कुरुक्षेत्र में गाय का दूध, हिंदुत्व और ज्योतिसर का ज्ञान

कुरुक्षेत्र

रामजी यादव,

कुरुक्षेत्र अगर बहु-प्रतीक्षित हो और आप वहां एक सुरुचिसंपन्न ढंग से संजोई हुई मिथकीय विरासत की उम्मीद कर रहे हों, तो निश्चित ही आपको गहरी निराशा होगी. विरासत के नाम पर एक ढोंग के सिवा यहाँ कुछ भी नहीं मिलेगा. यह तो शहर के पर्यावरण की बात है और आप उसे सामान्यतया नज़रन्दाज भी कर सकते हैं लेकिन लोगों के जेहन में जो कूड़ा भर गया है उसकी सड़ांध देर तक पीछा करती रह सकती है.

मथुरा , वृन्दावन और गोकुल से गुजरते हुए मनोज के मन में यहाँ आने की गहरी आसक्ति पैदा हो चुकी थी और दिल्ली-चंडीगढ़ के बीच यह टीम का एक महत्वपूर्ण रुकाव था . दोपहर तक़रीबन बारह बजे जी टी रोड से बाएं मुड़कर हम कुरुक्षेत्र के लिए मुड़े . सबसे पहले तो मनोज ने किलोमीटर-स्टोन पर बैठकर फोटो खिंचाई जो अब तक उनके सबसे बड़े शौक के रूप में हम देख चुके थे. असल में उनके भीतर एक उर्जावान अभिनेता का इंस्टिंक्ट है लेकिन वे अपने को डायरेक्शन और चित्रकारी जैसे वाहियात कामों में उलझाये हुए हैं जो उनकी विधा नहीं हैं. मुझे लगता है कि मनोज जिस कृषि-संस्कृति की पैदावार हैं उसने उन्हें अभिनय का अभूतपूर्व गुण दिया है. उनमें अभिनय की एक नैसर्गिक प्रतिभा है और मेरा विश्वास है कि साल भर की मेहनत से वे अपने को दुनिया के अच्छे अभिनेताओं की श्रेणी में ला सकते हैं लेकिन इसके लिए कड़ी मेहनत और पक्के इरादे के सहित उन्हें स्वतःस्फूर्त अनुशासन के साथ एक सच्चे मित्र की जरूरत है.

खैर , कुरुक्षेत्र के मुख्यद्वार पर गीता का उपदेश देते कृष्ण और मोहग्रस्त अर्जुन की एक ब्रोंज प्रतिमा थी जो जाने-माने मूर्तिकार राम सुतार ने बनाई है . हालाँकि जब यह बनाई जा रही थी तो खासी लम्बी-ऊँची दिखती थी लेकिन आज मुख्यद्वार पर उसमें वह भव्यता नहीं थी.

हम चलते चले गए और दस-बारह किलोमीटर दूर ब्रह्म-सरोवर पहुंचे. यह कई वर्ग किलोमीटर में फैला एक विशाल सरोवर है जिसका पानी इतना साफ है कि उसमें दूर तक बड़ी-बड़ी मछलियाँ दिखाई देती रहती हैं. इसके मिथकानुसार महाभारत के अंतिम दिन दुर्योधन इसी के अन्दर छिप गया था और भीम के ललकारने पर बाहर आया. मुझे समझ में नहीं आता कि बज्र की देह पाने के बावजूद वह इतना डरपोक क्यों हो गया कि तालाब में जा छिपा ? क्या सब लोगों को अपनी आँखों के सामने मारे जाते देखकर वह अकेला , असहाय और भयग्रस्त हो गया था ? लेकिन इन सबके बावजूद उसमें इतना अभिमान था कि तालाब से निकलकर लड़ने भी लगा ! और जिस तरह की दुर्धर्ष लड़ाई का वर्णन है उसमें दुर्योधन ने भीम को जिस तरह नाकों चने चबवाया क्या वह किसी डरे हुए का पराक्रम हो सकता है ? तो क्या महाभारतकार ने पांडवों की बहादुरी को ग्लोरीफाई करने के लिए झूठा तथ्य गढ़ा है ? अगर बारीकी से देखा जाय तो महाभारत अनेक झूठी बातों का पुलिंदा ही है , बेशक इस झूठ में पुरुष-श्रेष्ठता के कई महान और घृणित प्रयास निहित हैं और स्त्रियाँ सबसे कमजोर जीव हैं . उन्होंने आँखों पर पट्टी बाँधने , सती होने, यौन-शेयरिंग करने और मुसलसल गुलामी और बलात्कार झेलने के अलावा किया ही क्या है ? भारतीय संस्कृति में यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता नामक कथन और महाभारत को दुनिया का महानतम ग्रन्थ मानने के गौरव के बीच जो कंट्रास्ट है वह यही साबित करता है कि भारत में दार्शनिक और बौद्धिक ईमानदारी दो कारणों से नहीं है. एक तो चातुर्वन्य के प्रति दुराग्रह और दूसरे श्रम और स्वाभिमान के प्रति हिकारत . इसलिए मुझे तो लगता है भारत का सारा पोथावाद ही फर्जी है.

