भूख से डर लगता है (कविता) – हूबनाथ पांडेय

बांद्रा लाठीचार्ज

मौत से डर नहीं लगता
साहब
भूख से डर लगता है
मौत से तो रोज़ की
आंख मिचौली है
गटर की सुरंग में
निहत्थे उतरते हैं
तो मौत साथ होती है
जब उठाते हैं मैला
बटोरते हैं गंदगी
सभ्य समाज की
बिना किसी सुरक्षा साधनों के
तो हाथ मिलाते हैं मौत से
कचरे में से बीनते हैं
काग़ज़ प्लास्टिक बोतल
तो दस्ताने नहीं होते
बजबजाते नाले पर
पकाते हैं भोजन
वहीं खेलते हैं बच्चे
बिना किसी सेनेटाइजेशन
बरसों से
करघे पर उंगलियां
मौत से खेलती हैं
तब जनमते हैं ख़ूबसूरत
कालीन साड़ियां शाल
पर पेट तब भी नहीं भरता
सूअर के दड़बे से भी
भयानक हैं साहब
हमारे घर
आपका बाथरूम भी
इससे बड़ा होगा
और हवादार
और साफ़ भी
फिर भी हम काट रहें हैं
एक एक पल साल की तरह
कि जानलेवा बीमारी से
बचे रहें आप सब
हमारा क्या
मौत तो हमारे घर में भी
और बाहर भी
इसलिए मौत से डर नहीं
साहब
डर तो भूख का है
जिसका इलाज फ़िलहाल
ऊपरवाले के पास भी नहीं।

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