सुुर असुर कौन सुंदर (हास्य-व्यंग्य ) – प्रेम जनमेजय

सुुर असुर

ह शीर्षक पढ़कर आपके चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान खेल गई होगी जैसे कि चारु चंद्र की चंचल किरणे खेलती हैं या जैसे चुनाव के समय लक्ष्मी माता खेलती है। ( मैंने लक्ष्मी माता इसलिए कहा क्योंकि यदि मैं केवल लक्ष्मी कहता तो आप समझते कि मैं काम वाली बाई लक्ष्मी की बात कर रहा हूं। लक्ष्मी माता कहने से कम से कम हिंदु समझ जाते हैं कि मैं धनधान्य से समृद्ध करने वाली देवी लक्ष्मी की बात कर रहा हूं। वैसे  जो नहीं समझते, देवी लक्ष्मी उनपर भी कृपा करती है, कभी कभी घनघोर कृपा करती है।) आपने अट्ठास  नहीं  किया व्यंग्यात्मक मुस्कान बिखेरी, इसलिए मैं आपकी व्यंग्यात्मक मुस्कान का संज्ञान ले रहा हूं । अट्ठास  तो मैंने रावण को रामलीला में करते देखा है। सीता का अपहरण करते हुए बहुत अट्टहास करता है। आजकल भी बलात्कारी, दूसरे का माल हड़पने वाले तथा आपको गरीबी की रेखा से नीचे ले जाने वाले ऐसा ही अट्टहास करते हैं। सत्ता पर बैठा हर ‘समाजसेवी’ या ‘धर्मसेवी’ ऐसा ही अट्टहास करता है और आप उसके सामने विवश होते हैं। विवशता प्राणी को किसान बना आत्महत्या कराती है अथवा विरोध में  व्यंग्य करवाती है। तो आपकी यह व्यंग्यात्मक मुस्कान कह रही है – हे बेसुरे व्यंग्यकार ! तुझे कब से संगीत का इतना ज्ञान हो गया कि सुर और असुर की बात हम बौद्धिकों के सामने करने लगा? तूं तो भ्रष्टाचार की सुरीली बज रही बांसुरी में व्यंग्य की बेसुरी टांग घुसेड़ता है। आपने उचित कहा माई बाप, मैं बहुत बेसुरा हूं इसलिए प्रेमगीत नहीं लिख पाता हूं। पर मैं संगीत के सुर की बात नहीं कर रहा हूं, श्रीमान जी! मैं तो देवलोक में विराजने वाले देवताओं और और देवलोक में वर्जित असुरों की बात कर रहा हूं।केवल अपनी बात सुनने-सुनाने वाले बौद्धिकों! तनिक मेरी बात सुनें।

कहते हैं कि हमारे देश में तैंतीस करोड़ देवता हैं। वर्षों से इतने ही हैं। गजब का जनसंख्या नियंत्रण है। या फिर भारत भूमि देवताओं के लिए उपजाउ नहीं रही । देवता उपजाने वाला किसान भी भूखा मर रहा है क्या ! असुर कितने हैं इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। देवता अमर हैं, मरते नहीं। देवता  केवल उनके देवत्व को चुनौती देने वाले या इंद्र के सिंहासन को चुनौती देने वाले को मारते है। उनका शत्रु सड़क पर सोया सोया मर जाता है। इसलिए उनका आंकड़ा अमर है। इसलिए उनकी टाॅप टवेंटी वाली तस्वीरें फोब्र्स जैसी पत्रिका में छापती है। असुर अमर नहीं हैं, अतः उनका आंकड़ा अमर नहीं है।

सुर और असुरों का पक्ष-विपक्ष का मामला रहा है। अनेक बार सुर सत्तापक्षी होते हैं और कभी-कभी असुर। बहुत कम हुआ है कि असुर इंद्रासन में विराज गए हों। पर जैसे असुरों का जीवन अमर नहीं है, उनका शासन भी अमर नहीं होता है। प्रजातंत्र तभी जिंदा रहता है जब उसमे सबको बराबर का अवसर मिलता दिखाई देता है। प्रजातंत्र ने सब गड़बड़ कर दिया है। पहले सुर सुर  जैसे होते थे और असुर असुर जैसे। आजकल दोनों का मिक्सचर बाजार में आ गया है। पता ही नहीं चलता कि गद्दी पर बैठा सुर है या असुर। जिसे हम देवता समझ पूजते हैं वह हड़िडयों का व्यापारी निकल आता है। जिसके चरणों में भक्तिन सबकुछ समर्पित करती हैं वही इज्जत लूट लेता है। 

