महाकवियों के राम : वाल्मीकि की दृष्टि से

( पहली कड़ी )

Valmiki
Karunashankar Upadhyay
डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय

रामायण और महाभारत भारतवर्ष के सांस्कृतिक व्यक्तित्व के निर्धारक आर्ष महाकाव्य हैं। भारतीय समाज के भावनात्मक और बौद्धिक निर्माण में इन ग्रंथों की युगांतरकारी भूमिका है। वर्तमान नेता युग में जब राम के व्यक्तित्व की महिमा को धूमिल करने के आसुरी प्रयास हो रहे हों तथा दूसरी ओर अयोध्या में राम का विश्वस्तरीय मंदिर बनकर तैयार है तब त्रेतायुग के राम का स्वरूप- विश्लेषण समय की मांग हो जाती है।राम शब्द का शाब्दिक अर्थ है — जिसमें सब रम जाएं अथवा जिसमें सारे देवता रमण करें या जो हर कहीं रमा हुआ है वही राम हैं। ऐसा अनंत रमणीय और विराट व्यक्तित्व जो जाति, पंथ, सम्प्रदाय, वर्ग आदि मानव निर्मित सीमाओं का अतिक्रमण करके चराचर जगत के कल्याण का मानक उपस्थित करता है वही राम हैं। वे भारतीय जनमानस के चिरंतन लोकनायक हैं। वे सदा- सर्वदा से भारतीय लोकमन में रमे हुए हैं। इस संदर्भ में भारतवर्ष के श्रेष्ठतम आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ठीक ही लिखा है कि,”“राम के बिना हिन्दू जीवन नीरस है – फीका है।  यही रामरस उसका स्वाद बनाए रहा और बनाए रहेगा। राम ही का मुख देख हिन्दू जनता का इतना बड़ा भाग अपने धर्म और जाति के घेरे में पड़ा रहा। न उसे तलवार काट सकी, न धन-मान का लोभ, न उपदेशों की तड़क-भड़क।” संस्कृत के अलावा समस्त भारतीय एवं वैश्विक भाषाओं में इनके प्रभाव संदर्भ एवं प्रेरणा से अनेक ग्रंथों की रचना हुई है।

