मध्यकालीन साहित्य का पुनर्पाठ और जांभाणी साहित्य विषय पर दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी सम्पन्न

जांभाणी साहित्य

मुंबई: हिन्दी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई और जांभाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर के संयुक्त तत्वावधान में ‘मध्यकालीन साहित्य का पुनर्पाठ और जांभाणी साहित्य’ विषय पर दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का शुभारंभ 29 जून को सांय चार बजे स्वामी सच्चिदानंद आचार्य ने जांभाणी साखी से किया। वेब गोष्ठी की भूमिका प्रस्तुत करते हुए जांभाणी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष स्वामी कृष्णानंद आचार्य ने अपने आशीर्वचन में कहा कि जाम्भाणी साहित्य 20000 पृष्ठों से अधिक है, उसका सम्यक मूल्यांकन होना अभी बाकी है। आचार्य ने मध्यकालीन साहित्य परिवेश और जांभाणी साहित्य के उद्भव और विकास  पर प्रकाश डाला। इस अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी  के संयोजक एवं मुंबई विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग हिंदी विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष डॉ.करुणाशंकर उपाध्याय ने अतिथियों का स्वागत करते हुए उनका परिचय दिया। उन्होंने इस वेब गोष्ठी की प्रस्तावना प्रस्तुत करते हुए कहा कि हिन्दी का मध्यकालीन साहित्य गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से अतिशय उत्कृष्ट तथा विपुल है। यह छः सौ वर्षों तक व्याप्त है। हमें वर्तमान उत्तर आधुनिक पाठ केंद्रित आलोचना पद्धतियों के आलोक में इस बहुस्तरीय एवं वैविध्यपूर्ण साहित्य का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करने की आवश्यकता है। इस काव्य में न केवल मध्ययुगीन समाज, संस्कृति, सामंती समाज की विसंगतियां, उच्चतम मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा तथा साहित्य की अधिकतम प्रवृत्तियां मौजूद हैं अपितु इसमें युग-युगांतर को प्रेरित, प्रभावित और रसमग्न करने की अपूर्व क्षमता भी है।  जांभाणी साहित्य रीतिकाव्य का प्रतिसंतुलन है जिसमें आधुनिक समस्याओं का भी चित्रण हुआ है। जाम्भोजी द्वारा रचित उनतीस नियम संपूर्ण मानव जाति की आचार संहिता हैं। उन्होंने उस समय पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए ऐतिहासिक कार्य किया।अतः जाम्भाणी साहित्य  के स्वाभाविक  स्थान और महत्त्व  को रेखांकित किया जाना अभी शेष है। साथ ही मध्यकालीन साहित्य के इतिहास में जांभाणी साहित्य को  यथोचित स्थान का न मिलना एक चिंता का विषय भी  बताया।

उद्घाटन सत्र  की अध्यक्षता कर रहे मुंबई विश्व विद्यालय के मानविकी संकाय के अधिष्ठाता प्रो. राजेश खरात ने मध्यकालीन साहित्य एवं जाम्भाणी साहित्य परंपरा पर विस्तार से प्रकाश डाला। जांभाणी साहित्य को हिंदी संत साहित्य की अमूल्य धरोहर भी बताया। उन्होंने कहा कि हमें मिलकर संत नामदेव, ज्ञानेश्वर तथा तुकाराम के साथ जाम्भोजी के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिए। उद्घाटन सत्र में बीज वक्तव्य देते हुए केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के निदेशक प्रो.नंदकिशोर पांडेय ने गुरु जाम्भोजी एवं उनके विचारों पर अनेक नए आयामों पर विचार रखे। प्रो.पांडेय ने गुरु जाम्भोजी  द्वारा  प्रणीत 29 धर्म-नियमो की विस्तार से व्याख्या की तथा मध्यकाल ही नहीं वर्तमान में भी उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया तथा इन्होंने जांभाणी साहित्य के राम भक्ति काव्य धारा और कृष्ण भक्ति काव्य धारा के संतकवियो की साहित्य साधना पर प्रकाश डालते हुए गुरु जांभोजी के पर्यावरणीय चिंतन  को विशेष रूप से  मध्ययुगीन साहित्य की अमूल्य निधि भी बताया।