बहुत संशय है। आजकल सुर कब प्रभु बन जाते हैं, यह भी  पता  नहीं चलता। पहले प्रभु भक्ति से प्रसन्न होते थे और मनचाहा वरदान देते थे। उनके वरदान खाली नहीं जाते थे। पर आजकल तो प्रभु भक्ति से पूर्व ही वरदान देते हुए कहते हैं- जा वत्स! तेरे अच्छे दिन आने वाले हैं।’ वत्स भक्त हो जाता है और प्रभुनाम की माला जपता है। पर वत्स के अच्छे दिन नहीं आते। वरदान गरीब को न मिलने वाला न्याय हो जाता है। 

तो मेरा मन आजकल सुर -असुर के संशय से भरा है। मेरे एक मित्र हैं जो निरंतर ज्ञान- ध्यान की बातें करते हैं। जो मुझे समझाते हैं कि असार संसार मायावी है मनुष्य को सबकुछ त्यागकर प्रभु के चरणों में जाना चाहिए। पर मैं अज्ञानी उनसे पूछता हूं कि यदि सभी मनुष्य इस असार संसार को त्याग देंगें तो अन्न कौन उपजाएगा, रेल कौन चलाएगा, जहाज कौन उड़ाएगा आदि आदि ? वे कहते हैं हम करने वाले कौन हैं, ये तो सब प्रभु इच्छा है। तो मैं अज्ञानी उनसे कहता हूं कि यह भी प्रभु कि इच्छा है कि मैं इस मायावी संसार में विषय वासनाओं में पड़ूं। पर अब तो मेरा संशय सुर असुर का था। अतः मैं उनकी शरण में गया।

मैंने कहा – हे ज्ञानी, मेरे संशय का निदान करें। मेरी जिज्ञासाएं पेट्रोल का बढ़ता दाम हो रही हैं या फिर रेल के हादसे हो रही हैं।’’

– चिंता मत करें, मेरे गुरु के पास चलें। वे आपकी हर जिज्ञासा शांत करेंगें। उनके पास हर समस्या का निदान है।

– मित्र! मैं आजकल गुरुओं से अत्यधिक भयभीत होने लगा हूं जैसे रेप पीड़िता थाने में बयान देने से भयभीत होती है। कबीर ने गुरु को गोविंद से श्रेष्ठ बताया है पर आजकल गुरु श्रेष्ठ से श्रेष्ठी हो गए हैं। उनके हाथ में तराजू आ गया है। गुरु गोविंद हो  गए हैं। जैसा चढ़ावा वैसा फल देने वाले हो गए हैं। गुरु गोविंद बन वरदान दे रहे हैं।राजनीतिक गुरु तो और महान् हो गए हैं। वे देवत्व धारण कर आते हैं। उनके देवगुणों का प्रचार होता है। पर जब जनता जनार्दन से संबोधित होते हैं तो देवता से प्रभु हो जाते हैं। आप उनके भक्त हो न हों वे आपको वरदानों के दनादन आश्वासन से आपकी झोली भर देते हैं। इन वरदानों के समक्ष आपको अपना मतदान  क्षुद्र लगता है और आप उनके चरणों में चढ़ा आते हैं। ये दीगर बात है कि आपकी जिस झोली को वे भरते हैं उसमें, मतोपरांत तत्काल छेद हो जाता है। सारे वरदान झर जाते हैं। अच्छे दिन के सपने निराकार प्रभु हो जाते हैं।

