कुरुक्षेत्रे! (कविता ) – हूबनाथ पाण्डेय

हूबनाथ पाण्डेय

हीने पर महीने बीतते रहे
सभी नियमों को तोड़ता
चलता रहा युद्ध
कुरुक्षेत्र की सीमाएं
पूरी धरती तक फ़ैल गईं

न कोई शंखनाद
न बिगुल
सिर्फ़ हाहाकार
आर्तनाद

सूर्य उगते और डूबते रहे
सेनाएं नहीं लौटीं
अपने शिविरों को

गांधारी ने उतार दी
पट्टी आंखों की
पर देख न पाई मुख
एक भी पुत्र का

धृतराष्ट्र का अंधापन
इतना बढ़ा
कि सिंहासन के
चार पैरों के सिवा
कुछ भी महसूस न हुआ

युधिष्ठिर ने झूठ नहीं कहा
अश्वत्थामा मारा गया
सचमुच
असहाय द्रोण
देखते भर रहे

अर्जुन अपनी शंका रखते
कि युद्ध आरंभ हो चुका था
गीता सुनने की फ़ुरसत
किसी को न थी
न सुनाने का वक़्त ही

माधव इस बार भी
हांकते रहे रथ
न किसी को मारा
न किसी को बचाया

कर्ण का रथ फंसा नहीं
थम गया
जम गया
अर्जुन तीर चलाए
उससे पहले ही कर्ण
थककर मर गया

शक्तिहीन भीम
सांस भी न ले पाए
ठीक से
एक एक कर
धराशायी होते गए
अतिरथी महारथी

अबोध अभिमन्यु
महाबली भीष्म
कोई नहीं बचा
न इस पक्ष से
न उस पक्ष से

इस बार
एक ओर मृत्यु थी
अनाहूत
दूसरी ओर
ज़िंदगी संघर्षरत

सबका योगक्षेम वहन
करने वाला भी
संशयग्रस्त
किंकर्तव्यविमूढ़

न कोई सेनापति
न कोई नेतृत्व
दिशाविहीन
अक्षौहिणियां
घनघोर अंधेरे में
रौशनी के बीज
खोज रही हैं

हस्तिनापुर की सीमा पर
बची हुई प्रजा
पिघलते आसमान के नीचे
उत्तरा के गर्भ में
परीक्षित को बचाने
जद्दोजहद कर रही है

मृतकों के नाम नहीं
आंकड़े अंकित हो रहे
राजधानी की दीवारों पर

ख़ूंख़्वार दरिन्दे
लाशों के व्यापार में
कुबेर से होड़ ले रहे
और मज़बूत कर रहे पाये
धृतराष्ट्र के सिंहासन के

युग भले बीत गया हो
युद्ध नहीं बीता है
बचे योद्धा अब भी
लड़ रहे हैं
अनजान अदृश्य शत्रु से

परीक्षित अभी भी
नहीं है सुरक्षित
नहीं आएंगे नारायण
हर बार
हमीं को निभानी होगी
भूमिका नारायण की

अपने भीतर के सूर्यत्व को
जगाना ही नहीं
जलाना भी होगा ख़ुद को
आनेवाली सुबह के लिए

मृत्यु के सामने
सिर तानकर
खड़े होने के लिए
ठंड से अकड़े
घुटने मसलते हुए
खड़े होना होगा
हम सबको
इसी कुरुक्षेत्र के भीतर.

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