अयोध्या विश्व की सबसे प्राचीन पुरियों में से एक है। इसका वर्णन भारत के प्राचीन वाङ्मय, ग्रंथों, महाकाव्यों, श्रुतियों, पुराणों, इतिहास में लगातार मिलता है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। उनके पुत्र मरीचि, मरीचि के पुत्र कश्यप एवं कश्यप के पुत्र मनु हुए। मनु के वंशज मानव कहलाए। मनु ने सर्वप्रथम मानव सभ्यता एवं संस्कृति की राजधानी के रूप में अयोध्या नगरी को बसाया।मनु के दस पुत्र हुए जिनमें इच्छ्वाकु सबसे यशस्वी थे। राम इच्छ्वाकु वंशी थे। इनके प्रतापी पूर्वजों में सगर, भगीरथ, दिलीप, रघु , हरिश्चंद्र इत्यादि विश्व इतिहास की अप्रतिम विभूतियाँ हैं। राजा दशरथ अयोध्या के 63 वें शासक थे। राम और कृष्ण भारतवर्ष के सांस्कृतिक व्यक्तित्व के निर्धारक हैं। ये हमारी अस्मिता के प्रतीक हैं। इनके बिना भारतीय समाज की परिकल्पना ही संभव नहीं है। जब तक यह धरती एवं ब्रह्मांड है तब तक इनका नाम अमर और अविस्मरणीय है। ये विश्व साहित्य तथा इतिहास के श्रेष्ठतम चरित नायक है। भगवान राम ने लंबे समय तक शासन करने के उपरांत अयोध्या का राज्य अपने और भाइयों के पुत्रों में विभाजित कर दिया था।
विश्व के श्रेष्ठतम महाकवि कालिदास कृत “रघुवंशम्” एक कालजयी महाकाव्य है। इस ग्रंथ में इक्ष्वाकुवंशी राजाओं के वृत्त को जिस सुन्दरता से कालिदास ने चित्रित किया है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। इस महाकाव्य के सोलहवें सर्ग में राम और उनके भाइयों के पुत्रों का वर्णन है। राम ने अपने बड़े बेटे कुश को “कुशावती” नामक राज्य सौंपा था. रघुवंश के सभी सात भाइयों ने अलग-अलग राज्यों पर शासन तो किया पर वो सबके सब रघुकुल की रीति के अनुरूप अपने सबसे बड़े भाई कुश को अपना प्रधान और पूज्य मानते थे।
यही “जानकीनंदन कुश” एक दिन राजकाज से निवृत्त होकर जब रात्रि विश्राम हेतु अपने कक्ष में गए तो आधी रात को देखा कि उनके शयन कक्ष का द्वार अंदर से बंद होने के बाबजूद एक स्त्री उसके अंदर आयी हुई है। उन्होंने उस स्त्री से कहा- “शुभे ! तुम कौन हो और तुम्हारे पति का नाम क्या है? तुम यह समझकर ही मुंह खोलना कि हम रघुवंशियों का चित्त कभी भी पराई स्त्रियों की ओर नहीं जाता।”
उस स्त्री ने उत्तर देते हुये कहा कि मैं आपके जनक राम के अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी हूँ जो राम के बैकुंठ गमन के बाद से ही अनाथ पड़ी हूँ। राम के बिना सैकड़ों अट्टालिकाओं से युक्त होने के बाबजूद मेरी अयोध्या ऐसी उदास लगती है मानो सूर्यास्त के बाद की डरावनी संध्या। जब राम थे तो मेरी अयोध्या अपने ऐश्वर्य में कुबेर की अलकापुरी को भी मात देती थी पर राम के बिना आज अयोध्या सूनी पड़ी हुई है।
पहले अयोध्या की जिन सड़कों पर चमकते और मधुर ध्वनि करते नूपुरवाली अभिसारिकायें चलती थीं वहां आजकल सियारिनें घूमतीं हैं जिनके मुख से चिल्लाते समय चिंगारियाँ निकलती है। राम से सूनी हुई अयोध्या में न तो अब मोर नाचते हैं, न वहां मृग भ्रमण करते हैं। कमल के ताल में खेलने वाले हाथी भी नहीं हैं। नगर की जिन बाबड़ियों का जल पहले जल-क्रीड़ा करने वाली सुंदरियों से संवरता था, आज वहां जंगली भैंसे दौड़ते हैं। यह सब कहकर उस स्त्री ने कुश से निवेदन किया कि राम न सही तो कम से कम हे जानकीनंदन कुश ! आप तो अयोध्या चलें। कुश ने प्रसन्नतापूर्वक उस स्त्री की प्रार्थना स्वीकार कर ली और “राम की अयोध्या” के परित्राण के लिये अयोध्या की ओर चल पड़े।
