महाशिव : प्रतीकों के आईने में

महाशिव
  • अमलदार “नीहार”

आप सभी को शिव रात्रि की मंगलमय बधाई! महाकाल शिव पर बहुत लोगों ने बहुत कुछ लिखा है। शिव एक ऐसे देवता हैं, जिनकी उपासना आर्य और अनार्य, दोनों करते रहे हैं। ‘शिव’ लोकमंगल का प्रतीक है, निरपेक्ष, निर्विकार, निश्छल, निष्पाप। वह बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाने वाला देवता है, इसलिए आशुतोष है। महादानी, उदार, करुणा और प्रेम का औदात्य भाव शिव। वह वरदान देने पर आता है तो पात्रापात्र का विचार नहीं करता। अनेक असुर उससे वर पाकर स्वयं को त्रैलोक्यविजेता मान बैठते हैं, देवता उसका मुँह ताका करते हैं, इसलिए वह महादेव है, वह सर्वभूतभावन है। यह भी नहीं देखता कि उसकी ही शक्ति से कोई भस्मासुर बन सकता है उसी के लिए। न जाने कितने व्यक्ति, कितने महापुरुष, सन्तहृदय ऐसे हो सकते हैं, जिनमें शिवतत्व अधिक होता है। कभी-कभी कोई देश बदनीयती से किसी को ताकत या छूट दे देता है और वह उसी के लिए काल बन जाता है।

हमारा शिव कभी अपने किसी स्वार्थ के लिए किसी का अकल्याण नहीं करता। सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याणार्थ उसने कालकूट हलाहल को कण्ठ में धारण किया और नीलकण्ठ बन गया। हमारे बीच ऐसे कितने नीलकण्ठ मिल जायेंगे। आधुनिक ढंग से सोचें तो कह सकते हैं कि देव-दानव ने शिव को विष पिलाकर अपना उल्लू सीधा किया। शिव बहुत भोला है, इस दुनिया के छल-कपट और स्वार्थ-लोभ से बहुत दूर। समुद्रोद्भूत बाकी तेरह रत्नों में अधिकांश तो सबसे बड़े मायावी विष्णु ने झटक लिया, देवताओं ने ले लिया। कुछ वारुणी जैसी उन्मादक चीजें दैत्यराज बलि और उनके असुर साथियों को प्राप्त हुईं। समुद्रमंथन भी वास्तव में बहुत रहस्यमय प्रतीक है। इसे समझना चाहिए।
उत्तर भारत से दक्षिण तक नेपाल के पशुपतिमंदिर से रामेश्वरम् तक और पूर्व से पश्चिम तक चन्द्रेश्वर से सोमनाथ तक शिव की स्थापना भारत की एकता का ही प्रतीक है। महाकवि कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् के आरम्भ में जिस मंगलाचरण को प्रस्तुत किया है, उसमें अष्टमूर्तियों के स्तवन के रूप में महाशिव की और सम्पूर्ण भारत की ही वंदना है –

या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री
ये द्वे कालं विधत्तः श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः
प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः।।

मेरा मानना है कि मूलतः भारत की सांस्कृतिक आत्मा महाशिव की ही है, जिसे अपने दुष्ट आचरण से आज विकृत किया जा रहा है। भारत का चरित्र शिव जैसा ही होना चाहिए, जिसकी छाया में चूहा, साँप, मयूर, बैल, व्याघ्र एक साथ बिना बैर भाव के एक साथ रहते हैं।( हिन्दू-मुसलमान-सिक्ख-ईसाई-पारसी, जैन-बौद्ध या ब्राह्मण-शूद्र, स्पृश्यापृश्य के भेदभाव में आकण्ठ लिथड़े हुए लोग उस विराट शिव के शिवत्व को नहीं जान सकते।) अग्नितत्व है ललाट पर शिव के तो वहीं ओषधीष शीतल चन्द्रमा को भी स्थान है और जटाजूट में विराजमान निर्मल गंगा। शिव किसी राजमहल में नहीं, कैलास-कूट पर रहता है। वह औढर दानी है, पर उसे रंग-विरंगे परिधान की जरूरत नहीं, बल्कि वह तो अधनंगा रहता है–व्याघ्रचर्म धारण किये हुए। काल का भी काल महाशिव उद्भव-संस्थिति और महाप्रलय का देवता है। महाकवि वाणभट्ट ने अपने स्तवन में लिखा है–

रजोजुषे जन्मनि सत्ववृत्तये स्थितौ प्रजानां प्रलये तमःस्पृशे।
अजाय सर्गस्थितिनाशहेतवे त्रयीमयाय त्रिगुणात्मने नमः।।