बहरहाल , ब्रह्मसरोवर का बंधीकरण देखकर प्रथमदृष्टया यह लगता है कि यह एक बड़ी परियोजना का हिस्सा है . वहां अलग-अलग मौकों पर मेला लगता है फ़िलहाल यह ब्राह्मणों के कब्जे में है . इसकी विशाल बारादरी अद्भुत फीलिंग देती है . तालाब के गेट पर मनोज ने यहाँ फोटोग्राफी के कई एंगल फिक्स किये और फोटोग्राफी हुई लेकिन मज़ा नहीं आया . गाड़ियाँ और अन्दर को बढीं . कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय से बिलकुल सटे आर्य समाज गुरुकुल में पहुंचे . यहाँ संस्कृत अध्यापक नंदकिशोर आर्य से मुलाकात हुई और थोड़ी ही देर में उन्होंने गाय का मृदु दुग्ध हमारे लिए मंगवाया . फिर वे और मनोज आगे आचार्य से मिलने चले गए.

आर्य समाज तत्कालीन पंजाब जो उस समय पेशावर से दिल्ली तक विस्तृत था के लिए सबसे क्रांतिकारी सामाजिक आन्दोलन था जिसने अपनी पहुँच बनियों और किसानों तक बनाई और सबको एक सूत्र में बाँध दिया . यह आर्य समाज ही था जिसने उस समय लगभग अछूत और घृणित समझे जाने वाले जाटों को एक स्तरीय सामाजिक सम्मान दिलाते हुए उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा . हरियाणे में भूबंदोबस्ती की मौजाबारी प्रथा थी . अधिसंख्य जाट जमीन के मालिक नहीं थे बल्कि बंटाई पर खेती करते थे . खेती का मालिकाना उन लोगों के हाथ में था जो मुग़लसाम्राज्य और बाद में अंग्रेजों के ज्यादा नज़दीक थे. अभी भी ऐसे अनेक परिवार हैं जिन्होंने प्रोनोट लिखकर जमीन जाटों को दी थी . प्रोनोट उनकी आलमारियों में बंद है जबकि मालिकाना बदल चुका है . आज जाट एक नई किस्म की बर्बरता से भरे हुए हैं . ऑनरकिलिंग और झज्झर-गोहाना जैसे दलित विरोधी काण्ड उनकी नई विशेषताएं हैं . आर्य समाज भी आज उनको किसी रूप में प्रभावित करने में विफल प्रतीत होता है. किसी ज़माने में अध्यात्म को सामाजिकता और सत्यार्थ का हिस्सा बना देने वाले आर्य समाज के पास स्वामी श्रद्धानंद जैसे महान बलिदानी की विरासत है जिन्होंने सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए अपने जान की बाजी लगा दी थी . लेकिन आज आर्य समाज के पास पोंगापंथ और उग्र हिंदुत्व के अलावा शायद ही कोई विशिष्ट चीज हो .