– राजनीति में तो यह सब चलता है। आप लेखक हैं, अनावश्यक भयभीत होते रहते है।

– राजनीति में ! हमारे हिंदी साहित्य में भी अनेक राजनीतिज्ञ गुरु हैं। आप तो जानते ही हैं कि आजकल अनेक साहित्यिक गुरु देश की राजधानी में विद्यमान हैं। साहित्य वहीं से संचालित हो रहा है। आप तो जानते हैं कि मैं अकिंचन कस्बाई लेखक हूं । कस्बाई लेखक शुद्ध लेखक नहीं होता है, वह पाठक भी होता है। मेरा मन हुआ कि अपने प्रिय लेखक को अपने कस्बे में निमंत्रित करूं और धन्य हो जाउं। धन्य होने के लिए धन तो जितना मेरे पास है आप जानते ही हैं। मेरा प्रिय लेखक ने शिव, राम, कृष्ण , गांधी आदि पर सात्विक साहित्य रचा है। बड़ी-बड़ी बाते लिखी है।मैंने चाहा  कि वे बड़ी-बड़ी बातो का ज्ञान यहां के छोटे अज्ञानी लोगों को दें। पहले तो उन्होंने मेरा अनुरोध ठुकरा दिया कि हमारे यहां विमान नहीं आता। मेरे मनाने पर मान गए। मैंने उनका प्रबंध यहां की सबसे सात्विक और  आरामदायक धर्मशाला में कर दिया। यहां सात्विक भोजन का प्रबंध था, आध्यात्मिक वातावरण था। पर वे आए और जैसे अव्यवस्था को देख मंत्री अपने सचिव पर भड़कता है, वैसे धर्मशाला नाम सुन भड़क गए। मुझपर प्रश्न दागते हुए बोले,‘ मुझे सुबह नाश्ते में अंडा चहिए होता है, वो कौन देगा? मैं सूर्योदय से पहले भोजन कर अपनी शाम बरबाद क्यों करूं? क्या धर्मशाला मुझे होटल जैसी सुविधा दे सकती है। आदि आदि कहते वे अनादि हो गए।’

– आप नाहक भयभीत हो रहे हैं, मेरे गुरु ऐसे नहीं हैं, सद्गुरु हैं।

– भक्त शिष्य के लिए हर गुरु सद्गुरु ही होता है।

वे हंसे और बोले- आप चलें तो।

दूध का जला होने के बावजूद मैं चला। सोचा छाछ से भी जलकर देख लेता हूं।

अधिकांश गुरु अपनी शरण में आए चेलों को सुरक्षा का अभयदान देते हैं।ये दीगर बात है कि स्वयं सुरक्षा के घेरे में रहते हैं। मुझे अच्छा लगा कि उनके गुरु के आश्रम में सुरक्षा का कोई घेरा नहीं था। गुरु दर्शन के लिए सभी भक्त पंक्तिबद्ध खड़े थे। मैं अभक्त भी पंक्ति बद्ध हो गया। 

मैंने मित्र से कहा – ये अनुशासन तो अद्भुत है।

– अद्भुत तुमने अभी देखा कहां है। गुरु के दर्शन करोगे तो …’

मैं अति अद्भुत को देखने की उत्सुक्ता में पंक्ति तोड़ने लगा तो एक बलिष्ठ हाथ ने मेरी कलाई ऐसे जोर से पकड़ी और दबाई जेसे कोई बाउंसर दबाता है। उसने इतनी दबाई कि मेरी हल्की चींख निकल गई। मैं समझ गया कि बाउंसर स्वयंसेवक के वेश में है। सुरक्षा का घेरा अदृश्य है। मुझे सादृश्य से अधिक अदृश्य से अधिक भय लगता है। जंगल के डाकू मुझे अधिक भयभीत नहीं करते चुनाव के वस्त्र ओढ़े, अधिक करते हैं। 

अंदर गया तो देखा मंद मंद मुस्काराते गुरु किसी वेशभूषा में नहीं थे। न जाने किस वेश में नारायण मिल जाए पर यहां तो… वे निरवस्त्र थे। उनके चरण खाली नहीं थे, उसमें कोई भक्त बैठा था। एक ‘स्वयं सेवक’ ने रुकने को कहा, और कलाई के दर्द ने मेरी परेड थम कर दी। 

मैं मित्र के कान में फुसफसाया – मैंने तो अलंकृत गुरुओं के दर्शन किए हैं, ये तो …

मित्र भी फुसफुसाया- मैंने कहा था न कि अभी अद्भुत देखा ही कहां है। गुरु जी समस्त काम भाव और माया से दूर हैं।

काम भाव और माया से दूर गुरु ने हम कामी और विषय वासना से लिप्त प्राणियों को पास बुला लिया। गुरु मंद मंद मुस्कराए और मंद मंद बोले- कहो क्या  जिज्ञासा है ?