कुश के अयोध्या पहुँचने की स्थिति का वर्णन करते हुए महाकवि कालिदास लिखते हैं, “अयोध्या के उपवन की वायु ने फूल से आच्छादित वृक्ष की डालियों को थोड़ा हिलाकर और सरयू के शीतल तरंगों का स्पर्श , करके सेना के साथ थके हुए कुश का स्वागत किया”। फिर कुश ने “रघुवंशियों के अयोध्या” की कायापलट कर दी। मुनियों को बुलवाकर पहले तो पूरी अयोध्या नगरी की पूजा करवाई। फिर वहां नगर रचना के दूसरे काम किये जिसके बाद वो नगरी ऐसी लगने लगी मानो “सारे शरीर में आभूषण घारण की हुई कोई सुंदर स्त्री” हो। वही अयोध्या अब ऐसी हो गई कि मिथिलेशकुमारी के पुत्र कुश को फिर न तो इन्द्र्लोक की कामना रही, न स्वर्ग के वैभव की और न ही असंख्य रत्नों वाली अलकापुरी की और इस तरह “जानकीनंदन कुश” ने खुद को भारत के इतिहास में अमर कर लिया। ऐसा माना जाता है कि “अयोध्या जिसे चुनती है समझो स्वयं सौभाग्य उसका वरण करता है” और जो अयोध्या को पूजता है उसके लिये स्वर्ग में बैठे देवता भी कहतें हैं कि देखो, इसके पूर्व जन्म के संचित कर्म कैसे उत्तम हैं कि इसे उस अयोध्या के वंदन का सौभाग्य मिला है जिसकी गोद में खेलने वालों ने “गंगा” को धरती पर अवतरित किया था, जिसकी मिट्टी को “विष्णु अवतार श्रीराम” ने स्वर्ग से भी बढ़कर बताया था। जहाँ रघु, दिलीप और सगर और दशरथ जैसे महान कीर्ति वाले राजा हुये थे, जो वशिष्ठ और विश्वामित्र जैसे ऋषियों के आशीर्वाद से निर्मित हुई थी और जहाँ की पवित्र विश्वरम्भा ने माँ जानकी को अपनी गोद में समां लिया था।
“अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी” अपनी अयोध्या की दशा से विकल होकर सबके पास नहीं जाती। वो उनको ही अपनी अयोध्या के पुनः-कायाकल्प और इस पावन नगरी के पूजन का अवसर देतीं हैं जिनके अन्त:स्थ में श्रीराम से अगाध प्रेम हो और जिनके लिये प्रभु श्रीराम केवल राजनीति और सत्ता साधने मात्र का जरिया नहीं बल्कि आराध्य हों।
अयोध्या का मन्दिर इस बात के लिए भी विश्व में अनूठा होगा कि उसके लिए प्रजा ने पाँच शताब्दियों तक लड़ाई लड़ी है। इसके लिए असँख्य बार, असँख्य बीरों ने धर्म के हवनकुण्ड में अपने जीवन की आहुति दी है… बार बार पराजित हुए, गिरे, पर फिर उठ कर खड़े हुए और लड़े… और अंततः जीते। भगवान राम ने स्वयं अपने भक्तों पर असीम अनुकम्पा की।
अयोध्या ने सिद्ध किया है कि धर्म की लड़ाइयां पाँच सौ वर्षों के बाद भी जीती जा सकती हैं। हमेंबस अपने मार्ग पर चलते रहना है। आज के समय में किसी क्षणिक पराजय के बाद ही लोग हतोत्साहित हो कर विलाप करने लगते हैं कि ‘सब समाप्त हो गया, हमें कोई बचा नहीं सकता…’ अब ऐसे समय में अयोध्या का मन्दिर ऊर्जा देने का काम करेगा कि हम पराजित नहीं हो सकते… अंत में धर्म ही जीतेगा। जो खतरे में आ जाए वह धर्म नहीं हो सकता। धर्म न संकट में पड़ता है, न समाप्त होता है। वह मानव जीवन के साथ निरंतर अग्रसर रहता है।
