डॉ. जितेन्द्र पाण्डेय | NavprabhatTimes.com
संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है । अपार शब्द-सम्पदा से लैस यह भाषा आज सबकी ज़रूरत बनती जा रही है । नितांत वैज्ञानिक होने के नाते इसे कम्प्यूटर के लिए भी सर्वथा उपयुक्त माना गया । सम्भवतः यही कारण होगा जब ग्रामोफोन पर मैक्समूलर द्वारा बोला गया संस्कृत का श्लोक सबसे पहले रिकॉर्ड किया गया । दुनिया को “श्रेष्ठ बनने का पाठ” सिखाने वाली संस्कृत भाषा ही है । वेद की एक ऋचा में लिखा गया है – “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” । अर्थात् “पूरे विश्व को आर्य बनाएं” । यहाँ “आर्यम्” कोई जातिसूचक शब्द नहीं है बल्कि इसका अर्थ “श्रेष्ठ” है । यहीं से “वसुधैव कुटुम्बकम्” (पूरी पृथ्वी ही परिवार है) की भावना भी जन्म लेती है ।
इसी “आर्य” शब्द का प्रयोग “आर्यावर्त” के लिए भी किया गया है, जो भारत का प्राचीन नाम है । यहाँ “आर्यावर्त” दो शब्दों से मिलकर बना है – आर्य+आवर्त । “आर्य” का अर्थ “श्रेष्ठ” और “आवर्त” का अर्थ “घिरा हुआ” । अर्थात् ऐसा भूखंड जो “श्रेठ लोगों से घिरा हो” । मतलब…. ऐसी भूमि जहाँ श्रेठ लोग रहते हों । इस संदर्भ में मुझे “INDIA” शब्द का भी विश्लेषण ज़रूरी लगता है (हलांकि विषय-विस्तार का भय है) । अंग्रेजी के अधिकांश सकारात्मक शब्द ऐसे हैं जिसके पहले “In” जोड़ने से उनके अर्थ नकारात्मक हो जाते हैं । मसलन, In+Discipline=Indiscipline, In+ Digestion=Indigestion, In+Correct= Incorrect, In+Experience=Inexperience आदि । अब पाठक सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि हमारे देश का नाम “India” क्यों रखा होगा ? अब आइए मूल विषय की बात करते हैं ।
संस्कृत ज्ञान का अक्षय भंडार है । शांति और सौहार्द इसके मूल में हैं । राष्ट्र के संतुलित और व्यवस्थित संचालन के लिए ‘समभाव‘ और ‘सहकारिता‘ जैसे दो खूबसूरत सूत्रों को इस तरह बताया गया है –
सहनाववतु सहनौ भुनक्तु, सह वीर्यम् करवा वहै ।
तेजस्विनामधितमस्तु, मा विद्विषा वहै ।
इस मंत्र में किसी से द्वेषभाव न रखने के लिए कहा गया है किंतु साथ ही साथ चलने, साथ में भोग करने और साथ में पराक्रमी होने की बात की गई । आखिर मंत्रकर्ता को “पराक्रम” शब्द का प्रयोग क्यों करना पड़ा ? यह इसलिए कि कमज़ोर राष्ट्र अपनी रक्षा नहीं कर सकता । अतः दुष्टों के दमन के लिए पराक्रमी होना आवश्यक है । मात्र दुष्टों के दमन के लिए ही नहीं बल्कि सज्जनों की रक्षा के लिए भी ‘वीर्यवान’ होना ज़रूरी बताया गया है- “सद्र्क्षणाय, खल निग्रहणाय” ।
सदैव से समाज में दैवीय और आसुरी शक्तियां सक्रिय रही हैं । हाँ, इनकी उपस्थिति कम या अधिक अवश्य रही है किंतु विलुप्त नहीं । भारत का स्वर्णिम काल “वैदिक काल” को माना जाता है, जहाँ दूध, दही, घी, मधु, स्वर्ण आदि प्रचुर मात्रा में थे । भारत अपनी समृद्धि और ज्ञान के कारण ‘विश्वगुरु’ के ऊँचे पद पर आसीन था । उस समय जनभाषा के रूप में संस्कृत को मान्यता मिली थी । आज विश्व-बैंक के कर्ज तले कराहते भारत के कुछ बुद्धिजीवी संस्कृत को “मृतभाषा” के रूप में देखते हैं (यह उनके मृत विचारों का एक उदाहरण हो सकता है) । ‘मृत’ तो कोई भी वस्तु नहीं होती, उसका रूपांतरण हो जाता है । बंजर भूमि पर घास इत्यादि अंकुरित नहीं होते किंतु यदि उस जमीन पर श्रम किया जाय तो उसे शस्य श्यामला बनाने में देर नहीं लगती । संस्कृत भाषा के संदर्भ में यह मिथ्या भ्रम फैलाया गया कि यह मृत भाषा है । तर्क दिया गया कि इसके भाषा-भाषी नहीं हैं । हलांकि आज भी भारत में लगभग आधा दर्जन गांव ऐसे हैं जहां संस्कृत को जनभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है । आज भी भारतीय भाषाओं में आधे से अधिक शब्द संस्कृत से आते हैं और हम न चाहते हुए भी दैनिक जीवन में संस्कृत शब्दों का इस्तेमाल करते हैं । मेरा तर्क यह है कि भारतीय भाषाओं की धमनियों में रक्त की तरह बहने वाली संस्कृत को किस तर्क के आधार पर मृत घोषित कर दिया गया ? यह तो उसी प्रकार हुआ जैसे ‘आर्यावर्त’ को ‘इंडिया‘ मान लिया जाय ।
संस्कृत भाषा में ज्ञान के साथ विनम्रता है । साथ ही ‘विवेक’ और ‘पराक्रम’ को अधिक श्रेय दिया गया है । आज इसी ‘विवेक’ और ‘पराक्रम’ को शिक्षा के साथ जोड़ना अनिवार्य हो गया है । ‘विवेक’ से ही हम सही-ग़लत की पहचान करते हुए फलदायक निर्णय ले सकते हैं । इसके अभाव में आज का विद्यार्थी सफलता का शॉर्टकट ढूंढ़ता है । इसी क्रम में वह एक तरफ अपने हाथ में बंदूक थाम लेता है तो दूसरी तरफ आत्महत्या जैसे घिनौने रास्ते पर चलकर अपनी जीवन लीला समाप्त करता है । हाल ही के सर्वेक्षण से पता चलता है कि हिंदुस्तान के युवा वर्ग में आत्महत्याओं में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है । दूसरी तरफ पराक्रम की कमी होने के कारण अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, शोषण आदि के विरोध का साहस समाप्त हो जाता है । मनुष्य स्वकेंद्रित होता जाता है । आतंक बढ़ता जाता है । किसी भी राष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था में ‘विवेक’ और ‘पराक्रम’ की कमी होना बड़ा ही घातक है । गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो जाती है । दुश्मनों के पैरोकार देश में सिर उठाने लगते हैं ।
यदि किसी भी देश को विकसित, ताकतवर किंतु विश्वगुरु बनना है तो उसे सबसे पहले अपने नागरिकों को तैयार करना होगा । शिक्षा ही इसका सबसे कारगर उपाय है । हम जो कुछ भी शिक्षा की धरती पर बोते हैं, वही देश काटता है । संस्कृत भाषा में ही वह क्षमता है जो धरती के हर कोने को स्वर्ग बना सकती है । यहाँ प्रतियोगिता नहीं बल्कि सबको साथ लेकर चलने की उदात्त भावना है । आतंक नहीं भद्रता है । यदि शांति की राह में ‘भद्रता’ से काम नहीं चलता तो ‘रुद्रता‘ का अंतिम विकल्प भी यहीं मिलता है । इसी भाषा में अश्विनी कुमार जैसे वैज्ञानिक, धन्वन्तरी जैसे कुशल चिकित्सक, कणाद जैसे अणु-अन्वेषी, विश्वकर्मा जैसे आर्किटेक्ट, आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे गणितज्ञ, चाणक्य जैसे अर्थशास्त्री, बड़े-बड़े खगोलशास्त्री और भूगर्भवेत्ता मौजूद हैं । ज़रूरत है इन्हें पूज्य ग्रन्थों से बाहर निकालकर अपनी शिक्षा व्यस्था से पुनः जोड़ेने की ताकि एक बड़े ज्ञान-विज्ञान के अंतराल की क्षतिपूर्ति की जा सके । अस्तु ।