विशिष्ट वक्ता के रूप में पोलैंड के वारसा विश्वविद्यालय के आई.सी.सी.आर.पीठ के अध्यक्ष प्रो सुधांशु शुक्ला ने वर्तमान वैश्विक महामारी के समय में गुरु जाम्भोजी की वाणी, उनके द्वारा प्रणीत धर्म-नियम पर  महत्वपूर्ण व्यक्तव्य दिया। साथ ही प्रो.शुक्ला ने जांभाणी संतकवियों की विस्तृत साहित्य शृंखला को मध्ययुगीन हिंदी संत साहित्य की अनुपम थाती बताते हुए जांभाणी साहित्य के आदि महापुरुष गुरु जांभोजी को हिंदी साहित्य के इतिहास में उचित स्थान न  मिलने  पर चिंता जताई।

उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि एवं उद्घाटक प्रो.केसरीलाल  वर्मा, कुलपति, पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर  ने गुरु जाम्भोजी के सिद्धांतों में जीवन की विधि को बताते हुए किस प्रकार जिया से जुगति अर मुवा ने मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। उन्होंने जंभवाणी में निहित मानवीय मूल्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला। धन्यवाद ज्ञापन देते हुए अकादमी के कार्यकारी अध्यक्ष प्रो. बनवारीलाल सहू ने मध्यकालीन साहित्य के महत्व और जाम्भाणी साहित्य को हिंदी साहित्य इतिहास की पांचवीं सगुणोन्मुखी निर्गुण भक्ति काव्य धारा को मुख्य धारा में  शामिल करने का आह्वान किया। सत्र का सफलतापूर्वक संचालन डॉ. सुरेंद्र कुमार बिश्नोई, हिसार ने किया। वहीं तकनीकी संयोजन डॉ लालचंद बिश्नोई, बीकानेर ने किया। उद्घाटन सत्र के अतिथियों की गरिमामयी उपस्थिति में इस अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी की ई-स्मारिका का विमोचन किया गया। जिसका संपादन डॉ  करुणाशंकर उपाध्याय, डॉ. पुष्पा विश्नोई एवं डॉ. रामस्वरूप ने किया है।

उद्घाटन सत्र के तुरंत बाद प्रारम्भ हुआ प्रथम तकनीकी सत्र

प्रथम तकनीकी सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मदन केवलिया ने  हिंदी साहित्य इतिहास के मध्यकालीन काव्य और परिवेश पर अध्यक्षीय उद्बोधन दिया। सगुण और निर्गुण भक्ति काव्य धारा, संत काव्य, धारा सूफी काव्य धारा और सगुणोन्मुखी निर्गुण भक्ति काव्य धारा तथा उत्तर मध्यकालीन परिवेश को   विस्तारपूर्वक रेखांकित किया। इस सत्र के विशिष्ट वक्ता प्रोफेसर पूरनचंद टंडन, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय ने भारतीय भाषाओं के साहित्य में भक्ति काव्य  धारा का महत्व एवं उसकी वर्तमान प्रासंगिकता  पर प्रकाश डालते हुए मध्यकालीन भक्ति साहित्य के परिप्रेक्ष्य में संत साहित्य की वैश्विक उपादेयता पर प्रकाश डाला। तमिलनाडु केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के  प्रोफेसर डॉ आनंद पाटील ने भारतीय चिंतन एवं ज्ञान परंपरा में गुरु जांभोजी की वाणी को स्पष्ट करते हुए सतगुरु के द्वारा बताए गए मार्ग के अनुसरण करने की आवश्यकता बताई। साथ ही शोध के साथ-साथ जांभाणी अध्ययन एवं पुनर्पाठ की भी आवश्यकता बताकर इसे पाठ्यक्रम में शामिल करने की आवश्यकता महसूस की। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ शैलेंद्र कुमार शर्मा ने जांभाणी साहित्य के पुनर्पाठ पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए गुरु जंभेश्वर जी के व्यक्तित्व को हिंदी भक्ति आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित किया।जंभवाणी के विभिन्न  संदर्भों से मानवीय, धार्मिक, आध्यात्मिक उत्कर्ष एवं पर्यावरणीय चेतना पर प्रकाश डाला। वैदिक वांग्मय के संदर्भ में भक्ति साहित्य और गुरु जी की वाणी को भी स्पष्ट किया। प्रोफेसर बाबूराम चौधरी बंशीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी  ने पाठालोचन समस्या  एवं प्रविधियां – ‘मध्यकालीन साहित्य के विशेष संदर्भ में’  विषय पर बहुत ही सारगर्भित व्याख्यान दिया। पाठालोचन परंपरा और  सिद्धांत को बहुत ही बारीकी से समझाते हुए जांभाणी साहित्य के पाठालोचन की आवश्यकता को  भी जरूरी माना। इस सत्र का संयोजन डॉ बिनीता सहाय, सहायक आचार्य, हिंदी विभाग मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई ने किया औपचारिक धन्यवाद डॉ. रामस्वरूप  जंवर जोधपुर ने ज्ञापित किया। इस वेब संगोष्ठी में विश्व के दस राष्ट्रों सहित संपूर्ण भारत के सौ के लगभग विश्वविद्यालय के साढ़े चार हजार प्राध्यापक एवं शोधार्थियों ने पंजीकरण करवाया है। उन्होंने ने  ज़ूम एप एवं फैसबुक  के माध्यम से वेबिनार में सहभागिता की।

जांभाणी साहित्य

द्वितीय दिवस के प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. किशनाराम विश्नोई ने भक्तिकालीन साहित्य और जांभाणी साहित्य विषय पर अध्यक्षीय उद्बोधन देते हुए भारतीय आध्यात्मिक चिंतन परंपरा और जांभाणी साहित्य को विभिन्न संदर्भों से पुष्ट किया। आपने जंभवाणी में निहित विभिन्न धर्म ,दर्शन एवं सर्वधर्म समभाव को रेखांकित किया। इस सत्र के विशिष्ट वक्ता डॉ विश्वजीत कुमार मिश्र, राजीव गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, अरुणाचल प्रदेश ने ‘मध्यकालीन साहित्य में युगबोध और जांभाणी साहित्य ‘विषय पर व्याख्यान दिया। डॉ मिश्र ने’ जंभवाणी और जांभाणी साहित्य’ में निहित युग बोध को विस्तारपूर्वक रेखांकित किया। पांडिचेरी विश्वविद्यालय, पुदुच्चेरी के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ जय शंकर बाबु ने  गुरु जांभोजी की वाणी को विभिन्न भारतीय भाषाओं   में अनुवाद करने  की आवश्यकता महसूस की। डॉ. दर्शन पांडेय ने भक्ति साहित्य और समाज दर्शन तथा जाम्भाणी  साहित्य में निहित आध्यात्मिक चेतना पर प्रकाश डाला और संत साहित्य के स्वाभाविक विकास के रूप में जाम्भाणी साहित्य के महत्व का भी रेखांकन किया।बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के सह आचार्य डॉ प्रभाकर सिंह ने जंभवाणी के वैश्विक परिदृश्य और पर्यावरण चिंतन  पर  गंभीर व्याख्यान दिया।इस सत्र का संयोजन डॉ. मनमोहन लटियाल, सचिव जांभाणी साहित्य अकादमी ने किया और धन्यवाद ज्ञापन हिन्दी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय की सहायक प्राध्यापक डॉ. अंशु शुक्ला ने  किया।

समापन सत्र की अध्यक्षता लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ .सूर्यप्रसाद  दीक्षित ने  जांभाणी साहित्य को हिंदी साहित्य के इतिहास के भक्ति कालीन साहित्य की परिधि में रखकर बहुत ही सारगर्भित उद्बोधन दिया। आपने भक्ति साहित्य में प्रयुक्त लोक भाषा , साहित्य और समाज पर गंभीरता से प्रकाश डालने के साथ ही गुरु जांभोजी की वाणी को जीवन चरित में  धारण करने की आवश्यकता पर भी बल दिया।

इस सत्र के विशिष्ट वक्ता डॉ.दलपत सिंह राजपुरोहित, सहायक आचार्य टेक्सस विश्वविद्यालय, आस्टिन ने हिंदी भक्ति आंदोलन में  गुरु जांभोजी एवं जांभाणी साहित्य के पुनर्पाठ पर बहुत ही महत्वपूर्ण एवं समन्वयवादी व्याख्यान दिया। डॉ.पुरोहित ने जांभाणी साहित्य के  अध्ययन – अनुशीलन के विभिन्न  नवीन आयाम विकसित करते हुए सम्पूर्ण जाभाणी साहित्य  के पुनर्पाठ एवं  हिंदी और राजस्थानी भाषा साहित्य के इतिहास को जांभाणी साहित्य के बिना अधूरा बताया। डॉ. नवीन चन्द्र लोहनी, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय,मेरठ ने मध्यकालीन परिवेश और काव्य विषय पर व्याख्यान देते हुए जाम्भोजी के प्रदेय को उद्घाटित किया। प्रो आनंद प्रकाश त्रिपाठी, हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर  ने समूचे मध्यकालीन साहित्य में सामाजिक समरसता और  गुरु जांभोजी की सामाजिक समरसता व लोक-मंगल को बहुत ही विस्तार से  रेखांकित किया। अंत में इस अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी के संयोजक डॉ करुणाशंकर उपाध्याय, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय मुंबई ने  इस अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के साथ ही  मध्यकालीन साहित्य का  पुनर्पाठ और जांभाणी साहित्य के समस्त मर्मज्ञ विद्वानों,प्राध्यापकों , शोधार्थियों एवं समस्त स्रोताओं के प्रति धन्यवाद् एवं आभार प्रकट किया।  डॉ उपाध्याय ने   जांभाणी साहित्य को मानवीय मूल्यों के विकास का साहित्य बताते हुए इस संपूर्ण साहित्य के अध्ययन – अनुशीलन एवं पुनर्पाठ की आवश्यकता पर बल दिया।  साहित्य में निहित समन्वय, सामंजस्य, सर्वहितकारी भावना,लोक मंगल व जांभाणी साहित्य के वैश्विक परिदृश्य पर  गंभीरतापूर्वक प्रकाश डाला। डॉ.उपाध्याय ने कहा कि संपूर्ण मध्यकालीन साहित्य को राष्ट्रीय साहित्य मानकर उसे समग्रता में देखने की आवश्यकता है। वर्तमान वैश्वीकरण के दौर में उसका नया पाठ तैयार करना हिंदी आलोचना के लिए बेहद जरूरी है।हमें वैचारिक आग्रह से मुक्त होकर इसमें अंतर्निहित विराट दृष्टिकोण, चराचर जगत के प्रति अभेदता, जल, जंगल, जमीन की चिंता, सामंती समाज की कुरीतियों एवं जड़ व्यवस्था पर प्रखर काव्यात्मक आक्रमण तथा यग-युगांतर तक मनुष्यता को प्रेरित – प्रभावित और रसमग्न करने वाली सामग्री के रचनात्मक स्रोतों को उद्भासित करना होगा। डॉ .उपाध्याय ने जाम्भाणी साहित्य अकादमी के समस्त पदाधिकारियों, सदस्यों , कार्यकर्ताओं , संपूर्ण जांभाणी समाज, आमंत्रित अतिथियों, भारतवर्ष के समस्त मीडिया एवं पत्रकार बंधुओं, हिंदी विभाग के समस्त सहयोगियों , शोधार्थियों, प्ररतिभागियों का हार्दिक आभार  माना। समापन सत्र का कुशल संयोजन डॉ. सचिन गपाट ,सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय मुंबई ने किया। इस दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में विश्व के दस राष्ट्रों सहित भारत के सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के सौ से अधिक विश्वविद्यालयों के साढ़े चार हजार प्राध्यापक, शोधार्थी, विधार्थी एवं साहित्य प्रेमियों ने ज़ूम एप एवं फेसबुक के जरिए सहभागिता की ।  इस कोरोना महामारी के काल में भारतवर्ष में आयोजित होने वाली वेबिनार/वेब संगोष्ठियों के इतिहास में  यह  सर्वाधिक पंजीकरण एवं सहभागिता वाली ऐतिहासिक वेब संगोष्ठी   मानी गई, जिससे इस विषय की महत्ता एवं वर्तमान प्रासंगिकता  स्वत ही स्पष्ट है। संपूर्ण कार्यक्रम का तकनीकी समन्वय डॉ  लालचंद बिश्नोई ने किया और  सह समन्वयक की भूमिका डॉ मनमोहन लटियाल ने संभाली। इस कार्यक्रम में  अकादमी के अध्यक्ष स्वामी कृष्णानंद जी आचार्य, स्वामी सच्चिदानंद आचार्य, श्रीमंहत मनोहरदास शास्त्री, डॉ.गोवर्धन राम आचार्य, डॉ. बनवारीलाल सहू, राजाराम धारणिया, डॉ आर के विश्नोई, डॉ. कृष्ण लाल, डॉ रामाकिशन, डॉ. इंद्रा विश्नोई, कृष्ण कांकड़, डॉ.पुष्पा विश्नोई, पृथ्वीसिंह बैनीवाल, उदाराम, डॉ. एडवोकेट संदीप धारणिया, बंशीलाल ढाका, आत्माराम पूनिया, विनोद जंभदास, केहराराम, ओमप्रकाश, इंद्रजीत धारणीया, महेश धालय, डॉ.भंवरलाल सहित अनेक गणमान्य संतो एवं लोगों ने सहभागिता की ।

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