‘बंजारे’ डॉ. उमेशचन्द्र शुक्ल का सद्यः प्रकाशित गीत संग्रह है । आर. के. पब्लिकेशन, मुंबई द्वारा प्रकाशित इस कृति में कुल 73 गीत हैं । ये गीत डॉ. शुक्ल के नितांत निजी स्वर हैं । ‘स्व की खोज’ में उपजे शब्द गीत के रूप में ढलते चले गए । लालित्यपूर्ण प्रवाह इस गीत संग्रह की विशेषता है । 124 पृष्ठों में सिमटी यह पुस्तक मौन को शब्द देती-सी व्यापक बन पड़ी है । पीड़ा जब असह्य होती है तो कविता में उतर आती है किंतु जब कविता असमर्थ होती है तो वह गीत में ढल जाती है । इसीलिए नरेंद्र शर्मा जी ने लिखा होगा, ” गद्य जब असमर्थ होता है तो कविता जन्म लेती है । कविता जब असमर्थ हो जाती है तो गीत जन्म लेता है ।” सम्भवतः ‘बंजारे’ भी इसी तरह की सुपरिणति है ।
पुस्तक के प्रारंभिक दो गीत ‘सरस्वती-वंदना’ और ‘कुल-गीत’ पारम्परिक होते हुए भी समसामयिक हैं । इसके उपरांत पृष्ठ क्रमांक 40 तक प्रेम और सौंदर्य के गीत अविरल प्रवाहित हो रहे हैं । वास्तव में उड़ना, एक तरह से चलना है । रुक जाना, हार मान लेना है । इसलिए जो कुछ भी जीवन में मिलता है उसे स्वीकार कर आगे बढ़ते रहना चाहिए । थोड़ी समय के लिए रुकना ‘विश्राम’ है किंतु पुनः उत्साह से चल पड़ना ‘बंजारों की रीति’ है । प्रस्तुत पुस्तक के अधिकांश गीत मानस-मंथन से निकले टटके नवनीत हैं । इनमें काल के साथ लंबी यात्रा करने का माद्दा है । संग्रह से गुजरते हुए शब्दों का जादू सिर चढ़कर बोलता है । गीतों की इस अनोखी यात्रा में कई पड़ाव हैं । कहीं रास्ते पर बिछा लाल-मखमली कालीन है तो कहीं मह-मह करती वीथिकाएँ देवकानन का एहसास कराती हैं । कहीं सच्चाई की खुरदुरी जमीन है तो कहीं आक्रोश । अवधी एवं भोजपुरी के शब्द गीत को मतवाली-मदमाती गति देते हैं । एक बानगी देखें –
“मृग-तृष्णा का खेल छोड़ दो,
दौड़-दौड़ चकराया हिरना ।
अब, पिंजरे का द्वार खोल दो,
बोल-बोल पथराया सुगना ।।”
चीजों को देखकर गीतकार का अंतर्मन बेचैन है । वह प्रश्नों की झड़ी लगा देता है । ऐसी झड़ी जिसमें शाश्वत सत्य करवट लेता है । अपार सौंदर्य बिखरा पड़ा है । ‘कब छूटा संसार मिलेगा’ शीर्षक गीत में निसर्ग के निर्दोष विस्तार पर उत्पन्न कौतूहल को देखें , “कब नदिया के चंचल मन को / सागर का श्रृंगार मिलेगा / कब तक पंथ निहारे हंसा / कब मोती का प्यार मिलेगा ।” डॉ. शुक्ल के गीत इनके जीवन के सच्चे दर्पण हैं । सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव और मिलन-विछोह के जीवंत दस्तावेज़ । हृदय की पीर गीतों में बह चली है । वे स्वयं ‘अपनी बात’ में स्वीकार करते हैं, “बंजारे मेरे बनने-बिगड़ने का साक्षी रहा है । मनुष्य का मन अनेकानेक रूप, कार्य व्यापारों में विचरण करता है । जब मनुष्य इदम, अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूतियों को ग्रहण करने लगता है तब उसका हृदय बन्धनों से परे सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की ओर उन्मुख होता है ।”
