भारत में कोविड-19 के खिलाफ छिड़ी जंग ने मार्च की शुरुआत के बाद रफ्तार पकड़ी। जिसमें कोविड-19 की पहचान, उससे सुरक्षा, रोकथाम, चिकित्सकीय सलाह और मदद शामिल हैं। इस जंग को जीतने के उद्देश्य में निजी समूहों, उद्योगों, चिकित्सा समुदायों, वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों ने, वित्तीय सहयोग और शोध व विकास कार्य, दोनों तरह से सरकार की तरफ मदद के हाथ बढ़ाए हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST), जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) (और इसके जैव प्रौद्योगिकी उद्योग सहायता परिषद, BIRAC), विज्ञान व इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (SERB), वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR), भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR), DMR, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय (MHFW), प्रतिरक्षा अनुसंधान व विकास संगठन (DRDO) जैसी कई सरकारी एजेंसियों ने कोविड-19 से निपटने के विशिष्ट पहलुओं पर केंद्रित कई अनुदानों की घोषणा की है। दूसरी ओर टाटा ट्रस्ट, विप्रो, महिंद्रा, वेलकम ट्रस्ट इंडिया अलायंस और कई बहुराष्ट्रीय फार्मा कंपनियां भी इस संयुक्त प्रयास में आगे आई हैं।
सबसे पहले तो यह पता लगाना होता है कि कोई व्यक्ति इस वायरस से संक्रमित है या नहीं। चूंकि कोविड-19 नाक के अंदरूनी हिस्से और गले के नम हिस्से में फैलता है इसलिए यह पता करने का एक तरीका है थर्मो-स्क्रीनिंग (ताप-मापन) डिवाइस की मदद से किसी व्यक्ति के नाक और चेहरे के आसपास का तापमान मापना (जैसा कि हवाई अड्डों पर यात्रियों के आगमन के समय, या इमारतों और कारखानों में लोगों के प्रवेश करते समय किया जाता है)। जल्दी, विस्तारपूर्वक और सटीक जांच के लिए विदेश से मंगाए फुल बॉडी स्कैनर जैसे उपकरण बेहतर हैं जो शरीर के तापमान को कंप्यूटर मॉनीटर पर अलग-अलग रंगों से दर्शाते हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने जांच के लिए 1,000 डिजिटल थर्मामीटर और 100 फुल-बॉडी स्कैनर दिए हैं।
ज़ाहिर है कि भारत में इन उपकरणों की ज़रूरत हज़ारों की संख्या में है। इस ज़रूरत ने, भारत के कुछ कंप्यूटर उद्योगपतियों को इस तरह के बॉडी स्कैनर भारत में ही बनाने के लिए प्रेरित किया है, जो कि एक सकारात्मक कदम है। हमें उम्मीद है कि ये बॉडी स्कैनर जल्द उपलब्ध होंगे।
इन उपकरणों द्वारा किए गए परीक्षण में जब कोई व्यक्ति पॉज़ीटिव पाया जाता है तो जैविक परीक्षण द्वारा उसके कोरोनावायरस से संक्रमित होने की पुष्टि करने की ज़रूरत होती है। एक महीने पहले तक हमें, इस परीक्षण किट को विदेश से मंगवाना पड़ता था। लेकिन आज एक दर्जन से अधिक भारतीय कंपनियां राष्ट्रीय समितियों द्वारा प्रमाणित किट बना रही हैं। इनमें खास तौर से मायलैब और सीरम इंस्टीट्यूट के नाम लिए जा सकते हैं जो एक हफ्ते में लाखों किट बना सकती हैं। इससे देश में विश्वसनीय परीक्षण का तेज़ी से विस्तार हुआ है। संक्रमित पाए जाने पर मरीज़ को उपयुक्त केंद्रों में अलग-थलग, लोगों के संपर्क से दूर (क्वारेंटाइन) रखने की ज़रूरत पड़ती है। यह काफी तेज़ गति और विश्वसनीयता के साथ किया गया है, जिसके बारे में आगे बताया गया है।
वायरस के हमले से अपने बचाव का एक अहम तरीका है मुंह पर मास्क लगाना। (हम लगातार यह सुन रहे हैं कि मास्क उपलब्ध नहीं हैं या अत्यधिक कीमत पर बेचे जा रहे हैं।) यह धारणा गलत है कि हमेशा मास्क लगाने की ज़रूरत नहीं है। वेल्लोर के जाने-माने संक्रमण विशेषज्ञ डॉ. जैकब जॉन ने स्पष्ट किया है कि चूंकि वायरस हवा से भी फैल सकता है इसलिए सड़कों पर निकलते वक्त भी मास्क पहनना ज़रूरी है। इसलिए भारत के कई उद्यमी और व्यवसायी वाजिब दाम पर मास्क तैयार रहे हैं। व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बेबी डायपर (नए), पुरुषों की बनियान (नई), साड़ी के पल्लू और दुपट्टे जैसी चीज़ों से मास्क बनाने के जुगाड़ू तरीके बता रहे हैं। खुशी की बात है कि इस मामले में सरकार के स्पष्टीकरण और सलाह के बाद अधिकतर लोग मास्क लगाए दिख रहे हैं। टीवी चैनल भी इस दिशा में उपयोगी मदद कर रहे हैं। वे इस मामले में लोगों के खास सवालों और शंकाओं के समाधान के लिए विशेषज्ञों को आमंत्रित कर रहे हैं।
