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- हूबनाथ पाण्डेय
अंधेरे ने ख़रीदे
बेशुमार दिये मिट्टी के
ख़रीदे तालाब तेल के
रूइयों के गट्ठर के गट्ठर
सजाए दिये की पाँत पर पाँत
बेतहाशा बरसती
रौशनी के ठीक नीचे
जगमगाए दिये मिट्टी के
हज़ारों वॉट बत्तियों तले
कँपकँपाए दिये अदने से
पहर भर रात के आँचल में
बेहोश लुढ़के दिये
रोशनी की झालरों तले
अपनी बेचारगी में
असहाय पड़े
बिलकुल वैसे ही
जैसे इन्हें गढ़नेवाले
तेल उगानेवाले
रूई बीनने और धुननेवाले
बेबस हाथ
अपने घुटने मसलकर
उठने की कोशिश कर रहे
सुबह होते ही
इन्हें बुहारकर
महरिन फेंक आएगी
घूरे पर
दियों के दाग़ धब्बे
धो पोंछ दिए जाएँगे
ख़ूबसूरत चौखट से
और ज़िंदगी खो जाएगी
बिजलियों की चकाचौंध में
किंतु कुछ दिये नहीं उठेंगे
उनमें न तेल बची न बाती
बची है तो सिर्फ़ ज़िद
ग़ुस्से की थरथराती
अदृश्य लौ
अंधेरे के विरुद्ध नहीं
बिकी रौशनी के ख़िलाफ़
उस मशालची के ख़िलाफ़
जिसने तेल की नहरों में
पानी भर दिए
उस मुंसिफ़ के ख़िलाफ़
जिसका घर बंधक है
अंधेरों की चौखट
रौशनी से महरूम
ये अदने से दिये
कभी जले न जलें
इन्हें ग़म नहीं
पर ये भी कम नहीं
कि निर्लज्ज रौशनी के
क्रूर साम्राज्य में
ये आज भी बिकाऊ नहीं !
2panegyric