अनभै ह्वै तौ अर्थ विचारे – रतनकुमार पाण्डेय

अनभै

अनभै का अंक सहधर्मी और सहचर की भूमिका में आपके हाथ में है। ‘अनभै’ की आवश्यकता क्यों? हिंदी में जब इतनी लघु और दीर्घ पत्रिकाएं, भांति-भांति की पत्रिकाएं, रंग-बिरंगी एवं रंगहीन, नियतकालिक और अनियतकालीन निकल रही हों, एलोेकट्रोनिक ‘मिडिया’ इतना प्रभावी और हावी हो चूका हो कि पठनीयता के समक्ष प्रश्नचिह्न लगाये जा रहे हों, बाजारू-पण्य व्यवस्था की पकड़ में सबकी गर्दन जकड़ी हो, ‘अपनी-अपनी डफली, अपना राग हो’, ऐसे में अनभै के प्रकाशन का दुस्साहस भला क्यों?

आज दुनिया की अधिकांश जनता उपभोक्ता बन चुकी है, उत्पादक कुछ सांस्थानिक पूंजीवाद (कार्पोरेट कैपटलिस्म) बना है, जो बाज़ार में जींस की आपूर्ति कर रहा है।  कभी देश की  आवश्यकता को ध्यान में रखकर गांधी ने कहा था, बहुतायत जनता द्वारा बहुतायत उत्पादन हो।  आज बहुतायत उत्पादन तो हो रहा है किन्तु जनता द्वारा नहीं। वह मात्र क्रेता और उपभोक्ता रह गई है।

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