- डॉ.करुणाशंकर उपाध्याय
(प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय )
चित्रामुद्गल बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के बीच सेतु निर्मित करने वाली लेखिका हैं। समकालीन हिंदी कथासाहित्य को जिन लेखिकाओं ने उसकी संपूर्ण शक्ति, संभावना और वैविध्य के साथ उद्भासित किया है उनमें चित्रामुद्गल का नाम सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण है। इनके व्यक्तित्व के स्वाभाविक विकास में अवध की मिट्टी की सोंधी खुशबू और उदारता की भी अपनी भूमिका है। चित्रामुद्गल मूलतः बड़ी चिंता की लेखिका हैं जो बड़े सामाजिक प्रश्नों से जूझते हुए अतलांत सामाजिक सरोकार तथा विलक्षण कथा-विवेक का परिचय देतीं हैं। वे इस अर्थ में विशिष्ट रचनाकार हैं कि नारी मुक्ति का आशय सामाजिक दायित्वों की पूर्ति करते हुए परंपरागत रूढ़ियों, आवर्जनाओं, विकृतियों एवं मानसिक संतापों से मुक्ति को मानतीं हैं। इनका लेखन बदलती मानवीयता, परिवेशगत जटिलता, वैश्वीकरण के दबाओं से उद्भूत चुनौतियां , परित्यक्त सचाइयां, अतीत-व्यतीत के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि, अपने समकाल के प्रति सजगता उसमें होने वाले हर विवर्तन की परख करता है। चित्रामुद्गल का सामाजिक चिंतन अनवरत संघर्ष और प्रत्यक्ष अनुभव की फलश्रुति है। वह केवल स्त्री केंद्रित न होकर पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति, नर-नारी,यक्ष-किन्नर समेत व्यापक मनुष्यता तक परिव्याप्त है। वे भलीभांति जानतीं हैं कि हमारा समाज जैसा दिखाई पड़ रहा है वस्तुतः वैसा है नहीं। वह अपने तमाम दुर्गुणों , विकृतियों, विडंबनाओं और विद्रूपताओं के बावजूद मनुष्यता के उच्चतम मूल्यों की परंपरा को पुरस्कृत करने वाली विरासत का उत्तराधिकारी भी है। फलतः उसके मूल में जो शक्ति है वह विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक परमाणुओं को पकड़कर अपने वश में कर लेती है और उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन करके उसका परिमार्जन भी कर देती है। इस प्रक्रिया से ही सामाजिक बदलाव आता है।समाज का नया रूप बनता है।कुछ समय बाद उसमें दुबारा विकार आता है। फलतः नए सिरे से सुधार का प्रश्न उठ खड़ा होता है। यह अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। जिस तरह हर पीढ़ी अपने अनुकूल मूल्य एवं मान निर्मित करती है उसी तरह सामाजिक परिवर्तन भी स्थायी तथा सुनिश्चित नहीं होता। ऐसी स्थिति में किसी भी सामाजिक तंत्र को अंतिम नहीं माना जा सकता है।केवल जरूरत इस बात की होती है कि हम अपने रचनात्मक दायित्व के प्रति सजग रहें और शक्ति के विद्युत्कणों के समन्वय द्वारा अवश्यंभावी बदलाओं को व्यापक तथा रचनात्मक अर्थवत्ता प्रदान करें।