नियति का खेल भी विचित्र होता है। मौर्यकाल से गुप्तकाल तक अयोध्या मगध के अधीन रही। शेरशाह सूरी के बाद हेमचंद्र विक्रमादित्य (१५५६ ई) दिल्ली की सत्ता पर आसीन हुए। उनके बाद सन २०१४ में पहली बार भारत की केंद्रीय सत्ता पर कोई ऐसा व्यक्ति पहुँचता है, जिसे स्वयं को हिन्दू कहने में लज्जा नहीं आती। वह निकलता है तो भगवान शिव की नगरी बनारस से…वह तिलक लगाता है, भगवा पहनता है… उसके दो वर्षों बाद ही उत्तर प्रदेश के सिंहासन पर एक साधु को बैठाता है। मुझे लगता है भारत में किसी साधु के राजा होने की यह पहली ही घटना होगी..। राजा तो ऐसे अनेक हुए हैं जो किसी कारण से बाद में सन्यासी बन गए हों। फलतः वर्षों से जातियों के नाम पर टूटी जनता धर्म के नाम पर एक साथ उठ खड़ी होती है, और तब आता है सन 2020… अचानक सब कुछ आसान लगने लगता है। दोनों पक्ष ही कहने लगते हैं कि मंदिर बनना चाहिए… और… माननीय उच्चतम न्यायालय के सर्वसम्मति से दिया गया निर्णय विश्व के इतिहास का अद्भुत कीर्तिमान बन गया है। अब समय ने तय कर दिया कि मन्दिर की ईंट भारतीय जनता के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और एक सन्त के हाथों रखी जाएगी ।
वर्तमान भारत को स्मरण है कि दो हजार वर्ष पूर्व महाराज विक्रमादित्य ने अयोध्या का पुनरुद्धार किया था, और भव्य मंदिर बनवाया था। भारत को यह भी याद है उस प्राचीन मंदिर का भव्य पुनर्निर्माण कनौज नरेश महाराज विजयचन्द्र ने कराया था। जब 1528 ई.में मंदिर को तोड़ा गया तबसे अब तक एक दीर्घ संघर्ष चला है।
भविष्य का भारत भी पूरी श्रद्धा के साथ स्मरण रखेगा कि आधुनिक युग में मन्दिर का निर्माण नरेन्द्र मोदी और गोरक्षपीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ जी महाराज के काल में हुआ। अयोध्या का अर्थ ही है जिसे युद्ध में कोई जीत न सके । हिमालय की गोद में अठखेलियां खेलती हुई पुण्य-सलिला सरयू अविरल चट्टानी रास्तों को तोड़कर मैदानी क्षेत्रों को तृप्त करती चली आ रही हैं। वैदिक काल से आज तक निरंतर चला आ रहा यह पुण्य प्रवाह अपने अंदर भारत राष्ट्र के सहस्राब्दियों पुराने इतिहास को संजोए हुए है। इसी पतित पावनी नदी ‘सरयू मैया’ के किनारे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की क्रीडास्थली अयोध्या नगरी बसी है। यही राम की जन्मस्थली है। राम भारतीय संस्कृति की सशक्त और चिरंतन अभिव्यक्ति हैं। भारतवर्ष की सांस्कृतिक अस्मिता के प्रतीक हैं। इसलिए अयोध्या भी इस मृत्युंजय संस्कृति का एक अमिट हस्ताक्षर है। राम और अयोध्या परस्पर पर्याय हैं। एक दूसरेके पूरक हैं।
दशरथनंदन राम के जन्म के उपरांत तो अयोध्या का संबंध सम्पूर्ण सृष्टि के साथ जुड़ गया। संसार के प्राणी मात्र के लिए स्वर्ग का द्वार बन गई अयोध्या। विश्व के प्राचीनतम उपलब्ध ज्ञान के भंडार वेद के रचियता ने अयोध्या के महात्म्य को निम्नलिखित श्लोक में प्रकट किया है –
अष्ट चक्रा नव द्वारा देवानां यूः अयोध्या।
तस्या हिरण्यमयः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।
(अथर्व वेद, 10-2-32)
भारत और भारतीय जीवनमूल्यों के गगनस्पर्शी ध्वज यदि राम हैं तो अयोध्या को इस ध्वज (भारतीय संस्कृति) का ध्वजस्थान मान लेना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अतः राम, अयोध्या और भारत यह तीनों ही एक ही भावधारा को प्रकट करते हैं और तीनों ही अविजित अर्थात परास्त नहीं किए जा सकते।
हिन्दू समाज जिन सात तीर्थों को मोक्षदायिनी पुरियों के रूप में माना है उनमें अयोध्या पहले क्रमांक पर है।इसे सर्वश्रेष्ठ मानकर इसकी यात्रा को अपना अहोभाग्य मानता है। जिनकी यात्राओं को मोक्ष प्राप्ति हेतु आवश्यक समझा जाता है, उनमें अयोध्या की गणना सर्वपरि है। अयोध्या को भगवान विष्णु का शीर्ष कहा जाता है। अयोध्या को महाऋषियों ने मोक्षदायिनी कहा है।
