शैलेश कुमार सिंह | NavprabhatTimes.com
टॉम अल्टर का गत दिनों चर्म कैंसर से 69 वर्ष की उम्र में दुखद निधन हो गया। एक विदेशी का देशी होना और देशी का देश से जुड़ना क्या होता है, उस मिज़ाज और तसव्वुर को हमें टॉम से सीखना चाहिए। आज़ राष्ट्रवाद का सर्टिफिकेट माँगने वालों को राष्ट्रीयता क्या होती है, यह टॉम अल्टर से सीखनी व समझनी चाहिए। टॉम ने न केवल इस महान देश की परंपराओं से दिलों जान से मुहब्बत की, अपितु उसे लोकप्रिय बनाने में महती भूमिका निभाई।
टॉम हिन्दी, उर्दू के सबसे बड़े पैरोकार थे। उर्दू से जितनी उन्होंने ने मुहब्बत की, उर्दू की रोटी खानेवाले भी उतना नहीं कर पाए। उर्दू से लगाव का मतलब बहुत से लोग इस्लामियत के लगाव से जोड़ते हैं। पता नहीं उर्दू को इस्लाम से किस राजनीति के तहत जोड़ा गया और आज़ आलम यह है कि उर्दू इस्लाम धर्म माननेवालों की भाषा बन कर इस्लामियत की जकड़बंदी में महदूद होने को विवश है, जबकि उर्दू इस देश की मिट्टी से इवॉल्व हुई और परवान चढ़ी। टॉम उर्दू की इस ऐतिहासिक भूमिका को बखूबी जानते व मानते थे।
टॉम अल्टर केवल एक उम्दा किस्म के अभिनेता ही नहीं बल्कि एक बहुत ही नेक इंसान भी थे। उन्हें हिन्दी फिल्मों में उस तरह की भूमिका नहीं मिली, जिस तरह की भूमिकाएँ उनके समकालीन एक्टर्स को मिलतीं रहीं। वे हमेशा एक विदेशी व मेहमान कलाकार के रूप में संक्षिप्त भूमिका में देखे गए। अपने यूरोपीय लुक के चलते वे हिन्दुस्तानी नहीं दिखते थे, जिसके कारण उन्हें राज, अमर या विजय की भूमिकाएँ इसलिए नहीं दी गईं, क्योंकि उन्हें भय था कि गोरी चमड़ी की वजह से शायद भारतीय दर्शक उन्हें स्वीकार न कर पाएँ, पर ऐसा नहीं हुआ। दर्शकों का उन्हें भरपूर प्यार व सम्मान मिला। उन्होंने अंग्रेजी नाटकों में भी जमकर काम किया और जो काम फिल्मों में नहीं कर पाए, उसकी क्षतिपूर्ति उन्होंने नाटकों से की। वे उर्दू, हिंदी व अंग्रेजी के नाटकों में अपनी यादगार भूमिका के लिए जाने जाते रहेंगे।
टॉम को उर्दू शायरी से बेइंतहा मुहब्बत थी, बावजूद इसके उनसे किसी ने उर्दू के क्लासिक शायरों की कविताएं रिकॉर्ड नहीं करवाईं। यह उनके निकट व उर्दू की खिदमत करनेवालों को सोचना था। लगभग चार-पाँच वर्ष पूर्व मुंबई के ताड़देव इलाके में किसी स्वयंसेवी संस्था ने ‘पानी’ पर एक सेमिनार आयोजित किया था। इस कार्यक्रम में प्रसिद्ध पर्यावरणविद व गांधीवादी चिंतक दिवंगत अनुपम मिश्र को भी बुलाया गया था। दिल्ली के पत्रकार व अनुपम मिश्र के मित्र के.सरोज ने अनुपम जी से मिलने का सुझाव दिया। अस्तु चिंतन दिशा के साथी डॉ. रमेश राजहंस, हृदयेश मयंक व राकेश शर्मा के साथ मैं भी अनुपम को सुनने व मिलने के उत्साह से गया। अनुपम जी को सुनना व मिलना तो यादगार रहा ही, साथ ही साथ टॉम को भी देखने का अवसर मिला। अनुपम जी को सुनने टॉम अल्टर भी आए थे। वे चुपचाप उन्हें सुनते रहे और प्रश्नोत्तर के बाद निःशब्द चले गए। इतनी बड़ी शख्सियत बिना किसी ग्लैमर के वहाँ से आई और चली गई, यह हम सबके लिए आश्चर्य का विषय था। टॉम को इस देश की नदियों व पर्यावरण की कितनी चिंता थी, यह दर्शाता है।
टॉम एक असाधारण प्रतिभा के धनी थे, पर उन्होंने अपने साथ कभी ग्लैमर नहीं पाला। असाधारण का साधारण होना और साधारण का हिन्दुस्तानी होना टॉम की फितरत में था। उनकी बीमारी की खबर भी दिलीप कुमार या अमिताभ के स्वास्थ्य बुलेटिन की तरह मीडिया में स्पेस नहीं बना पाई और न उनके स्वास्थ्य के लिए मंदिरों, मस्जिदों में दुआओं की घण्टियाँ बजीं। जिस व्यक्ति के रोम-रोम में भारतीयता बसी हो, उससे मीडिया की इस तरह की बेरूखी समझ में नहीं आती। वास्तव में आजकल अनायक को नायक बनाने की सिनिकल प्रविधि निकल पड़ी है। नायक के नायकत्व को घुँधला करना और अनायक की बेहूदगी को नायकत्व की गरिमा प्रदान करना बाजार की चालाकी है।
टॉम अल्टर अपनी असाधारणता की साधारणता के लिए इस देश की संस्कृति का सदैव हिस्सा बने रहेंगें। अभिनय, उर्दू और क्रिकेट की दीवानगी उनमें कूट-कूट कर भरी थी। उनका सचिन तेंदुलकर से साक्षात्कार लोग कभी भूल नहीं सकते। उन्होंने क्रिकेट की कमेण्टरी भी की। जीवन को सादगी और पैशन के साथ कैसे जीया जाय, यह हमें टॉम से सीखनी चाहिए। ऐसे नेक इंसान व बड़े अभिनेता को विनम्र श्रद्धांजलि!