करता है। उसके व्यक्तित्व में सर्वत्र एक प्रकार की प्रचण्ड गति का आभास मिलता है। वह मानो आपादमस्तक क्रांति से निर्मित हो। वह अकुतोभया है और अपने अर्न्तयामी के साक्ष्य पर मृणाल की सेवा में पहुंच जाती हैं। हलद्वीप में चन्द्रा के बारे में तरह-तरह की झूठ-सच बातें अफवाह बनकर तैरने लगी। उसे बड़ी सरलता से कुलांगना समझा जाने लगा। परन्तु चन्द्रा है कि जरा भी झेंपती नहीं, आँखें नहीं चुराती। वह अपने को निष्पाप, निष्कलुष एवं निर्विकार बनाये रखती है। मृणाल के यहां पर पहुंचने पर अस्खलित वाणी में सुमेर काका से साफ कह देती है कि मेरा विवाह मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरे पिता ने एक ऐसे मनुष्यरूप धारी पशु से कर दिया जो पुरूष ही नहीं। मैं उसे पति नहीं मान सकती। हलद्वीप के मुंह में कालिख लगती है तो सौ बार लगा करे, जो समाज इस प्रकार के विवाह की स्वीकृति देता है वह अपने मुंह में कालिख पहले ही पोत लेता है। यह द्विवेदी जी की क्रांतिकारी दृष्टि का मूर्तिमान रूप है। एक निष्पाप नारी की बेबाक अभिव्यक्ति, समाज की रूढ़ मान्यताओं के प्रति भावलोक का विद्रोह! मृत मान्यताओं का अन्तिम संस्कार! प्रगतिशील मानवतावादी दृष्टि का प्रमाण भी। द्विवेदी जी अप्रासंगिक व्यवस्थाओं तथा नीति-अनीति की सड़ी रुढ़ियों को तोड़कर जीवन की प्रवाहमान धारा से उत्पन्न नये मूल्यों को स्वीकारने के पक्षपाती है। वे सामाजिक व्यवस्थाओं का निरंतर संस्कार और परिमार्जनन चाहते हैं। वे चन्द्रा जैसे चरित्र की सृष्टि करके इस कार्य को बखूबी अंजाम देते हैं। उनकी चन्द्रा के जिस्म का रेशा-रेशा क्रांति से निर्मित है। उसके रक्त की एक-एक बूंद में भावलोक का विद्रोह है। उसकी प्रत्येक सांस में निश्चल हृदय की पवित्रा गंध है। इसी दृष्टिकोण के चलते द्विवेदीजी के उपन्यासों में निच्छल हृदय की पवित्रा गंध है। इसी दृष्टिकोण के चलते द्विवेदीजी के उपन्यासों में अतीत वर्तमान में घुल-मिल गया है और पुनर्नवा अर्थात् पुनः नवीन, पुनः जाग्रत, पुनःप्राणवन्त हो उठा है। समाज-व्यवस्था, विधि व्यवस्था, धर्म व्यवस्था को परिस्थितियों, मानवीय आकांक्षाओं के अनुरूप ढालते जाना ही शायद पुनर्नवता है और पुनर्नवता के स्वागत का साहस ही द्विवेदीजी के इस उपन्यास का विशेष संदेश भी है।
चन्द्रा इस पुनर्नवता को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील दिखती है। वह दोषपूर्ण व्यवस्था को बदलने का माध्यम है। वह जर्जर मान्यताओं के आगे समर्पण करने को प्रस्तुत नहीं। वह सुमेर काका से आगे कहती हैकि ‘‘मैंने आर्यक को ही अपना पति माना है। वह मेरा था और रहेगा। मैं उसके साथ भागकर नहीं गयी। वह भागा जा रहा था, मैं साथ हो ली थी। फिर कहीं भागा है, उसकी खोज में हूँ। मैं आर्यक की पत्नी हूँ और बनी रहूँगी। मैं अपने घर आयी हूँ, मैं अगर कुलवधू नहीं हूँ तो संसार में कोई कुलवधू आज तक पैदा ही नहीं हुई।’’ धन्य है यह आत्मविश्वास! इससे अधिक की गुंजायश ही नहीं थी! सुमेर काका चन्द्रा के प्रोज्जवल चरित्र एवम् तेजोदृप्त वाणी से अभिभूत हो जाते हैं और जब चन्द्रा के तथाकथित पति श्रीचन्द्र ने अमात्य पुरन्दर के दरबार में व्यवहार (मुकद्दमा) खड़ा कर दिया तब काका चन्द्रा का पक्ष लेकर इसका जमकर प्रतिवाद करते हैं। वे कन्या की इच्छा के विरुद्ध किए गये विवाह को सामाजिक बलात्कार कहते हैं। आज के अभिभावक इससे सीख ले सकते हैं। चन्द्रा का व्यक्तित्व अतिशय सौन्दर्यशाली है। उसका रूप भुवन मोहन है। शोभा उस पर सौ जान से निसार है। सिद्ध बाबा उसे ‘भुवन मोहिनी एवम् त्रिपुरसुन्दरी’ की संज्ञा से अभिहित करने हैं। वह लोगों की दृष्टि में उन्मार्ग-गामिनी कुलटा है और अपनी दृष्टि में पतिव्रता। दरअसल, ‘पुनर्नवा’ में द्विवेदीजी लोक सापेक्ष स्वतंत्र सौन्दर्य-शास्त्र रचते हैं और चन्द्रा उसी का सबसे मुखर छन्द हैं।
आचार्य द्विवेदी नारी को शक्ति स्रोतस्विनी मानते हैं। उनकी चन्द्रा शक्ति, शोभा एवम् सेवा की प्रतिमूर्ति है। निर्भीकता इसमें कूट-कूटकर भरी है। लेखक मानता है ‘अपने आपको छिपाते फिरना सारे अनर्थों की जड़ है।’ आर्यक को इसी कारण भटकना पड़ा। परन्तु चन्द्रा के चरित्र में सर्वत्र एक अनाविल स्पष्टता दिखायी पड़ती है। वह अपने समूचे पाप-पुण्य के साथ पाठकों के समक्ष आती है। उसका अदम्य साहस देखकर पाठक उस समय हैरान रह जाता है जब आर्यक आग में फँसे एक बच्चे और उसकी माँ को बचाकर निकालने के प्रयास में दुर्वृतों की चोट खाकर जलते घर के द्वार पर गिर पड़ा था और उसी समय चन्द्रा आँधी की तरह आकर उसे दूर उठा ले जाती है। इत्ते बड़े गबरु जवान को उसने ऐसे उठालिए जैसे एक माता किसी अबोध शिशु को उठा लेती है। मृणाल के प्रति भी चन्द्रा के मन में कुछ नहीं है। वह मृणाल को अपनी बहन के समान मानती है। आर्यक के प्रति इसके उद्दाम और भावुक प्रेम ने मृणाल के अन्तस्तल से द्विधाभास मिटा दिया। वह मृणाल की प्रसन्नता का भरसक आयोजन करती है। नारी को लेखक ने दैवी रूप प्रदान किया है। लेकिन बिना पुरुष के उसे अपूर्ण माना है। नारी के लिए पुरुष को वश में करने का एक मात्र उपाय सेवा है। सेवा ही ऐसा साधन है जो व्यक्ति के माध्यम से अग-जग व्यापी विश्वात्मा की प्राप्ति कराती है। प्रेम का अधिकार चाहे एक व्यक्ति के प्रति हो या विश्वरूप परमात्मा के प्रति। सेवाभाव से ही मिलता है। चन्द्रा की इसी सेवापरायणता के आगे मृणाल समर्पित हो जाती है। चन्द्रा की इसी सेवापराणता के आगे मृणाल समर्पित हो गयी और अपने परिणीत पर उसके दावे को नकार न सकी। इतना ही नहीं उसकी वजह से वह आर्यक की और भी प्रिया बन गयी। लेखक की दृष्टि में प्रेम एक निष्कलुष भावना है जो चंद्रा के व्यक्तित्व में अंतर्भुक्त है।द्विवेदीजी कालीदास के ‘भाव-स्थिराणि-जनानान्तर-सौहृदानि’ कथन के अनुरूप प्रेम को जन्म-जन्मांतरव्यापी आन्तरिक संबंध मानते हैं। आर्यक को अपना जन्म-जन्मांतर का साथी मानने वाली चन्द्रा भी दो हृदयों के सहज आकर्षण को लौह और चुम्बक की तरह स्वाभाविक और पापपुण्यभाव से असंपृक्त संबंध मानती है। वस्तुतः मोह, वासना एवम् अभिमान आदि विकार ही उसे आविल बना देते हैं। वस्तुतः मोह में ही पाने की लालसा ही चन्द्रा के प्रेम को उद्दाम रूप प्रदान करती है। इसीलिए बन्दरिया माता की तरह मोह का बोझ ढोने वाली चन्द्रा को निःशेष समर्पण की सीख देते हुए सिद्धबाबा कहते हैं, ‘पाने की लालसा मनुष्य को मुर्दे ढोते रहने का प्रलोभन देती है। फेंक दे? मां, मरी को मत ढो।’ आगे अपने सुख के लिए संचय की प्रवृत्ति को दुःख-मूलक बताते हुए वे कहते हैं कि, अपने लिए बटोरने से ही मनुष्य का जीवन श्मशान बन जाता है। लुटाने की बुद्धि से जो कुछ किया जाता है वह फूल बन जाता है… अपने लिए कुछ बटोरना नहीं, सब कुछ निःशेष भाव से निचोड़कर देती रहना।’