अयोध्या मथुरा माया, काशी कांची अवंतिका।
पुरी द्वारावतीश्चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।
समस्त भारत के आध्यात्मिक जीवन के साथ अयोध्या का इतिहास भारत के सांस्कृतिक राष्ट्र जीवन की निर्विवाद अभिव्यक्ति है। भारत राष्ट्र का वैभव और पराभव अयोध्या के उत्थान और पतन के साथ जुड़ा हुआ है। राम इसी राष्ट्र जीवन के नायक हैं। जैसे राम और अयोध्या को बांटा नहीं जा सकता, उसी प्रकार राम और राष्ट्र को बांटा नहीं जा सकता। राम भारत के राष्ट्र जीवन की सरल, स्पष्ट और अद्वितीय परिभाषा है। अयोध्या इसी राष्ट्र जीवन (राम) की जन्मस्थली है। इस जन्मस्थली पर श्रीराम का भव्य मंदिर पहले भी था, अब भी है और आगे भी रहेगा।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भारत की सांस्कृतिक मर्यादा के अनुरूप जिस रामराज्य की स्थापना की वह संपूर्ण विश्व में अपना सानी नहीं रखता। एक आदर्श एवं लोककल्याणकारी राज्य का ऐसा वैभव जहां सभी सुखी हों, निरोग हों, समान हों। यहां तक कि प्रकृति और पर्यावरण भी पूर्णतः संतुलित था। आखिर ‘ मांगे वारिधि देहिं जल रामचंद्र के राज’ की प्रतिस्पर्धी व्यवस्था क्या हो सकती है?
महाराज कुश ने सभी प्रमुख प्रशासनिक अधिकारियों से वार्तालाप करके श्रीराम की स्मृति में एक भव्य स्मारक/मंदिर बनाने का निर्णय लिया. महाराज कुश की देखरेख में कसौटी के 84 खम्बों पर भव्य श्रीराम मंदिर निर्मित हो गया। चैत्र शुक्ल नवमी पर मंदिर में भगवान राम की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की गई. इस मंदिर में कसौटी के जिन 84 खम्भों को लगाया गया था, इनकी चर्चा आज तक किसी न किसी रूप में चल रही है. लोमस रामायण में वर्णित बालकांड के अनुसार यह खम्भे श्रीराम के पूर्वज महाराजा अनरण्यक के आदेश पर विश्व प्रसिद्ध शिल्पी विश्वकर्मा के द्वारा गढ़े गए थे।
सूर्यवंश के पूर्व पुरुष महाराजा इक्ष्वाकु के समय से ही भारत पर राक्षसों के आक्रमण होने प्रारम्भ हो गए। यह आक्रमण लंका की ओर से समुद्री मार्ग से होते थे जो पीढ़ी दर पीढ़ी होते रहे। लंका के प्रत्येक राजा को रावण की उपाधि दी जाती थी।अतः इक्ष्वाकु वंश की 64 पीढ़ियों ने लंका के लगभग इतने ही रावणों से अयोध्या की लगातार रक्षा की थी । महाराज कुश ने जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के मंदिर का प्रस्तावित नक्शा सबके सामने रखा तो सभी ने एक स्वर में कहा कि श्रीराम का मंदिर सम्पूर्ण राष्ट्र के गौरव का प्रतीक होगा। भारत ने संसार में राक्षसी वृति को समाप्त करने हेतु लंका के साथ सैकड़ों वर्षों तक जब युद्ध लड़ा तो उसकी विजय का श्रेय श्रीराम को जाता है। श्रीराम का मंदिर किसी एक वंश, जाति, पंथ और विचारधारा का न होकर सारे राष्ट्र की विजय का प्रतीक होगा। इस मंदिर में इन्हीं कसौटी के खम्भों को स्तम्भों के रूप में जड़ना चाहिए जिन्हें श्रीराम लंका से वापस लाए थे। राम मंदिर के आधार के यह खम्भे राष्ट्र मंदिर के आधार स्तम्भ माने जाते रहे हैं।
इस प्रकार राम मंदिर के निर्माण को राष्ट्रीय कार्य घोषित करके महाराज कुश ने कसौटी के इन 84 खम्भों के ऊपर एक भव्य राममंदिर का निर्माण करवाया था। यह कार्य चैत्र शुक्ल नवमी के शुभावसर पर सम्पन्न हुआ।कुश के द्वारा रामनवमी को राष्ट्रीय पर्व घोषित कर दी गई थी। अतः यह मंदिर राम और राष्ट्र अंतरावलंबन हैं। आज इसी स्थान पर भव्य मंदिर का पुर्ननिर्माण हिन्दू समाज के दीर्घकालीन आकांक्षा की प्रतिपूर्ति है।