इसी कड़ी में, हैदराबाद के एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट के मेरे साथी डॉ. मुरलीधर रामप्पा ने हाल ही में चश्मा पहनने वाले लोगों को (और आंखों के डॉक्टरों को भी) सुरक्षा की दृष्टि से सलाह दी है। वे कहते हैं: यदि आप कॉन्टैक्ट लेंस पहनते हैं, तो कुछ समय के लिए चश्मा पहनना शुरु कर दें क्योंकि चश्मा पहनना एक तरह की सुरक्षा प्रदान करता है। अपनी आंखों की जांच करना बंद ना करें, लेकिन सावधानी बरतें। इस बारे में नेत्र चिकित्सक कुछ सावधानियां सुझा सकते हैं। अपनी आंखों की दवाइयों को ठीक मात्रा में अपने पास रखें, और अपनी आंखों को रगड़ने से बचें।
केंद्र और राज्य सरकारों और कई निजी अस्पतालों द्वार अलग-थलग और क्वारेंटाइन केंद्र स्थापित किए जाने के अलावा कई निजी एजेंसियों (जैसे इन्फोसिस फाउंडेशन, साइएंट, स्कोडा, मर्सडीज़ बेंज और महिंद्रा) ने हैदराबाद, बैंगलुरु, हरियाणा, पश्चिम बंगाल में इस तरह के केंद्र स्थापित करने में मदद की है। यह सरकारों और निजी एजेंसियों द्वारा साथ आकर काम करने के कुछ उदाहरण हैं। जैसा कि वे कहते हैं, इस घड़ी में हम सब साथ हैं।
सुरक्षा (और इसके फैलाव को रोकने) की दिशा में एक और उत्साहवर्धक कदम है क्वारेंटाइन केंद्रों में रखे लोगों पर निगरानी रखने वाले उपकरणों, इनक्यूबेटरों, वेंटिलेटरों का बड़े पैमाने पर उत्पादन। महिंद्रा ने सफलतापूर्वक बड़ी तादाद में ठीक-ठाक दाम पर वेंटिलेटर बनाए हैं, और डीआरडीओ ने चिकित्सकों, नर्सों और पैरामेडिकल स्टॉफ के लिए सुरक्षा गाउन बनाने के लिए एक विशेष प्रकार का टेप बनाया है।
कोरोना संक्रमण से सुरक्षा के लिए टीका तैयार करने में भारत को संभवत: एक साल का वक्त लगेगा। हमें आणविक और औषधि-आधारित तरीके अपनाने की ज़रूरत है, जिसमें भारत को महारत हासिल है और उसके पास उम्दा आणविक और जीव वैज्ञानिकों की टीम है। फिलहाल सरकार तथा कुछ दवा कंपनियों ने कई दवाओं (जैसे फेविलेविर, रेमडेसेविर, एविजेन वगैरह) यहां बनाना और उपयोग करना शुरु किया है, और ज्ञात विधियों की मदद से इन दवाओं में कुछ बदलाव भी किए हैं। सीएसआईआर ने कार्बनिक रसायनज्ञों और बायोइंफॉर्मेटिक्स विशेषज्ञों को पहले ही इस कार्य में लगा दिया है, जो प्रोटीन की 3-डी संरचना का पूर्वानुमान कर सकते हैं ताकि सतह पर उन संभावित जगहों की तलाश की जा सकें जहां रसायन जाकर जुड़ सकें। मुझे पूरी उम्मीद है कि टीम के इन प्रयासों से हम इस जानलेवा वायरस पर विजय पाने वाली स्वदेशी दवा तैयार कर लेंगे। हां, हम कर सकते हैं।
और, अच्छी तरह से यह पता होने के बावजूद कि लाखों दिहाड़ी मजदूर अपने गांव-परिवार से दूर, बड़े शहरों और नगरों में रहते हैं, राज्य और केंद्र सरकारों ने उनके लिए कोई अग्रिम योजना नहीं बनाई थी। और ना ही लॉकडाउन के वक्त उनकी मज़दूरी की प्रतिपूर्ति के लिए कोई योजना बनाई गई थी, जबकि इस लॉकडाउन की वजह से वे अपने घर वापस भी नहीं जा सके। इसके चलते लॉकडाउन से सामाजिक दूरी बढ़ाने और इस संक्रमण के सामुदायिक फैलाव को रोकने में दिक्कत आई है। सामाजिक दूरी रखना भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है, जबकि भेड़चाल है। इस बात के प्रति सरकार के समाज वैज्ञानिक सलाहकार सरकार को पहले से ही आगाह कर देते तो समस्या को टाला जा सकता था।