चित्रामुद्गल की सामाजिक चिंता आधारभूत मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा के लिए उन्हें मनुष्यता की भी परिधि से बाहर कर दिए गए तृतीय लिंगी पर भी लेखनी चलाने के लिए विवश करती है। इस कार्य की परिणति हुई है – पोस्ट बाॅक्स नं.203 नालासोपारा के सर्जनात्मक लेखन में। इसकी कथावस्तु मुंबई के कालबा देवी रोड और नाला सोपारा के बीच फैली हुई है।इसे साहित्य अकादेमी ने पुरस्कृत करके इसके महत्व को स्वीकृति प्रदान की है। यह उपन्यास अपने जननांग विकलांगता के कारण शताब्दियों से जिस जिस वर्ग को मनुष्य होने की सामान्य गरिमा के अंतर्गत भी स्थान नहीं दिया गया है उनकी व्यथा-कथा है। लेखिका ने विनोद उर्फ़ बिन्नी उर्फ़ बिमली के बहाने एक जवान होते किन्नर किशोर की मर्मस्पर्शी पीडाओं और अंतःसंघर्षों द्वारा इसका ताना-बाना बुना है। विनोद मुंबई के कालबादेवी रोड के एक प्रतिष्ठित, सम्पन्न और खुशहाल व्यापारी हरींद्र शाह और वंदना बेन शाह की दूसरी संतान है। वह जब एक बड़े स्कूल की आठवीं कक्षा का कुशाग्र बुद्धि वाला मेधावी छात्र बनता है तब उसे अहसास होता है कि उसकी शारीरिक संरचना दूसरों जैसी नहीं है।इस संदर्भ में पूछने पर उसकी बा (मां) उसे समझा कर असहज होने से बचाने का उपक्रम करती है। बिन्नी के माता- पिता उसे अनेक विशेषज्ञ चिकित्सकों को दिखाते हैं लेकिन कोई भी उसके जन्मगत दोष का निवारण नहीं कर पाता।एक दिन किसी सूत्र से सूचना पाकर किन्नरों की नायिका चंपाबाई विनोद के घर आकर हंगामा करती है।उस दिन किसी तरह से उसकी बा झूठ के सहारे चंपाबाई को लौटा देती है लेकिन चंपाबाई दुबारा सबूत के साथ आने की धमकी देकर पूरे परिवार को हिला देती है। अंततः एक दिन क्रूर व्यवस्था विनोद को चंपाबाई और किन्नरों के अंधेरेकुएं के समान भयावह संसार के हवाले कर देती है जो सांप और बिच्छुओं से लबरेज़ है। किन्नरों के भयावह संसार में विनोद अपने को ‘ मिस फिट’ पाता है।वह स्वयं कहता है कि ‘किन्नरों की दुनिया एक अंधा कुआं है जिसमें सिर्फ सांप और बिच्छू रहते हैं। ‘वह इस कुएं से छलांग लगाकर भागने का असफल प्रयास करता है किन्तु पकड़े जाने पर सरदार की क्रूरता तथा लात – घूसों का शिकार भी होता है।बावजूद इसके वह न तो किन्नरों की जीवन शैली अपनाता है और न ही मनुष्य बने रहने के अपने संकल्प को कमजोर होने देता है।उसकी यह संघर्षशीलता उसे महाकाव्यों के नायक की गरिमा प्रदान करती है।लेखिका यह स्थापित करती है कि यदि मनुष्य में जिजीविषा तथा कुछ कर गुजरने का माद्दा है तो वह अपने लिए कोई -न-कोई रास्ता अवश्य बना लेता है।बिन्नी के व्यक्तित्व का यही गुण उसे स्वावलम्बन की ओर धकेलता है। फलतः वह दूसरों की गाडियाँ धोकर अपने सरदार को पंद्रह सौ रूपए प्रति माह कमा कर देता है। लेखिका ने किन्नरों को मुख्य धारा में लाने के प्रयास के अंतर्गत विनोद के चरित्र को गढ़ा है।वह मानता है कि जननांग विकलांगता इतना बड़ा दोष नहीं है कि अन्य सारी क्षमताएं नकार दी जाएं।उसका मानना है कि कोई न कोई शारीरिक अक्षमता अधिकांश लोगों में होती है। यह आंख, कान,नाक, हाथ, पैर इत्यादि की तरह ही विकलांग हो सकता है। लेकिन समाज जननांग विकलांगता को ही इतना हीन और अमानवीय कैसे मान सकता है। उसने अध्ययन तथा अनुभव से सीखा है कि जीवन में स्वाभिमान एवं सम्मान के साथ जी पाना कितना मुश्किल है ।