लगभग पौन घंटे के इंतज़ार के बाद मनोज ने गाड़ी सहित गुरुकुल के उस हिस्से में आने को कहा जहाँ कक्षाएं चलती हैं . वहीँ करीब तीस विद्यार्थियों को इकठ्ठा कर लिया गया था . ये सभी प्रथमा से लेकर आचार्य तक के विद्यार्थी थे . मनोज ने अपनी परिचर्चा शुरू की और विद्यार्थियों से सिनेमा के बारे में पूछने लगे . अधिकतर ने अनभिज्ञता ही ज़ाहिर की . कुछेक ने कुछ फिल्मों का नाम लिया . मनोज कुरेदकर पूछते और छात्र अपने-अपने हिसाब से जवाब देते . मंच पर एक आचार्य और अध्यापक नंदकिशोर आर्य मौजूद थे . आचार्य जी जर्मनी और सिंगापूर समेत कई देशों में स्थित आर्य समाज गुरुकुलों में वर्षों तक पढ़ा चुके हैं . अंततः उनसे निवेदन किया गया कि वे अपने अनमोल विचार रखें . उन्होंने चालीस मिनट वक्तव्य दिया . धर्म , आध्यात्म और वेदांत पर बोलते रहे . भाषण काफी बोझिल होता जा रहा था और उसमें कोई विशेष बात न थी लेकिन सुनना तो था ही . सुन लिए . अब बारी नंदकिशोर आर्य की थी . उन्होंने अपेक्षाकृत संक्षेप में बातें की . फिर विद्यार्थियों ने मन्त्रगान किया . वह भी कम लम्बा न था . हर स्टेंजे के बाद लगता कि अब पूरा हुआ तब तक अगला भी शुरू हो जाता . सैंड क्लॉक भेंट कर हमारी टीम बाहर निकली .

आखिरी रस्म के तौर पर पीपल के पौधे में मिट्टी डालना था और गुरुकुल की जैविक खाद से रची मिट्टी की वहां कमी न थी. आचार्य जी ने शुरुआत की तो विद्यार्थियों ने भी मिट्टी डाली. नंदकिशोर आर्य हमें फिर कांफेरेंस रूम में ले गए और एक बार फिर गाय का दूध मंगाया. इसी बीच में वहां के प्रशासनिक विभाग में काम करनेवाले एक सज्जन आकर हमारे सामने बैठ गए. परिचय होते ही वे अपने ज्ञान से हमें नवाजने लगे. दो ही मिनट में लगा हम उमा भारती , ऋतम्भरा और प्रवीण तोगड़िया के मिले-जुले संस्करण को सुन रहे हैं. वेदों से होते हुए वे शस्त्र की वकालत करने लगे और उनके मुंह से निकला कि जिस देश के पास शस्त्र नहीं वह अपने शास्त्रों की रक्षा नहीं कर सकता . फिर भारत में धर्म और शास्त्रों पर बढ़ते खतरे की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि मुसलमानों से इस देश को और हिन्दू धर्म को बचाना ही पड़ेगा . उन्होंने कहा कि हमारे भीतर किलिंग इंस्टिंक्ट होना चाहिए. इज़राइल की तरह भारत में अगर किलिंग इंस्टिंक्ट होगा तभी बेहतर भारत को बनाया जा सकता है. गुरुकुलों में ऐसी शिक्षा की ज़रुरत है.

उनका वक्तव्य नाकाबिले बर्दाश्त होता जा रहा था. गाय के दूध की मृदुता में घृणा का ज़हर घुलता हुआ लग रहा था . आखिर मैंने एक सवाल उठाया कि अमेरिका के पास कौन सा शास्त्र है जिसकी रक्षा में वहां इतना किलिंग इंस्टिंक्ट है कि सारी दुनिया ही नहीं स्वयं अमेरिका भी तबाही के कगार पर पहुँच गया है ? यूनान , मिस्र और रोम में कौन सा किलिंग इंस्टिंक्ट है जबकि ये सभी विश्व की प्राचीन सभ्यताएं हैं और सभी के पास शास्त्र हैं ? वे बेचारे तुरंत ही गड़बड़ा गए . बोले – मैं दरअसल यहाँ बच्चों को इज़राइल का इतिहास पढ़ाता हूँ .

तो आप हमास के समानांतर कौन सा संगठन खड़ा करने की सीख देते हैं ?

इसका जवाब उनके पास एकदम नहीं था . बुझे हुए स्वर में जानकारी दी – मैं यहाँ का प्रशासक हूँ .