– गुरुदेव, मैं सुर और असुर का भेद जानना चाहता हूं।

– असुर तामसिक प्रवृत्ति के होते हैं, वे मदिरा सेवन करते हैं।

– सुर मदिरा सेवन नहीं करते, गुरुदेव ?

गुरुदेव की मंद मंद मुसकान के साथ भृकुटि तनी- नहीं वे सुरा पीते हैं। असुर भोग विलास में लिप्त रहते हैं। वे दरबार में लड़कियों को नचवाते हैं।

– देवताओं को नृत्य में रुचि नहीं होती क्या, गुरुदेव?

– देवता नृत्य प्रेमी होते हैं। उर्वशी और रंभा जैसी नृत्यांगनाएं शास्त्रीय नृत्य करती हैं। सुर देवत्व संस्कृति की रक्षा करते हैं।

– और असुर ?

– असुर राक्षसीय संस्कृति की।

– पर गुरुदेव …

आप तो जानते ही हैं कि गुरुदेव को अधिक पर पसंद नहीं होते। जिनके अधिक पर होते हैं , उनके पर कट जाते हैं।  वैसे भी इस समय द्वार से संकेत हुआ कि एक वी आई पी  शिष्य उनके दर्शन करना चाहता है। गुरुदेव ने संकेत किया और हमें कुछ दूर बिठा दिया गया।

वी आई पी शिष्य ने चरणों में मस्तक नवाया ओर बोला- आपने जो धर्म का मार्ग दिखाया था और जो दिशा दी थी मैं उसी पे चला। आपका नाम लेने मात्रा से मेरी सारी समस्याएं और जिज्ञासाएं शांत हो गईं। मैंने जब उनके समक्ष आपका बताया हुआ प्रसाद रखा तो उन्होंने पूछा- कितने का प्रसाद है। मैंने कहा कि तुच्छ दो लड्डु का। सीकरी के संत ने न केवल मेरी समस्या का समाधान किया अपितु मेरा सत्कार भी किया। उन्होंने आश्वासन दिया है कि जब भी समस्या हो मैं उनके पास गुरु प्रसाद के साथ जा सकता हूं। गुरु जी आपके प्रसाद की महिमा अपरंपार है।’

गुरुदेव की मंद मंद मुस्कान लौट आई थी। इस बार मुसकान अंर्तयामी वाली थी। 

वी आई पी शिष्य ने फिर गुरु चरणों में माथा रगड़ा और बिन बोले एक बैग उनके चरणों में रख दिया। गुरु मुस्कराए और स्वयंसेवक ने बिना मुस्कराए बैग अपने स्थान पर पहुंचा दिया।

वी आई पी शिष्य माथा नवा चल दिया। अब गुरु केवल मेरे मित्र की ओर (मेरी ओर नहीं ) देखकर मुस्कराए। मित्र उनकी मुस्कराहट के रहस्य की एक एक बूंद से परिचित था। वे उठा। उसने मुझे भी उठने का संकेत किया। उसके पीछे मैंने गुरु चरणों में  मैंने भी प्रणाम किया। हमें बाहर का मार्ग किसी देवी ने नहीे देवता ने दिखाया। 

मैंनें मित्र से पूछा- उस बैग में क्या था।

– मंदिर कल्याण और जल कल्याण की सेवा।

गुरु जो मुझे समझाना चाहते थे उन्होंने वी आई पी शिष्य के माध्यम से समझा दिया था। मैं सुरों के सुर और असुरों के सुर को समझ गया था। इसी सुर में आप देवता और दानव को समझ सकते हैं। मैं समझ गया था कि धर्म के सभी सैनिक   एक समझौता एक्सप्रेस में सवार हैं।

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