नकटौरा: नारी अस्मिता-बोध का प्रतीकात्मक अनुप्रयोग

नकटौरा

चित्रामुद्गल समकालीन हिंदी साहित्‍य की शिखर साहित्‍यकार हैं। आपने गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से अपने वैविध्यपूर्ण लेखन द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है।आपका सद्य: प्रकाशित ‘ नकटौरा ‘ उपन्यास आद्यंत पढ़ गया।इसमें चित्रामुद्गल का परिपक्व चिंतन और सर्जनात्मक व्यक्तित्व अनेक स्थलों पर उदात्त की भावभूमि तक पहुँच गया है। वह अत्यंत सहज और चिंतनात्मक हो गया है। लेकिन यह भी चिंतनीय है कि आंतरिक और गहन यथार्थ चेतना तथा गहरे सामाजिक एवं मानवीय सरोकार उनके व्यक्तित्व के खरेपन और शैली की विदग्धता को बार-बार उद्भासित करते हैं।नकटौरा 62 भागों में लिखित लगभग इतनी ही प्रासंगिक कथाओं का संरचनात्मक विन्यास है। चित्रामुद्गल अपने समय और समाज की हर गतिविधि को जिस आंतरिक संलग्नता के साथ महसूस करती हैं वे उसी संजीदगी के साथ कथा प्रसंगों की उद्भावना भी करती हैं । वे अपने किसी भी उपन्यास में स्वयं को दुहराती नहीं हैं और सर्वत्र मौलिकता का परिचय देते हुए नित नए प्रयोग भी करती हैं। प्रस्तुत उपन्यास में यह प्रयोगधर्मिता दूरभाष पर होने वाली बातचीत के माध्यम से कथा प्रसंग के रूप में देखी जा सकती है। इनका सामाजिक कार्यकर्ता बदलाव के लिए व्यावहारिक धरातल पर किन बिडंबनाओं से होकर गुजरता है और आज की दुनिया में अपने आत्मसम्मान को बचाते हुए खुद को स्थापित करने के लिए चित्रामुद्गल को किन झंझावातों से होकर गुजरना पड़ा, साथ ही लेखिका ने अपने वैचारिक ताप और गहन दायित्वबोध के साथ किस तरह टूटते- बिखरते एवं जुड़कर दुबारा शक्ति अर्जित करते हुए हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है उसकी एक गहरी परत वाली ठोस भूमि यहाँ परिलक्षित होती है।

यहाँ ‘ नकटौरा ‘ स्वयं चित्रामुद्गल की प्रतीकात्मक व्यंजना करता है और इस आत्मकथात्मक उपन्यास में न केवल चित्राजी के सर्जनात्मक व्यक्तित्व का विरहस्यीकरण हुआ है अपितु बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध के लगभग संपूर्ण हिंदी साहित्यकारों और उनके रचनात्मक व्यक्तित्व के ऐसे अनेक अनदेखे -अनछुए संदर्भों का उद्घाटन हुआ है जो साहित्य के विद्यार्थियों के लिए उत्तेजक अनुभव है। इसके केंद्र में स्वयं चित्रामुद्गल हैं जो जाने- अनजाने उपन्यास की प्रधान पात्र अथवा नायिका बन गई हैं। वस्तुत: अवध क्षेत्र में जब लड़के की बारात कन्यापक्ष के यहाँ जाती है तब वर पक्ष की स्त्रियाँ रातभर जागकर स्वांग करती हैं। चूँकि उस समय वहाँ कोई पुरुष नहीं होता अत: वे पुरुष बनकर वे सारे स्वांग करती हैं जो पुरुषों के रहते हुए संभव नहीं था। वे एक रात के लिए पूर्ण स्वायत्तता का अनुभव करते हुए अपने भीतर के अस्मिता- बोध से रू- ब- रू होती हैं। उन्हें एक रात के लिए पुरुष वर्चस्वी समाज में पूर्ण स्वाधीनता और अपने संपूर्ण मनुष्य होने का अनुभव होता है। चित्रामुद्गल नारी जाति को उसका स्वाभाविक अधिकार दिलाकर न केवल उसमें निजता बोध और आत्मविश्वास भरती हैं अपितु स्वयं अपने जीवन में उसे आत्मार्पित करती हैं। ये केवल एक रात की स्वायत्तता से संतुष्ट नहीं हैं। इनका संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व तमाम अड़चनों के बावजूद उस स्वायत्तता और अस्मिताबोध को हमेशा जीता रहता है। यहां पर लेखिका की कथनी और करनी एक हो जाती है जो आज के समय में एकांत विरल है।इस उपन्यास की विषय- वस्तु मुंबई जैसे महानगर के बांद्रा के साहित्य- सहवास में फ्लैट होने और उसके बेचने की कानूनी अड़चनों,सोसाइटीज का व्यवहार, किराएदार की समस्या और दिल्ली जाकर घर बदलने से होने वाली समस्या के साथ- साथ जब अवधनारायण मुद्गल जैसा संपादक- साहित्यकार अपनी बेशकीमती पुस्तकें छोड़ने के लिए विवश होता है तो वह हर उस साहित्यकार की नियति का बखान करता है जो अत्यधिक अध्ययन में रुचि रखता है। इसमें चित्राजी का पेंटिंग- प्रेम, पत्र- प्रेम और पुस्तक- प्रेम भी खुलकर प्रकट हुआ है।