जब हम महाकवियों द्वारा चित्रित राम के स्वरूप का विश्लेषण करते हैं तो हमारा ध्यान सबसे पहले आदि कवि वाल्मीकि पर जाता है। वाल्मीकि मानव मूल्यों के आदि विधाता हैं। वे ब्रह्मा के दसवें पुत्र प्रचेता की संतान थे। रामायण के आरंभ में ही आदिकवि ने दृढ़तापूर्वक प्रश्न किया है कि -” चारित्रेण च को युक्त: अर्थात जीवन में चरित्र से युक्त कौन है ? वाल्मीकि की जीवन दृष्टि चरित्र योग की जिज्ञासा है। वे चरित्रवान व्यक्तित्व के संधान और प्रतिष्ठा के लिए रामायण का सृजन करते हैं। मनुष्य के सारे गुण चरित्र की व्याख्या के अंतर्गत समाहित हैं। वाल्मीकि चरित्र और धर्म को समानार्थी मानते हैं। अत: वे को धर्म का साकार विग्रह बतलाते हुए लिखते हैं कि, “
रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्य पराक्रमः |
राजा सर्वस्य लोकस्य देवानाम् इव वासवः ||
  ३-३७-१३|| रामायण, बालकाण्ड।
वाल्मीकि ने राम के 16 अलौकिक गुणों का वर्णन किया है। इन गुणों की चर्चा करते हुए वे नारद से कहते हैं कि,
 ” इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनै: श्रुत:।
  नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान धृतिमान वशी।।8
 बुद्धिमान नीतिमान् वाग्मी श्रीमान शत्रु निबर्हण:।
 विपुलांसो महाबाहु: कम्बुग्रीवो महाहनु:।।9
  स च सर्वगुणोपेत: कौसल्यानन्दवर्धन: ।
  समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव।।”10
अर्थात इक्ष्वाकु वंशमें उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं, जो लोगों में राम-नाम से विख्यात हैं।वे ही मन को वश में रखने वाले, महाबलवान्, कान्तिमान्, धैर्यवान् और जितेन्द्रिय हैं। वे बुद्धिमान्, नीतिमान,कुशल वक्ता, शोभायमान तथा शत्रुसंहारक हैं। उनके कंधे चौड़े और भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं। ग्रीवा शङ्खके समान और ठोढ़ी मांसल (पुष्ट) है। ‘उनका वक्षस्थल चौड़ा तथा धनुष बड़ा है। उनके गले के  नीचे की हड्डी (हँसली) मांस से छिपी हुई है। वे शत्रुओं का दमन करनेवाले हैं।उनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं, मस्तक सुन्दर है, ललाट भव्य और चाल मनोहर है।उनका शरीर मध्यम और सुडौल है, देहका रंग चिकना है।वे बड़े प्रतापी हैं। उनका वक्षःस्थल भरा हुआ है और आँखें बड़ी-बड़ी हैं। वे अतिशय शोभायमान और शुभलक्षणों से सम्पन्न हैं। वे ‘धर्म के ज्ञाता, सत्यप्रतिज्ञ तथा प्रजाके हित- साधन में लगे रहने वाले हैं। वे यशस्वी, ज्ञानी, पवित्र, जितेन्द्रिय और मन को एकाग्र रखने वाले हैं। प्रजापति के समान पालक, श्रीसम्पन्न, शत्रु- विध्वंसक ,जीवों तथा धर्म के रक्षक हैं।स्वधर्म और स्वजनों के पालक, वेद-वेदांगों के राम तत्त्ववेत्ता तथा धनुर्वेद में प्रवीण हैं। वे अखिल शास्त्रों के तत्त्वज्ञ, स्मरणशक्ति से युक्त और प्रतिभा सम्पन्न हैं। अच्छे विचार और उदार हृदयवाले वे श्रीरामचन्द्रजी बातचीत करने में चतुर तथा समस्त लोकों के प्रिय हैं। जैसे नदियाँ समुद्रमें मिलती हैं, उसी प्रकार सदा रामसे साधु पुरुष मिलते रहते हैं। वे सब में समान भाव रखनेवाले हैं, उनका दर्शन सदा ही प्रिय मालूम होता है। सम्पूर्ण गुणों से युक्त वे श्रीरामचन्द्रजी अपनी माता कौसल्या के आनन्द बढ़ाने वाले हैं, गम्भीरता में समुद्र और धैर्य में हिमालयके समान हैं।वे विष्णु भगवान् के समान बलवान् हैं। उनका दर्शन चन्द्रमा के समान मनोहर प्रतीत होता है। वे क्रोध में कालाग्नि के समान और क्षमा में पृथिवी के सदृश हैं, त्याग में कुबेर और सत्य में द्वितीय धर्मराज के समान हैं।
वाल्मीकि राम को शरीरधारी धर्म की संज्ञा देते हैं और उनकी प्रशंसा में धर्मज्ञ, धर्मनिष्ठ और धर्म भृतांवर जैसे विशेषण देते हैं। उनके अनुसार चरित्रवान मनुष्य ही जीवन को मूल्यवान और आकर्षण की वस्तु बनाता है। चरित्र ही धर्म है। राम ऐसे चरित्रवान पुरुष हैं जिनका शारीरिक और नैतिक विकास रथ के दो पहियों की तरह साथ- साथ हुआ है।यह भी चिंतनीय है कि जो राम मानवीय मूल्यों के महासमुद्र हैं उनका आहार भी नितांत सात्विक होगा।
वाल्मीकि ने रामायण के अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड और सुंदरकाण्ड में राम के सात्विक आहार का चित्रण किया है। राम अयोध्याकाण्ड में कौसल्या माता से आज्ञा लेते हुए कहते हैं कि,
“चतुर्दश हिंद वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने।        
कनदमूलफलैर्जीवन् हित्वा मुनिवदामिषम्।29।
अर्थात मैं राजभोग्य वस्तु का त्याग करके मुनि की भाँति कन्द, मूल और फलों से जीवन निर्वाह करता हुआ चौदह वर्षों तक निर्जन वन में विहार करूंगा।इसी तरह अरण्यकाण्ड में शूर्पणखा अपने भाई खर – दूषण से कहती है कि ,” फल और मूल ही उनका भोजन है। वे जितेन्द्रिय, तपस्वी और ब्रह्मचारी हैं। दोनों ही राजा दशरथ के पुत्र और आपस में भाई- भाई हैं। उनके नाम राम और लक्ष्मण हैं। यह भी अत्यंत विचारणीय है कि राक्षसी होकर भी शूर्पणखा जिस राम को शाकाहारी होने का प्रमाण- पत्र दे रही है उसी राम के आजकल के भ्रष्ट नेता मांसाहारी कहने का घृणित प्रयास करते हैं। शूर्पणखा कहती है कि–
     ” फलमूलाशनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ।
      पुत्रौ दशरथस्यास्तां भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।।”
इसी तरह सुन्दरकाण्ड में जब हनुमान माता सीता से मिलते हैं तो कहते हैं ,” कोई भी रघुवंशी न तो मांस खाता है और न मधु का ही सेवन करता है, फिर भगवान राम इन वस्तुओं का सेवन क्यों करते ? वे सदा चार समय उपवास करके पांचवे समय शास्त्रविहित जंगली फल- फूल और नीवार आदि भोजन करते हैं।इस तरह वाल्मीकि के राम धर्म की साकार प्रतिमा हैं और उनका यही संदेश है कि असत्य ,अन्यान्य, अधर्म और मूल्यहीनता कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों परन्तु उन्हें सत्य, न्याय, धर्म और मूल्य के समक्ष हारना पड़ता है। यही कारण है कि आज भी वाल्मीकि के राम संपूर्ण मनुष्यता के लिए अनुकरणीय आदर्श बने हुए हैं।
         
डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय 
  वरिष्‍ठ प्रोफेसर, हिंदी विभाग, 
  मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई-400098
   मोबाइल – 9167921043
 

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