भारत एक उत्सवधर्मी देश है । यहाँ ऋतुओं के आधार पर त्योहार मनाए जाते हैं । गीतकार के जीवन पर उनके परिवेश का गहरा प्रभाव है । डॉ. शुक्ल का परिवेश मंदिर, घंट-घड़ियाल, शंख, शिवालय, नदी आदि से बनता है । इनके अलावा यहाँ फाग का चटक रंग, गोरी का धानी चूनर, अधखिली कलियाँ एवं महकता विश्वास है । सावन की कजली और कोयल की कूक का जादुई असर गीतों में आद्यंत मिलेगा । इनको पढ़ते समय मन तृप्त होता है किंतु आत्मा की प्यास बढ़ती जाती है । इस संदर्भ में निम्नलिखित पंक्तियाँ ध्यातव्य हैं –
“झरनों ने जितने गीत लिखे,
सब तेरी ही अंगड़ाई है ।
फूलों में जितने गंध बहे,
तेरी गलियों से आयी है ।”
फागुन में एक नशा होता है । प्रकृति की ख़ुमारी से सभी मदमत्त हो उठते हैं । रंगों के अलमस्त मछेरे आँगन-आँगन घूमने लगते हैं । ऐसे में गीतकार ने एक खूबसूरत बिंब इस प्रकार प्रस्तुत किया है –
“महुआ की मादकता से, पागल हो जाती बस्ती है ।
फागुन की फगुआई गोरी जब खिल-खिल कर हँसती है ।”
इसी प्रकार ‘फागुन की गली’ शीर्षक में भी पूरा परिवेश जीवंत हो गया है । दूसरी ओर सावन के मौसम में टूटते नदियों के तटबंध और आवारा बादल की मनमानी बिना रोक-टोके चलती है। कोयल, पपीहा, जुगनू, मेंढक, कजरी, हरियाली आदि का समवेत चित्रण एक मांगलिक परिदृश्य प्रस्तुत करता है । ‘सावन’ शीर्षक की इन पंक्तियों की प्रभावोत्पादकता देखें –
“है टँगी चाँदनी बादल की,
हरियाली की कालीन बिछी ।
फसलें सज बनी बराती हैं,
हर तरफ खुशी की धूम मची ।
अमरायी में कोयल कूक रही,
जैसे बजती शहनाई है ।
मेंढक पण्डित बन जाता है,
मंत्रों से प्रकृति नहायी है ।”
डॉ. उमेश की पीड़ा मात्र अपनी मिट्टी से दूर होने की कसक को लेकर ही नहीं है बल्कि इनके बहुतेरे गीत व्यक्ति और समाज के नैतिक पतन को भी रेखांकित करते हैं । राजनीति की बाजीगरी से कवि का मन चिंतित है । यथार्थ को बड़ी ईमानदारी के साथ बयां किया गया है । आज भी ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाला सामाजिक सिद्धांत हमारे देश में कायम है । समाज का एक कटु सत्य ‘चमचा महात्म्य’ शीर्षक गीत में इस प्रकार चित्रित है –
“जो कल का बज्र लोफर था,
बना वो टाप का वक्ता ।
जो सचमुच देश प्रेमी था,
बना है मौन वो श्रोता ।।”
पुस्तक में ‘आतंक क्यों’, ‘सुलग रही चिंगारी’, ‘भइया मैं तो किसान हूँ’, ‘हमें फिर जागना होगा’, ‘गंगो-जमन बेच देंगे’, ‘कहाँ पर द्वार है’, ‘सौदा न करो’, ‘सागर पार बसेरा है’, ‘सपनों का व्यापारी’, नेता’, ‘जीवन’, ‘कविता की पीड़ा’, ‘आरती गीत’, ‘धर्म की ध्वज’, ‘जागरण’, ‘ढूँढ़ रहा बंजारा’ और ‘कवि की चिंता’ जैसे गीतों में सामाजिक विद्रूपताओं को बड़ी गहराई से निरूपित किया गया है । यहाँ शुक्ल जी के कई मनोभाव जैसे चिंता, दुख, निराशा, क्षोभ, आक्रोश, करुणा, सहानुभूति, प्रेम, उम्मीद आदि गीतों में घुल-मिल गए हैं । तमाम विषमताओं के बावजूद ‘बंजारे’ का गीतकार युवाओं का आह्वान करते हुए लिखता है –
“क्यों हो पीछे खड़े, आओ आगे बढ़ो,
सामने है प्रगति, सीढ़ियां तुम चढ़ो ।
देश की मूर्ति सुंदर बनानी है तो,
मूर्ति को खूब मन से लगाकर गढ़ो ।।”
