- डॉ. इंद्रकुमार विश्वकर्मा
विजयादशमी, बुराई पर अच्छाई की जीत, अनैतिकता पर नैतिकता की विजय; अधर्म, अन्याय व अहंकार पर धर्म, न्याय व विनम्रता की विजय, इसी रूप में देखा जाता है इस पर्व को । आज पूरे देश में हर्षोल्लास का वातावरण है। घर के द्वार पर तोरण आदि बांधे जा रहे हैं, लोग एक-दूसरे को दशहरे की शुभकामनायें दे रहे हैं। लोग अपने खून-पसीने की कमाई से लाये गए वाहनों का अभिषेक कर उन पर फूल-मालाएँ चढ़ाकर उनकी पूजा-अर्चना कर रहे हैं। घरों में तरह-तरह के पकवान बनाए जा रहे हैं, जिसका सभी लोग अवश्य आनंद उठायेंगे। आज सभी लोग पूरे मन से इस त्यौहार को मनाएंगे।
बुराई पर अच्छाई की जीत..? बड़ा आश्चर्य होता है, इस बारे में सोचकर व आज की परिस्थिति को देखकर! यह बात सतयुग के लिए ही शोभनीय है, आज कलियुग में ऐसी आशा करना भी मूर्खता है। मानव में आज मानवता छोड़कर अन्य हर भाव दृश्यमान हो रहे हैं। हर एक व्यक्ति खुद को शक्तिशाली दिखाने की होड़ में लगा हुआ है। गरीब व असहाय, उच्च वर्ग के हर तबके द्वारा सताए जा रहे हैं। धर्म-जाति के नाम पर गृह युद्ध विराम लेने का कोई संकेत नहीं दे रहा है। लोग अपने स्वार्थ हेतु किसी भी श्रेणी तक जाने को तैयार हैं।
मध्यम वर्ग, जो अपनी सभ्य संस्कृति व ईमानदारी की मिसाल बना हुआ था, आज उसके कदम भी लड़खड़ा रहे हैं। पूरा विश्व आतंकवाद की भीषण आग में जल रहा है व तृतीय विश्वयुद्ध की कगार पर खड़ा है। असहाय औरतों व बच्चों को जिन्दा अग्नि के हवाले कर दिया जा रहा है। उनका हर तरह से शोषण किया जा रहा है। इंसान का खून धर्म के नाम पर पानी की तरह बहाया जा रहा है। स्थिति बड़ी भयावह है! यही तो है, बुराई पर अच्छाई की जीत..!
ये तो बड़ी समस्याएं हैं। छोटी-छोटी समस्याएँ भी आज जीवन-मृत्यु का कारण बनती जा रही हैं। गुंडा-गर्दी, मारपीट, छेड़खानी, बिजली व पानी की चोरी आज महानगरों में आम बात हो गई है। प्रशासन सब देखते हुए भी आँखें बंद किये हुए है। इन सब के बीच गरीब व असहाय व्यक्ति सब जुर्म सहे जा रहा है। सारे नियमों व कानूनों को सत्य साबित करने के लिए उसकी बलि चढ़ाई जा रही है। वह गरीब है, कौन सुनेगा उसकी..? न तो किसी बड़े नेता से उसकी पहचान है, ना ही वह आर्थिक दृष्टि से इतना सुदृढ़ है कि अपनी लड़ाई स्वयं लड़ सके। वह स्वीकार कर लेता है कि शोषित होने के लिए ही उसका जन्म हुआ है। बेचारा गरीब किसान, सबके लिए अन्न पैदा करता है, पर अपने बच्चों का अच्छी तरह से लालन-पालन कर सके, इतनी भी हैसियत नहीं होती उसकी।
समाज में गरीबों व असहायों पर हो रहे अन्यायों को देखकर हमारा ह्रदय व्याकुल हो जाता है। ऐसा लगता है कि कुछ करना चाहिए। पर वास्तविक परिवेश में अच्छाई पर बुराई की जीत ही नज़र आती है! रावण ने सतयुग में राक्षस के रूप में भी नैतिकता का पालन किया, लेकिन आज कलियुग के राम भी रावण की तुलना में नैतिकता के क्षेत्र में काफ़ी नीचे दिखाई पड़ते हैं!
सभ्यता व संस्कृति का निरंतर पतन होता जा रहा है। मानव-मूल्य घटते जा रहे हैं। लोग दिन-प्रतिदिन अधिक आक्रामक होते जा रहे हैं। आपसी सद्भाव व सहिष्णुता अदृश्य होती जा रही है। मनुष्य पूरे लोक का स्वामी हो गया है, पर मानवता के क्षेत्र में बिल्कुल दरिद्र! हर तरफ बुराई का ही वर्चस्व दिखाई दे रहा है!
जितना हर वर्ष रावण का पुतला जलाया जा रहा है, उतना ही रावण लोगों के मन में घर करता जा रहा है। रावण का पुतला हर वर्ष और बड़ा और ऊँचा होता जा रहा है, उतना ही बढ़ता जा रहा है लोगों के मन में पाप और उतनी ही बढ़ती जा रही है निजी स्वार्थ की ऊंचाई!
क्या कहें इसे.. ? बुराई पर अच्छाई की जीत.. या अच्छाई पर बुराई की विजयादशमी..!!