जब हम उपन्यास के शीर्षक की साभिप्रायता पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि नारी अस्मिता का मौलिक अन्वेषी और मानवीय समता का प्रतिष्ठाता चित्रामुद्गल के व्यक्तित्व में ही उसकी गुणात्मक अर्थवत्ता संश्लिष्ट हो गई है । इसका संपूर्ण अर्थोद्भावन चित्रामुद्गल के व्यक्तित्व में ही अवधारणीकृत हो सकता है , जो इस पुरुष प्रधान समाज में अपने लिए सर्वत्र समानता की सृष्टि करता है।मेरा अभिप्राय नकटौरा के सकारात्मक आयाम से है। नकटौरा का एक अर्थ नाक कटाकर स्वांग करना भी होता है ,कृपया उस अर्थ में इसके प्रतीकार्थ को न देखा जाए। चित्रामुद्गल किस तरह नारी अधिकारों, स्वायत्तता और समानता की वकालत करते हुए उसे अपने जीवन में अर्जित करती हैं ,वही इस शीर्षक का सही प्रतीकार्थ हो सकता है। इस उपन्यास का आरंभ सारिका के बंद होने और अवधनारायण मुद्गल के पदमुक्त किए जाने से होता है लेकिन जैसे-जैसे कथाक्रम आगे बढ़ता है वैसे- वैसे हर भाग में लेखिका के कथा-विवेक द्वारा हिंदी साहित्य का एक अनमोल संदर्भ जुड़ता जाता है।इसमें दिल्‍ली और मुंबई के बहुस्तरीय जीवन की भरी- पूरी उपस्थिति तथा साहित्य के साथ- साथ समय- समाज, सिनेमा और मीडिया के संदर्भ संश्लिष्ट होकर एक ऐसा पाठ- वितान निर्मित करते हैं कि पाठक उसके वैविध्यपूर्ण चित्रण एवं अंतहीन रोचकता में डूब जाता है। इस उपन्यास का एक बड़ा वैशिष्ट्य पठनीयता है जो प्रयोगधर्मिता के बावजूद अक्षुण्ण है।यह उपन्यास इस बात का प्रमाण है कि हरेक महान रचनाकार का व्यक्तिगत जीवन उसके समय- समाज और विश्वजीवन से इस कदर एकाकार हो जाता है कि उन्हें अलग कर पाना लगभग असंभव होता है। यहाँ चित्रामुद्गल के रचनात्मक व्यक्तित्व का अधिकतम दोहन दिखाई पड़ता है और लेखिका ने अपने चिंतन की गहरी परतों से कथा भूमि को उर्वर बनाया है। इसमें भाषा- शैली अपेक्षाकृत अधिक सहज, प्रसंगगर्भी और सर्जनात्मक पाठ- वितान के साथ प्रस्तुत है। इसमें लेखिका ने नितांत वैयक्तिक संदर्भों में भी रचनात्मक तटस्थता का सम्यक निर्वाह किया है और नकटौरा के संदर्भ को बारात वाली रात के बजाय अपने निजी जीवन- बोध का अटूट अंग बना दिया है। वह पुरुष वर्चस्व वाले समाज में तमाम शिष्टाचारों का निर्वाह करते हुए किस तरह अपने लेखकीय व्यक्तित्व को गढ़ती है , यह समझने का एक अंत: सूत्र संपूर्ण उपन्यास में परिव्याप्त है।यह उपन्यास विशिष्ट प्रकार का बौद्धिक खुलापन लेकर आया है जो नकटौरा के प्रतीकात्मक अनुप्रयोग द्वारा सामाजिक- सांस्कृतिक परिवर्तन की एक बड़ी रेखा खींचता है। यह उपन्यास चित्रामुद्गल के मनुष्यता की श्रेष्ठतम कसौटी है। यह उपन्यास चित्रामुद्गल के अंतर्बाह्य जीवन -संघर्ष, गहन दायित्वबोध, साहित्यिक विमर्श, नारी अस्मिता- बोध , सहज भाषिक अनुप्रयोग, शिल्पगत सौंदर्य और अपने कलात्मक उत्कर्ष के लिए जाना जाएगा।चित्रामुद्गल ने पौधों के साथ बतियाते हुए उनपर मानवीय भावों और चेष्टाओं का आरोप करके उन्हें सचेतन एवं आत्मीय बना दिया है।

इस उपन्यास का एक बड़ा वैशिष्ट्य चित्राजी द्वारा निर्मित सूक्तियां हैं। वे अपने जीवनानुभव और चिंतन के माध्यम से ऐसे वाक्य रच जाती हैं जिनमें एक गहरा जीवन सत्य छिपा रहता है। वे बेटियों और बहुओं के मध्य भेद करने वाली दृष्टि पर विचार करते हुए कहती हैं कि ,” विचित्र है, रिश्ते मानवीय संवेदन से नहीं, संबोधनों की रूढ़ परिभाषा से परिचालित असमानता की कनातें सिर पर ताने हुए अब तक सहज नहीं हो पा रहे।” इसी तरह-” सत्ता को चुनौती वही दे सकता है, जो सत्ता की पीठ पर सवारी करने से इंकार कर सकता है।” ऐसे गहरे और अर्थगर्भी वाक्यों से यह उपन्यास परिपूर्ण है। फलस्वरूप इसकी महत्ता असंदिग्ध है। यह चित्रामुद्गल के दूसरे उपन्यासों से भी अधिक विमर्श का कारण बनेगा। मैं इस सर्जनात्मक उपलब्धि के लिए चित्राजी और प्रकाशक महेश भारद्वाज का हार्दिक अभिनंदन करता हूँ और संपूर्ण हिंदी जगत से आग्रह करता हूँ कि वह इसे अवश्य पढ़े।

  • डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय
    वरिष्ठ प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय
    मुंबई-400098

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