सच्ची आलोचना रचना को उसके अपने समय में ही मूल्य और महत्व देकर चुप नहीं हो जाती, वह उस रचना के लिए आगे के समयों में जगह भी बनाती है। यदि आलोचना इस रूप में अपने कर्म का सम्यक निर्वाह करती है तो वह सच्ची आलोचना है, सार्थक आलोचना है। रचना हो या आलोचना, या तो वह जेनुअन होगी या छद्म, वह उत्कृष्ट होगी या घटिया, सार्थक होगी या निरर्थक, मूल्यवान या महत्वपूर्ण होगी या महज़ शब्दक्रीड़ा या कोरी बकवास। ऐसी स्थिति में कृत्रिम रूप से आलोचना की अकादमिक और सृजनात्मक जैसी कोटियां बनाना, और एक को दूसरी से बेहतर या घटिया करार देना, बेमानी तो है ही अवास्तविक भी है।
आलोचना को लेकर एक भ्रान्ति यह रचना भी फैलाई गई है कि सृजनात्मक कही जानेवाली आलोचना जहाँ समकालीन रचना से संवाद करने के नाते समकालीन होती है, वहाँ अकादमिक आलोचना अधिकतर अपने समय की रचनाशीलता के प्रति उदासीन रहती है और यदि वह उससे मुखातिब भी होती है तो उसके साथ वास्तविक न्याय नहीं कर पाती है। सच्चाई यह है कि ये दोनों ही आरोप गलत और बेमानी हैं। आलोचना का इतिहास साक्षी है कि अकादमिक मानी जानेवाली आलोचना ने बराबर अपने समय की नोटिस ली है, और उसका मूल्यांकन किया है। जहाँ तक अतीत कि रचनाशीलता कि बात है तो समकालीन रचनाशीलता से संवाद ही किसी रचना को समकालीन नहीं बनाता। समकालीनता के निर्णय की सही जमीन भी नहीं है। यदि आलोचना अतीत की रचनाशीलता को अपने विवेचन की जड़ में लेते हुए भी, अपने समय के सन्दर्भ में उसके नए अर्थ का संधान करती है, विगत के महत्व के साथ उसकी समकालीन अर्थवत्ता को उद्घाटित करती है, वह समकालीन ही होगी और वैसी ही मानी जायेगी।
3sixty-five