वह चिता भस्म का लेपन करके भी पवित्र है, अर्थात् वह केवल विप्रसमाज का ही आराध्य नहीं, बल्कि चाण्डाल के लिए भी वह सबसे प्यारा और न्यारा देवता है। भूत-प्रेत, विकृत, कमजोर, लूले-लृगड़े, अन्धे, कुष्ठरोगी, सबसे प्रेम करने वाला। वह किसी से नफ़रत नहीं कर सकता। वह झूठ नहीं बोलता, बल्कि जो बोलता है, वही सत्य है। वह परम शक्तिसम्पन्न है(शक्तिस्वरूपा पार्वती का स्वामी है), फिर भी शान्त रहता है। वह शाश्वत तपस्वी और साधक की मुद्रा में रहकर वैसा बनने की सीख देता है। किरातवेश में युद्ध करके सबक सिखाया अर्जुन को कि आदिवासियों का भी सम्मान करो, चाण्डाल वेश में शंकराचार्य का पाखण्ड उसने नंगा कर दिया। वह अर्धनारीश्वर बनकर सम्पूर्ण जगत् को शिक्षा देता है कि ज़मीन-जायदाद और घर में ही पत्नी को आधा हिस्सा मत दो, बल्कि अपने शरीर, अपनी आत्मा में उसे बसाकर रखो, उसे कभी अपने से अलग मत करो। यदि शक्तिरूपा नारी को अलग कर दोगे तो शव बनकर रह जाओगे, शिवत्व समाप्त हो जायेगा। डाॅ. राममनोहर लोहिया ने राम, कृष्ण से अधिक महत्व दिया है शिव को। शिव वास्तव में भारत का मस्तिष्क है (होना चाहिए), राम इसकी भुजाओं में, आचरण की मर्यादा में, दीन-दुःखी और भूलुण्ठित समाज को गले लगाने वाला तो कृष्ण इसके हृदय में प्रेम और करुणा बनकर लहराता रहे। जो इस सांस्कृतिक आभा(भा) में रत है, वही भा-रत है, वही भारत है, वही हमें भी होना चाहिए। प्रतीकों से हमें बहुत कुछ सीखना चाहिए। उसके स्थूल आशय को ग्रहण करके तर्क-वितर्क करना वालिशता है, शिशुसुलभ व्यवहार है। उस महाशिव को समर्पित मेरा यह गीत – शिवस्तवन जरूर पढ़िए –

मंगल वर दो …

हे त्रिशूल-धर ! हे त्रिशूल-हर ! तन-मन अमल अनामय कर दो ।
प्रलय-प्रमयपति ! जीवन-लयगति ! सुधा-गरलयति ! मंगल वर दो ॥

शिव की कृपा बिना शव जीवन, दृगजल भीगी साँसे इन्धन,
सेज चितानल पल-पल दंशन, दुःख-दल वृश्चिक डंक निपीडन ।

हिला डमरु कर मन्त्र अमर वर दिग-दिगन्त, रव निर्भय वर दो ।
प्रलय-प्रमयपति ! जीवन-लयगति ! सुधा-गरलयति ! मंगल वर दो ॥

जटाजूट जलधार गंगधर ! नंग धडंग ! अनंग-विजय हर !
भाल कलाधर अकलुष शंकर, ग्रीवहार भुजगेश निरंतर ।

विषपायी परहित करुणामय ! अतुल कोष कन विश्वम्भर ! दो ।
प्रलय-प्रमयपति ! जीवन-लयगति ! सुधा-गरलयति ! मंगल वर दो ॥

हे विभूतिमय त्याग-तपोमय! सतगुण रजगुण तुमुल तमोमय !
महालूत जग तन्तुवाय तुम, तुझसे पोषण, तुझमे ही लय ।

निरख सकूँ तव अद्भुत लीला दिव्य विलोचन दृष्टि प्रखर दो ।
प्रलय-प्रमयपति ! जीवन-लयगति ! सुधा-गरलयति ! मंगल वर दो ॥

जहाँ न रवि-शशि-उडु विद्युतगति, बुद्धि-विहंगिनि दिशाकाश पर,
आशुतोष ! पत्रान्त-बिंदु ‘नीहार’ तनिक छू दे प्रकाश कर ।

जो अनीश अविकार शरण तव उसे न ऐसा दुःख-सागर दो ।
प्रलय-प्रमयपति ! जीवन-लयगति ! सुधा-गरलयति ! मंगल वर दो ॥

[इंद्रधनुष (तृतीय रंग) -अमलदार “नीहार” ]

इस पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया दें