विनोद न केवल अच्छी अंग्रेजी बोल सकता है अपितु उसे कम्प्यूटर का आधारभूत ज्ञान भी है। फलतः वह विधायक से साफ़ शब्दों में कह देता है कि वह जिल्लत की जिंदगी नहीं जीना चाहता।विधायक विनोद की प्रतिभा और तेवर को समझकर उसे अपने यहां टाइपिस्ट की नौकरी भी देता है।विधायक जी विनोद के विवेकपूर्ण सोच, हौसले और जज्बे को तुरंत पहचान जाता है। उसकी पारखी नज़र ने समझा कि यह डट जाए तो समाज की दिशा बदल कर रख दे।आसन्न चुनावों की तैयारी में पार्टी ऐसे चुनावी मुद्दे पर विचार कर रही थी कि जिससे समाज हिल जाए। तय हुआ कि किन्नरों का मुद्दा अब तक अनछुआ है। यदि किन्नर साथ देंगे तो हम उनके आरक्षण की मुहिम चलाएंगे। इस कार्य के लिए एक चेहरा चाहिए था जो उसके सामने था। बिन्नी मानता है कि समाज उसके लिए मुक्ति के रास्ते नहीं तलाशेंगे ।समाज की मानसिकता दलनी होगी। फलतः वह उपस्थित किन्नर समाज से कहता है किआरक्षण निदान नहीं है। वह चंडीगढ़ में आयोजित वृहद किन्नर सम्मेलन में विशाल जनसमूह से भरे हुए सभागार में कहता है कि “मैं सरकार से अपील करता हूँ कि इस सभागार में, लिंग दोषी बिरादरी की घर वापसी को वह सुनिश्चित करे। कानून बनाए। बाध्य करे अभिभावकों को।घर से बहिष्कृत बच्चों को वह जिस भी उम्र के पड़ाव में हों, अपने साथ रखें। प्रचार करें, अखबारों, चैनलों और आकाशवाणी पर विज्ञापनों के माध्यम से। उनकी चेतना को झकझोरें, ताकि भविष्य में कोई माता-पिता लोकापवाद के भय से लिंग दोषी औलाद को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए घूरे पर न फेंके। वह किन्नर समाज से भी आग्रह करता है कि वे किसी भी उम्र के बच्चे को अपने साथ न ले जाएं।उसके माता-पिता से उसे अलग न करें। इस रास्ते से ही वह सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करता है।
वैसे तो विनोद के भाषण का उपस्थित जन-समुदाय पर गहरा प्रभाव पड़ता है परंतु विधायक को उसकी भावुकताभरी अपील बहुत नागवार लगती है।फलस्वरूप समारोह के उपरांत तिवारी उसे फटकारता है। क्योंकि विधायक ने यह विशिष्ट सम्मेलन जिस राजनीतिक लेने के लिए आयोजित किया था वह ध्वस्त हो रहा था। विधायक का भतीजा बिल्लू विधायक द्वारा आयोजित पार्टी में अपने दोस्तों के साथ मिलकर नृत्य के लिए बुलाई गई किन्नर पूनम के साथ नृशंसतापूर्वक बलात्कार करता है। विनोद यहां भी साहस का परिचय देता है। वह उसे उपचार के लिए न केवल अस्पताल ले जाता है अपितु पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की बात भी करता है। उसी समय उसकी बात के बीमार होने की सूचना मिलती है। फलतः विमानतल जाते समय विधायक के गुंडे उसकी हत्या कर देते हैं।