श्रीराम जन्मभूमि के साथ भारत की अस्मिता और हिन्दुओं का सर्वस्व जुड़ा है. यही कारण है कि रावण से लेकर बाबर तक जिस भी विदेशी और अधर्मी आक्रांता ने रामजन्मभूमि को अपवित्र करने का जघन्य षड्यंत्र रचा, हिन्दुओं ने तुरन्त उसी समय अपने प्राणों का उत्सर्ग करते हुए अपने इस सांस्कृतिक प्रेरणा केन्द्र की रक्षा की. जन्मभूमि पर महाराजा कुश के द्वारा बनवाया गया मंदिर भी आक्रान्ताओं का निशाना बनता रहा। यह मंदिर अपने बिगड़ते-संवरते स्वरूप में सदियों पर्यन्त आघात सहन करता रहा, परन्तु इसका अस्तित्व कोई नहीं मिटा सका। अब इसके पुनरुद्धार से यह भावना और भी बलवती हो गयी है।
रामजन्मभूमि मंदिर के ऊपर विदेशियों के आक्रमण यूनान के यवनों के साथ शुरु हुए थे. ईसा से तीन शताब्दी पहले ग्रीक से यवन आक्रान्ता भारत आए। राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक इस मंदिर पर पहला विधर्मी आघात ईसा से 150 वर्ष पूर्व हुआ। एक विदेशी यवन आक्रांता ने भारत पर अपनी सत्ता जमाने के उद्देश्य से अयोध्या पर आक्रमण कर दिया।. उसने समझ लिया था कि रामजन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़े बिना भारत की शक्ति को क्षीण नहीं किया जा सकता। इस प्रकार के आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र ही हिन्दुओं को शक्तिशाली बनने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।इस विधर्मी सेनापति ने एक प्रबल सैनिक टुकड़ी के साथ महाराजा कुश द्वारा निर्मित मंदिर को भूमिसात कर दिया था।
हिन्दू समाज के प्रबल विरोध के बावजूद वह अपनी विशाल सैनिक शक्ति के बल पर जीत तो गया, परन्तु इस विजय के बाद तीन मास के भीतर ही उसे हिन्दुओं की संगठित शक्ति के आगे झुकना पड़ा। शुंग वंश के पराक्रमी हिन्दू राजा द्युमदसेन ने अपनी प्रचंड सेना के साथ उसे घेर लिया। इस वीर राजा ने न केवल जन्मभूमि को ही मुक्त करवाया, अपितु मिलेन्डर की राजधानी कौशांबी पर अपना अधिकार जमाकर उसकी सारी सेना को समाप्त कर दिया। मिलेन्डर को भी यमलोक पहुंचाकर द्युमदसेन ने हिन्दू समाज की संकठित शक्ति का परिचय देकर राममंदिर के अपमान का बदला ले लिया। यह विदेशी आक्रांता की भयावह पराजय थी। अतः मंदिर तो मुक्त हो गया परन्तु उसके जीर्णोद्धार की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी। विदेशी आक्रमणों से जूझते रहने के कारण हिन्दू राजा इस ओर ध्यान नहीं दे सके, तो बावजूद इसके मंदिर के खण्डहरों में ही गर्भगृह स्थान पर एक पेड़ के नीचे हिन्दू अपने आराध्य देव की पूजा करते रहे।
ईसा से पूर्व उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने श्रीराम जन्मभूमि पर फिर से वैभवशाली मंदिर बनाने का बीड़ा उठाया। विदेशी आक्रांता शकों को पूर्णतया परास्त करके उन्हें भारत की सीमाओं से बाहर खदेड़ने का कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् शकारि विक्रमादित्य ने अयोध्या की प्राचीन सीमाओं को ढूंढने के लिए एक सर्वेक्षण दल की स्थापना की थी। प्राचीन ग्रंथों को आधार मानकर रामजन्मभूमि का वास्तविक स्थान खोज पाना बहुत कठिन काम था। प्राचीन शास्त्रों के आधार