चलते-चलते उन्होंने लगभग जबरन कुछ किताबें और पुस्तिकाएं भेंट की जो इस्लामी आतंकवाद की थ्योरी को गढ़ने में मददगार होती हैं . इनमें से ही एक किताब अनवर सेख की की थी जो इस्लाम में खुदा और पैगम्बर की महत्ता और पैगम्बरवाद पर रोचक और तार्किक ढंग से लिखी गई है . अनवर शेख ने स्थापित किया है कि पैगम्बर मुहम्मद की सत्ता ही दरअसल इस्लाम की सत्ता है . इस सत्ता को तलवार के दम पर दुनिया में फैलाया गया . अगर आप पैगम्बर की सत्ता को स्वीकार करते हैं तो इस्लाम में आप तरक्की कर सकते हैं लेकिन अकेले खुदा को मानकर अगर आप पैगम्बर की सत्ता को नकारते हैं तो खुदा भी आप की रक्षा नहीं कर सकता . एकबारगी यह पुस्तक सूफीवाद और इस्लाम के दूसरे बहिष्कृत सम्प्रदायों के बारे में सोचने की खिड़की खोलती है .

उनकी दी हुई दूसरी पुस्तिकाएं इसके मुकाबले बोगस थीं और उन सभी में हिंदुत्व की उग्रता भरी हुई थी . मजे की बात है कि हिंदुत्व की बात करने वाला कोई भी विद्वान जाति व्यवस्था के बारे में कोई भी बात नहीं करता .

गुरुकुल से निकलकर हम ज्योतिसर गए . यह जगह गीता की उपदेशस्थली मानी जाती है . यूँ तो इस जगह को हेरिटेज के रूप में अधिक बेहतर और सुसंगत होना चाहिए था लेकिन अब यह एक धर्मस्थल के रूप में ही है जहाँ फूहड़ मूर्तियों की भरमार है . गन्दगी का यह आलम कि पाँव के तलवे चढ़ाये गए चीनी के प्रसाद से चिपचिपाने लगे . भारत में गीता का महत्त्व देखते हुए उसके उद्भव स्थल को देखना दुखद ही था . मनोज मौर्य भी खासे दुखी हो गए जो यहाँ आने के लिए बेताब थे  . फिर भी वे मुग्धभाव से यहाँ वहां घूमकर देखते रहे . वे कृष्ण और अर्जुन की उस मनःस्थिति से एकात्म होने लगे जो महाभारत के मैदान में अपने बंधु-बांधवों को देखकर उस समय रही होगी . यह कथित रूप से पांच हज़ार साल पहले की बात होगी लेकिन मनोज को कनेक्ट होते देर न लगी . वे समय को चीरकर वहां जा पहुंचे . संजय गोहिल फोटो खींचने लगे.

नंदकिशोर आर्य हमारे साथ थे . वैसे तो वे बहुत शांत स्वाभाव के हैं लेकिन मुझे कुछ उचटे हुए लगे . मनोज कनेक्ट होते फोटो खिंचाते चले आ रहे थे . वे मुझसे बोले कि इस जगह को इतना भव्य बनाया जा सकता है कि सारी दुनिया से यहाँ पर्यटक आयें . यह यहाँ के निवासियों के लिए एक बढ़िया रोजगार दे सकता है . अलग अलग ढब-ओ-ढर्रे के पार्क बनाये जाएँ और ग्रेसफुल स्कल्पचर से उन्हें समृद्ध किया जाय जो हमारी महान विरासत से हमें जोड़ सकें . ज्योतिसर का सूखा हुआ पोखरा पानी से भरा हुआ हो .

मेरे मन में ख्याल आया कि युद्ध के मैदान में पोखरा कैसे और क्यों रहा होगा . क्या सैनिक उसमें गिर न जाते होंगे ? महाभारत तो धर्मयुद्ध था . सुबह ऐसे लड़ाई शुरू होती जैसे दिहाड़ी शुरू हो रही हो और शाम को छुट्टी हो जाती और लोग अपने-अपने तम्बुओं में आराम करते . शायद ज्योतिसर में लोग नहाते रहे होंगे . इन्द्रप्रस्थ तो यहाँ से दूर था .

अपनी जिज्ञासाओं को दबाये मैंने भी दूसरे साथियों की तरह जूते पहन लिए और गाड़ी में जा बैठा . एक घंटे के भीतर हम जी टी रोड पर दौड़ रहे थे . कुरुक्षेत्र ने कोई खास छाप न छोड़ी . उसकी स्मृतियों में बिना नहाये ही वापसी हो गई थी .

गुरुकुल में पनपाये जा रहे किलिंग इंस्टिंक्ट बेशक मेरे भीतर फंसा रह गया . अगला पांच साल कैसा होगा ?

हे भारत भाग्यविधाता ! हम चंडीगढ़ जा रहे हैं …

 

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