लॉकडाउन: शहरी इलाकों में जंगली जानवर

जंगली जानवर
  • डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

तालाबंदी के इन दिनों में हमने भारत के कई हिस्सों के नगरों, कस्बों और शहरी इलाकों की तरफ ‘जंगली’ जानवर आने की खबर सुनी। खबर मिली कि उत्तराखंड के हरिद्वार में एक हाथी हरि की पौड़ी के काफी नज़दीक आ गया था। अल्मोड़ा में एक तेंदुआ देखा गया था। कर्नाटक में हाथी, चीतल और सांभर जंगलों से निकलकर शहरों में आ गए थे, जबकि महाराष्ट्र में लोगों को काफी संख्या में कस्तूरी बिलाव, नेवला और साही झुंड में दिखे। सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में, जहां भी तालाबंदी हुई और रोज़मर्रा की मानव गतिविधियों पर अंकुश लगा, वहां जानवरों का ‘सीमा लांघकर’ शहरी बस्तियों में आगमन देखा गया। जब यह तालाबंदी हट जाएगी तब उम्मीद होगी कि ये जानवर अपने जंगली परिवेश में वापस लौट जाएंगे – चाहे वह कहीं भी हो और कितना भी सीमित क्यों ना हो।

मामले को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए यह देखिए कि दुनिया का कुल भूक्षेत्र लगभग 51 करोड़ वर्ग किलोमीटर है; इसका लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा मरुस्थल है और 24 प्रतिशत हिस्सा पहाड़ी है; शेष लगभग 45-50 प्रतिशत भूक्षेत्र पर हम मनुष्यों का कब्जा है जिस पर हमने लगभग 17,000 साल पहले समुदायों के रूप में रहना शुरू किया। (इसके पहले तक मनुष्य जंगलों में जानवरों और पेड़-पौधों के साथ शिकारी-संग्रहकर्ता के रूप में रहते थे)। इतनी सहस्राब्दियों में, खासकर पिछली कुछ सदियों में, हमने नगर और शहरी इलाके बसाए और ‘जंगली’ भूमि को ‘सभ्य’ भूमि में तबदील कर दिया। (ध्यान दें कि आज भी आदिवासी और जनजातीय समुदाय जानवरों और पेड़-पौधों के साथ जंगलो में रहते हैं)। भौगोलिक-प्राणीविद तर्क देते हैं कि वाकई में हम इंसान ही हैं जिन्होंने अपनी हदें पार कीं और धरती माता के नज़ारे को बदल दिया।

प्रसंगवश, ऐसा केवल ज़मीन पर ही नहीं बल्कि पानी में भी देखने को मिलता है। बीबीसी न्यूज़ ने बताया है कि कैसे इस्तांबुल में तालाबंदी के दौरान बोस्फोरस समुद्री मार्ग के यातायात में आई कमी के चलते शहर के तटों के करीब अधिक डॉल्फिन देखे गए। इसी तरह, तालाबंदी के दौरान औद्योगिक और मानव अपशिष्ट में हुई कमी के चलते जब पिछले दिनों गंगा का प्रदूषण कम हुआ था तब गंगा में गंगा डॉल्फिन और घड़ियाल (मछली खाने वाले मगरमच्छ) बड़ी संख्या में देखे गए थे। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड के मार्को लैम्बर्टिनी ने चिंता जताई है कि पहाड़ी गोरिल्ला विशेष रूप से असुरक्षित हैं। उनका 98 प्रतिशत डीएनए मनुष्यों से मेल खाता है, इसलिए उनमें भी कोविड-19 संक्रमण हो सकता है। अन्य कपियों की तरह पहाड़ी गोरिल्ला भी अपने प्राकृतवास छिन जाने, अवैध शिकार और बीमारियों के कारण विलुप्ति की दहलीज़ पर है – मध्य अफ्रीका के पहाड़ों में केवल 900 पहाड़ी गोरिल्ला बचे हैं।