पर जन्मभूमि के निकटवर्ती शेषनाथ मंदिर की कंटीली झाड़ियों के मध्य में से इस स्थान को खोज लिया गया। फलतः जब शास्त्रों में वर्णित मार्गों को नापा गया, तब स्वतः रहस्य खुलते चले गए और राम जन्मभूमि के वास्तविक जगह की पहचान हो गयी। अयोध्या में लक्ष्मण घाट के निकट एक ऊंचे टीले की खुदाई की गई, उत्खनन कार्य से प्राचीन मंदिर के अवशेष मिलते चले गए। साथ ही, भूगर्भ में समा गए मंदिर के कसौटी के 84 खम्भे भी प्राप्त हो गए। इन्हीं खम्भों को आधार स्तम्भ बनाकर विक्रमादित्य ने एक अति विशाल राम मंदिर का निर्माण करवा दिया। भारत का विराट राष्ट्रपुरुष फिर से स्वाभिमान के साथ मस्तक ऊंचा करके खड़ा हो गया। फलतः विक्रमादित्य की योजनानुसार भारत के प्रत्येक पंथ, जाति और क्षेत्र के सहयोग से अनेक मंदिर बनने प्रारम्भ हो गए. आज भी अयोध्या में इन हजारों मंदिरों को देखा जा सकता है। वहां हर घर एक मंदिर है।
सम्राट विक्रमादित्य ने सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोकर राष्ट्रीय एकता का अद्भुत एवं सफल प्रयास किया जिसका वर्णन कालिदास के साहित्य में बार-बार आता है। अयोध्या सम्पूर्ण भारत का एक मूर्तिमान स्वरूप बन गई। अयोध्या और रामचरित को वैश्विक व्याप्ति प्रदान करने वाले और मध्य काल के भयावह दौर में भारतीय समाज को एकजुट रखने वाले विश्व के सबसे लोकप्रिय महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की याद में एक विश्वस्तरीय तुलसी शोध पीठ की स्थापना हो यह भी जरूरी है। हमारे साहित्य, लोकजीवन और सृष्टि के कण-कण में सिया राम की छवि को निर्मित करने और उसे पहचानने का श्रेय महाकवि तुलसीदास को ही है। भारतीय संस्कृति में निहित विविधता में एकता का प्रतीक अयोध्या आज भी अपने इस एकत्व भाव के साथ भारत के एक राष्ट्र होने का प्रमाण प्रस्तुत कर रही है। भारतवर्ष की भावनात्मक एकता को बल दे रही है। अयोध्या के मध्य में राम का मंदिर और चारों ओर भारत के सभी सम्प्रदायों के मंदिर, पूजास्थल और अखाड़े इसी तथ्य को सारे संसार के समक्ष उजागर करते हैं कि सभी पंथों के आदि महापुरुष श्रीराम भारत के राष्ट्रजीवन के प्रतीक हैं। इस संपूर्ण राम तीर्थ क्षेत्र के विकास से अयोध्या को विश्वपटल पर यश मिलेगा।
अतः अयोध्या में कारसेवकों द्वारा बनाए गए अस्थाई एवं साधारण मंदिर को भव्य स्वरूप देना हमारे राष्ट्र की एकता, अखंडता और भारतीय संस्कृति के परम वैभव की प्रतिपूर्ति है। आज माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के कर कमलों द्वारा विश्वस्तरीय मंदिर का शिलान्यास एक ऐतिहासिक घटना है। साथ ही, उनका ओजस्वी और प्रेरक वक्तव्य भी देशवासियों को बल देने वाला है। उनके भीतर आत्मविश्वास एवं संघर्ष से जूझने की शक्ति देने वाला है। आज यह स्पष्ट हो गया है कि अब विश्वस्तरीय राम मंदिर के निर्माण के साथ ही अयोध्या का भी चतुर्दिक विकास होगा। जिससे अयोध्या अपने प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त कर सकेगी। वह एक उज्ज्वल एवं गौरवशाली भविष्य की ओर बढ़ रही है। संक्षेप में, अयोध्या का अतीत, वर्तमान और भविष्य सुनहरे अक्षरों में अंकित रहेंगे। इस मोक्षदायिनी पुरी को कोटि-कोटि प्रणाम!
- डॉ करुणाशंकर उपाध्याय
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग
मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई