जयशंकर प्रसाद हमारे समक्ष एक बहुआयामी साहित्यकार के रूप में आते हैं। इनका साहित्य गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से अतिशय उत्कृष्ट तथा विपुल है। उसने इन्हें जिस गहनतर एवं उच्चतर भावभूमि पर स्थापित किया है वहां पर वे डिगाने से डिगने वाले नहीं हैं, हिलाने से हिलने वाले नहीं हैं। वे सभी चीजों को प्रश्नवत लेने का अपार साहस लेकर अवतीर्ण हुए थे।उनमें कवित्व और सर्जना की अपरंपार शक्ति थी। इतिहास एवं पुराण पर उनकी जबर्दस्त पकड़ थी। वे प्रतिभा के क्षेत्र में अपना प्रतिद्वंदी नहीं जानते थे। उनका सृजनात्मक लेखन आधुनिक हिंदी साहित्य की सर्वोत्तम उपलब्धि है। वे बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ महाकवि और हिंदी के श्रेष्ठतम नाटककार हैं। इनकी कहानियाँ शिल्प का ताजमहल हैं और इनके उपन्यास समय और समाज के यथार्थ के अनछुए संदर्भों का उद्घाटन करते हैं। इनका निबंध लेखन और ऐतिहासिक ज्ञान भी विश्वस्तरीय है।
मेरा मानना है कि प्रसाद की बड़ी और कालजयी रचनाओं की सापेक्षता में उनकी आरंभिक तथा कतिपय लघु कलाकृतियों का सम्यक् विश्लेषण और मूल्यांकन नहीं हो सका है। इस दृष्टि से 1913 में अतुकांत अरिल्ल मात्रिक छंद में विरचित ‘करुणालय’ नामक पद्यनाटक विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसे हिंदी का पहला गीतिनाट्य होने का गौरव प्राप्त है।हालांकि अंग्रेजी में ब्लैंक वर्स तथा बांग्ला में अमित्राक्षर छंद में इस तरह की प्रभूत रचनाएँ मिलतीं हैं। इसकी भूमिका में स्वयं प्रसाद ने लिखा है कि ” हिंदी में भी इस कविता का प्रचार कैसा लाभदायक होगा—“। कहने का आशय यह है कि प्रसादजी ने वस्तुगत वैविध्य तथा शैल्पिक अनुप्रयोग के धरातल पर हिंदी साहित्य को विश्वस्तरीय बनाने के लक्ष्य से अपने रचनात्मक लेखन की दिशा सुनिश्चित की थी।
करुणालय के कथानक का स्रोत ऋग्वेद, ऐतरेय ब्राह्मण और गीता का कर्म-योग है। इस रचना में कवि वैदिक काल की यज्ञ-प्रथा में बलि-कर्म जैसे आनुष्ठानिक कार्यों की क्रूरता पर प्रखर आक्रमण करता है और धार्मिक कर्मकांडों की आड़ में पनपने वाले षडयंत्रों का पर्दाफाश करता है। वह एक छोटी-सी पौराणिक कथा को मानवीय आधार प्रदान करके एक जीवन-दर्शन की निर्मिति करता है। कवि ने ईश्वर को विश्व के आधार के रूप में निरूपित करते हुए अहिंसा एवं करुणा से परिपूर्ण मनुष्यता का संदेश भी दिया है। हिंसा का विरोध इस काव्यनाटक का मूल प्रतिपाद्य है। इसके आरंभ में प्रकृति के व्यापक और अनंत रमणीय सौंदर्य का अद्भुत रूपायन हुआ है। हरिश्चंद्र को प्रकृति एक सहचरी प्रतीत होती है जिसकी गतिशीलता उन्हें आगे बढ़ने का नव संदेश देती है।
इस पद्यनाटक के विभिन्न दृश्यों में हरिश्चंद्र,रोहित,विश्वामित्र, सुव्रता, अजीर्गत, शुनःशेफ इत्यादि के मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व तथा भावुकता के चित्रण द्वारा कथा-सूत्रों को गुम्फित किया गया है। इसमें नौका-विहार, आकाश में गर्जना, नाव का स्तब्ध होना, सबका शक्तिहीन होना, शुनःशेफ के बंधन का खुल जाना,सुव्रता और विश्वामित्र का अपने सौ पुत्रों के साथ चमत्कारिक ढंग से प्रवेश जैसे अतिनाटकीय दृश्य अद्भुत रोमांच का निर्माण करते हैं। अपनी दृश्य-परिकल्पना और वर्णनात्मकता के कारण हिंदी का यह प्रथम काव्यनाटक आज भी रंगकर्मियों के समक्ष चुनौती बना हुआ है।
आज महाकवि जयशंकर प्रसाद की पुण्यतिथि है लेकिन हिंदी जगत अपने इस सबसे विराट व्यक्तित्व के प्रति अतिशय उदासीन है। वह अपनी विरासत को समझने का प्रयास ही नहीं करता है। एक विशिष्ट विचारधारा के आलोचकों ने यथासंभव प्रसाद की उपेक्षा का षडयंत्र रचा है, परन्तु उनकी कालजयी कृतियों की आंतरिक शक्ति उन्हें बार-बार प्रासंगिक तथा लोकोपयोगी सिद्ध करतीं हैं। इस दृष्टि से यह काव्यनाटक पौराणिक कथा-जाल की स्थूलता में भी वर्गीय शोषण को उद्घाटित करने के लिए अविस्मरणीय बन गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हिंदी आलोचना अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए इसके महत्व का नये सिरे से प्रतिपादन करेगी। इसका नया पाठ तैयार करेगी।
- डॉ .करुणाशंकर उपाध्याय (प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मुंबई विश्व विद्यालय)