देश की बदहाली से क्षुब्ध रचनाकार की दृष्टि सीमित नहीं है । वह राष्ट्रवाद से ऊपर उठकर ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के साथ खड़ा होता है । गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के ‘यत्र विश्वैक नीडम्’ की कल्पना का अक्षरांकन करता है । रुडयार्ड किपलिंग के उस दुनिया में प्रवेश कर जाता है जहाँ लोग निर्भय होकर सिर ऊंचा किए चलते हैं । ‘सागर पार बसेरा है’ शीर्षक गीत की इन पंक्तियों पर गौर फरमाएं –
“चल-चल उस गाँव जहाँ की गंगा पावन,
प्रतिपल-प्रतिक्षण झूल रहा इठलाता सावन,
युग-युग से मंगल ध्वनि की बजती शहनाई,
एकोहम का स्वर गूँजे मनभावन पावन ।
नहीं दिशा के बंटवारे का भ्रष्ट ढिढोरा है,
गजलों जैसी रात वहाँ, गीतों सा सबेरा है।।”
‘अन्वेषण-अनुसंधान’ और ‘सृजन-आविष्कार’ के लिए गतिशीलता आवश्यक है । यही गतिशीलता जब किसी सर्जक में उतरती है तो ‘बंजारे’ जैसी कृति का निर्माण होता है । रचनाधर्मिता के लिए यह आवश्यक शर्त भी है । डॉ. उमेश ने बड़ी गहराई से बंजारा-प्रवृत्ति को व्यापकता प्रदान की है । यहाँ इनकी दार्शनिक दृष्टि ‘सहस्रार’ तक पहुंचती है । संपूर्ण सृष्टि के उत्स की ओर इशारा करते हुए ‘ढूँढ़ रहा बंजारा’ शीर्षक गीत में लिखते हैं –
“बरगद के पत्ते पर लेटा
बाल रूप मुस्काए,
सब बचपन का खेल महल था
हँसता हुआ बताए ।
ब्रह्म हँसे ध्वनियों में निश्छल
ध्वनि हँसती शब्दों में,
शब्दों का भंडार यहाँ है
नाच उठा बंजारा ।”
संग्रह में कहीं-कहीं टंकण संबंधी असावधानी के कारण शब्द-विपर्यय हुआ है जिसके कारण अर्थ-परिवर्तन एवं गीतों का प्रवाह बाधित है । प्रतीकों का अभिनव प्रयोग गीतों में चमत्कार पैदा करता है । श्रृंखलाबद्ध बिंब अपनी खूबसूरती में बेजोड़ हैं । शिल्प संबंधी भाषिक संरचना सफल एवं बेशकीमती हैं । आंचलिक शब्दों का प्रयोग सटीक और सार्थक बन पड़ा है । लीक से हटकर लोकभाषा में लिखे दो गीत अत्यंत मर्मस्पर्शी बन पड़े हैं – ‘नेता’ और ‘शहीद’ । शहीद की माँ, बहन और पत्नी की गर्वोक्ति कथ्य को गहराई एवं घनत्व प्रदान करती है – “घनि-घनि अँचरा हमार की अँचरा फहरि गइलैं हो बहिनी / घनि मोरे दुधवा क धार की पुतवाँ अमर भइलै हो / तेल अपटनवां क मोल, जतनियाँ क मोल चुकउलैं / जाइके सिमवा प ललना चुकउलैं की बैरी हहरि गइलैं हो ।”
गीत संग्रह में सौंदर्य ने कहीं भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया है । सादगी का ओज ‘बंजारे’ में सर्वत्र महसूस होता है ।
निष्कर्षतः समकालीन गीत लेखन में ‘बंजारे’ अपना विशिष्ट स्थान रखती है । यह अपनी वैविध्यता में अनमोल है । भोगी हुई जिंदगी का जीवंत दस्तावेज़ । इसे पढ़कर एक बहुरंगी किंतु यथार्थ की दुनिया आंखों में तैरने लगती है । सूखती संवेदनाओं के दौर में प्रस्तुत गीत संग्रह अपने पाठकों के अन्तःमन को भिगोने में पूर्णतया सक्षम है । मुझे यकीन है कि डॉ. उमेशचंद्र शुक्ल की यह पुस्तक हिंदी जगत को अपनी दमदार उपस्थिति से समृद्ध करेगी । अस्तु ।
समीक्षक : डॉ. जीतेन्द्र पाण्डेय
पुस्तक – बंजारे (गीत संग्रह)
गीतकार – डॉ. उमेशचंद्र शुक्ल
प्रकाशक – आर. के. पब्लिकेशन, मुंबई
मूल्य – ₹ 175