लेखक की दृष्टि में निश्छल सेवा के पसीने से अधिक पावनकारी वस्तु विधाता की सृष्टि में है ही नहीं। सेवा का पसीना शरीर और मन के सारे कलुष धो देता है। संसार की आधी समस्याएँ सेवा की उपेक्षा करने के कारण है। वस्तुतः चन्द्रा के मन में किसी तरह की ग्रंथि नहीं है। वह अकुण्ठसेवा की सूत्राधारिणी है। वह मृणाल से कहती है कि, ‘स्त्री चित्त में विधाता ने अभिमान का अक्षय बीज क्यों बो दिया है। लुटा देने की सारी उमंग इस अभिमान के पौधे से उलझकर बरबाद हो जाती है।’ अतः चन्द्रा अभिमान के पौधे को गंगा की धारा में फेंक देती है। उसकी उद्दाम-यौवन-लालसा धीरे-धीरे प्रबल वात्सल्य-भाव में पर्यवसित हो जाती है। चन्द्रा को उस वात्सल्य का आश्रय मृणाल के रूप में मिल गया। वह सिर से पैर तक मातृत्व के उज्जवल आलोक से दीप्त शिखा की तरह ऊर्ध्वमुखी हो गयी। इस तरह चन्द्रा अपने मातृभाव की पहचान होने पर अपनी लालसा व अभिमान तथा अपने अस्तित्व को विश्वात्मा के चरणों में समर्पित कर देती है। उसका जीवन सार्थक हो जाता है। दरअसल, गुप्त युगीन परिवेश में चन्द्रा निर्भीकता, स्पष्टता और साहस में अद्वितीय नारी है। वह भक्तिमयी शक्तिवादी चरित्र है। भक्ति निरन्तर भजने से आती है। अपनी सेवाभावना से चन्द्रा ने आर्यक को तमाम विधिविधानों पर विजय प्राप्त करते हुए प्राप्त कर लिया।
सारांश यह कि चन्द्रा निर्भीकता, स्पष्टता और साहस में अद्वितीय नारी है। उसका मूल भाव माता का भाव है। वह आर्यक और मृणाल की सेवा के लिए लालायित है। वस्तुतः वह एक विचार है, एक धारणा है। वह व्यक्ति स्वातंत्रय की प्रतीक है तथा उसमें हस्तक्षेप करने वाली पूर्ण-प्रभुत्व-सम्पन्न सत्ता को भी चुनौती देने में नहीं हिचकती। वह समुद्रगुप्त से स्पष्ट शब्दों में कहती है, ‘मैं पतिव्रता हूँ। तुम्हारे जैसे सम्राट भी मुझे उससे नहीं हटा सकते। मैं कुंचित भृकुटियों की उपेक्षा करना जानती हूँ।’
कुल मिलाकर चन्द्रा की उद्दाम यौवन-लालसा का चित्रण करके द्विवेदीजी ने इस आरोप को झूठा साबित कर दिया है कि उनमें सांसारिक प्रेम के प्रति संकोच का एक सलज्ज भाव दिखायी पड़ता है। वे एक स्थान पर स्वीकार करते हैं कि, गणिका होकर जो साहस मंजुला नहीं कर सकी वह साहस कुलांगना होकर चन्द्रा कर बैठी। इस उद्दाम का प्रेमा निदर्शन खोजना कठिन है।’ चन्द्रा के चरित्र का यही वैशिष्ट्य उसकी निजी सम्पत्ति है। एक रोमांटिक भावुकता इसके प्रेम को सघनता एवम् गहराई प्रदान करती है। निष्कर्षतः सामाजिक अन्याय के विरुद्ध संघर्षरत व्यक्ति स्वातंत्र्य की प्रतीक चन्द्रा उफनते प्रेम एवम् अतृप्त पिपासा की प्रतिमा बन जाती है। आर्यक की अकुण्ठ सेवा उसके कलुष का मार्जन कर देती है। मृणाल से मिलने के बाद तो उसका प्रेम उत्सर्ग भावना से आलोकित हो उठता है। उसके हृदय में स्वामिनी भाव के स्थान पर मातृभाव की प्रतिष्ठा जीवन को सार्थक बना देती है।’ सचमुच, ‘पुनर्नवा’ के आलोक में चन्द्रा का प्रोज्जवल व्यक्तित्व जगमगा उठा हैं। उसका प्रेम निरन्तर परिमार्जित होकर उच्चतर तथा गहनतर मनोभूमि पर प्रतिष्ठित होता गया है।
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