पांच कारण

इस स्थिति के एक बेहतरीन विश्लेषण, खासकर अमेरिका के विश्लेषण, में बेटेनी ब्रुकशायर ने sciencenews.org के अपने नियमित कॉलम में 5 जून को एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक है कोविड-19 महामारी के दौरान वन्यजीव अधिक दिखाई देने के पांच कारण। ये पांच कारण हैं: (1) रेस्टॉरेंट बंद हैं और कचरे के ढेर अन्यत्र स्थानांतरित हो गए हैं, इस मानव जूठन के कारण चूहों और कीटों ने भोजन की तलाश में नई जगहों की तरफ कूच किया; (2) चूंकि बहुत सारे मनुष्य और उनके पालतू जानवर आसपास नहीं हैं, तो हिंसक जानवर और हम जैसे सर्वोच्च शिकारियों का डर नहीं; जिससे शहरी क्षेत्रों में जंगली जानवरों की संख्या बढ़ी; (3) आम पक्षी हमसे नहीं डरते। हम उन्हें चहचहाते और गाते हुए देखते हैं। लॉकडाउन के दौरान माहौल खुशनुमा और शांत था और तब ऐसा देखा गया कि पक्षियों ने अपने गीतों और उनको गाने का समय बदला था। (दी साउंड्स ऑफ दी सिटी नामक चल रहा अध्ययन इस विचार का समर्थन करता है); (4) ऋतुएं भी भूमिका निभाती हैं। अमेरिका में, बसंत मार्च से मई के बीच होता है, और तब पक्षी प्रवास करना शुरू कर देते हैं, सांप हाइबरनेशन (शीतनिद्रा) से बाहर आ जाते हैं और भोजन और साथी की तलाश करते हैं। (भारत में भी, खेती का मौसम इसी समय के आसपास शुरू होता है) और अंत में (5) हम खुद भी अन्य समय की तुलना में लॉकडाउन के समय इन सभी विशेषताओं पर अधिक ध्यान दे रहे हैं, और इन सभी को सोशल मीडिया के माध्यम से साझा भी कर रहे हैं।

वैश्विक मानव बंदी प्रयोग

हाल ही में, अमांडा बेट्स और उनके साथियों ने बायोलॉजिकल कंज़र्वेशन पत्रिका के 10 जून के अंक में प्रकाशित अपने पेपर (कोविड-19 महामारी और तालाबंदी: जैव संरक्षण की पड़ताल के लिए वैश्विक मानव बंदी का एक प्रयोग) में एक रोमांचक और उल्लेखनीय सुझाव दिया है। यह प्रयोग वन्य क्षेत्रों और संरक्षित क्षेत्रों समेत विभिन्न प्राकृतिक तंत्र के क्षेत्रों में मानव उपस्थिति और गतिविधियों के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों की पड़ताल करने, और जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र का नियमन करने वाली प्रक्रियाओं का अध्ययन करने का एक अनूठा अवसर है। लेखक पारिस्थितिकविदों, पर्यावरण वैज्ञानिकों और संसाधन प्रबंधकों का आव्हान करती हैं कि वे विविध डैटा स्रोत और व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर एक व्यापक वैश्विक समझ बनाने के प्रयास में योगदान दें। वे तर्क देती हैं कि विविध डैटा का संगठित महत्व, व्यक्तिगत डैटा के सीमित महत्व से अधिक होगा और नया दृष्टिकोण देगा। हम इस ‘मानव बंदी प्रयोग’ को प्राकृतिक तंत्र पर मानव प्रभावों का पता लगाने और मौजूदा तंत्र की ताकत और कमज़ोरियों का मूल्यांकन करने के लिए ‘तनाव परीक्षण’ के रूप में देख सकते हैं। ऐसा करने से मौजूदा संरक्षण रणनीतियों के महत्व के प्रमाण मिलेंगे और विश्व की जैव विविधता संरक्षण को और बेहतर बनाने के नेटवर्क, वेधशालाएं और नीतियां बनेंगी। मेरा सुझाव है कि भारत को भी इस प्रयोग में शामिल होना चाहिए।

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