लेखिका इस घटना के माध्यम से मानवता विरोधी ताकतों के सामूहिक चरित्र का पर्दाफाश किया है। लेखिका ने ‘परिवर्तन बलि मांगता है’ -इस के साथ उपन्यास का समापन किया है। इस उपन्यास द्वारा राष्ट्र और समाज के मनोवैज्ञानिक उपचार का प्रयास किया गया है। लेखिका ने एक विकल्प यह भी सुझाया है कि यह किन्नरों पर ही छोड़ देना चाहिए कि वे स्वयं को पुरुष के सांचे में फिट पाते हैं या स्त्री के। उनके लिए तीसरे काॅलम की आवश्यकता ही क्या है? यह तीसरा काॅलम भी उन्हें तीसरी दुनिया के होने का अहसास कराएगा।लेखिका का मानना है कि हमें ऐसा प्रयास करना चाहिए कि इस पूरे वर्ग को वह अधिकार स्वतः ही मिल जाए जो देश के सामान्य और औसत नागरिक को प्राप्त है। यह तभी संभव है जब हम समाज के पूर्वाग्रह को बदल सकें।उसे समझा सकें कि किन्नर भी सामान्य मनुष्य है। वह कोई अलग अथवा विशिष्ट प्रकार का जीव है। ऐसा करके ही हम किन्नरों को मुख्य धारा में ला सकते हैं। इस तरह लेखिका ने न केवल एक किन्नर को उपन्यास का नायक बनाकर परंपरागत सैद्धांतिकी का अतिक्रमण किया है अपितु सामाजिक परिवर्तन का बेहद विश्वसनीय और व्यावहारिक मार्ग भी बतलाया है।
सारांश यह है कि पोस्ट बाॅक्स नंबर 203 नालासोपारा पत्रात्मक शैली का अपूर्व उपन्यास है। इसके अंत में विनोद की मां अखबारों में उससे घर लौटने का आग्रह करते हुए माफीनामा छपवाती है।पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। एक किन्नर की हत्या की खबर भी समाचार पत्रों में प्रकाशित होती है जिस पर हत्यारों ने इतने प्रहार किये हैं कि उसकी पहचान संभव नहीं। दरअसल विनोद का ऐसा त्रासद अंत पाठक को झकझोर कर रख देता है। इस तरह लेखिका यह संकेतित करती है कि विधायक सर्वशक्तिमान होते हुए भी एक किन्नर से डर जाता है। उसकी न्यायप्रियता से भयाक्रांत होकर हत्या करवा देता है। संक्षेप में सामाजिक मान्यताओं के प्रति गहरे आक्रोश तथा दुर्दम अपराजेयता के कारण यह उपन्यास जिस उत्कर्ष को छूता है वह एकांत विरल है।इन पत्रों में पठनीयता के साथ साथ निरौपचारिकता, आत्मीय ऊष्मा और संकल्प की दृढ़ता भी है। इसका महत्व इसलिए भी है कि हिंदी में किन्नर विमर्श आरंभ करने का श्रेय भी इसी उपन्यास को जाता है। यह उपन्यास मौलिकता, नवीनता, गहनता और प्रभावकारिता जैसे हरेक प्रतिमान पर विशिष्ट बन गया है। अपने प्रभावी शिल्प, प्रवाहपूर्ण भाषा, मनोवैज्ञानिक अंतर्द्वंद्व, वात्सल्य बोध तथा रचनात्मक सरोकारों के कारण ‘पोस्ट बाॅक्स नंबर 203 नालासोपारा’ हिंदी उपन्यास साहित्य का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह किन्नर जीवन के दुःख दग्ध संसार का महाकाव्यात्मक रूपायन है। यह भले ही गोदान, मैला आंचल अथवा लेखिका के ही आवां उपन्यास की तुलना में आकार-प्रकार में छोटा हो परंतु गहन और स्वाभाविक प्रस्तुति तथा व्यापक मानवीय सरोकारों के कारण ऐतिहासिक महत्व का अधिकारी है। हिंदी जगत ने जिस ढंग से इसे सराहा और विमर्श के केन्द्र में रखा है वह भी इसकी अंतर्वर्तिनी शक्ति का परिचायक है। लेखिका ने उपेक्षित मनुष्यता के चित्रण द्वारा मानवीय संवेदना का विस्तार किया है। इस दृष्टि से इसका महत्व असंदिग्ध है क्योंकि यह मानवीय संवेदना और करुणा का सीमाहीन विस्तार करता है।