कई महीनों की कोशिश के बाद मुंबई विश्वविद्यालय के असोसिएट प्रोफेसर डॉ. हूबनाथ पाण्डेय जो एक कवि, लेखक और आलोचक भी हैं, से साक्षात्कार के लिए मुलाक़ात करना संभव हुआ। उनकी व्यस्तता, उनके आसपास विद्यार्थियों की जमघट, लेक्चर के लिए आते ही उन्हें अपने रूम से निकलते देखना, अक्सर उनकी व्यस्तता साक्षात्कार के लिए मिलने का वादा लेने से भी पीछे खींचती रही। इतनी व्यस्तता के बावजूद विद्यार्थी उनके पास अपनी समस्या लेकर आते और डॉ. हूबनाथ उनका समाधान पूरे मनोयोग से कराते भी रहें। इस साक्षात्कार के लिए उनकी सहमति जानने पर, पहले …. इसकी कोई जरूरत नहीं है, …. फिर क्या होगा साक्षात्कार से, …. तुम खुद ही प्रश्न का उत्तर दे दो, ….. फिर ठीक है किसी दिन मिलते हैं ….. के बाद आखिरकार दिन तय होने की तारीख …. रद्द होना ….. और आज वह दिन कि मैं उनका साक्षात्कार ले पाई …. वाकई एक अत्यंत सुखद अनुभूति है।
खुद के लिए नहीं, पर किसी की व्यथा सुन कर मदद के लिए दौड़ जाने वाले, फोन पर भी बीमारी का इलाज बताने वाले, सहायता की ख़ातिर हर संभव कोशिश करने वाले हूबनाथ सर जिनसे विद्यार्थी पारिवारिक परेशानी का हल पूछने से भी नहीं कतराते। अक्सर सुबह-सुबह विश्वविद्यालय में पौधों में पानी डालते, कौओं या अन्य पक्षियों की तस्वीर लेते उन्हें देखा जा सकता हैं। किसी कार्यक्रम में उपस्थिती न देते हुए किसी जरूरतमंद की मदद करते उन्हें देखना मामूली बात है। डॉ हूबनाथ पाण्डेय जिन्हें मैं सर कहती हूँ मेरे गुरु भाई भी हैं। आइए उनके उदगार, शब्दों और पंक्तियों पर गौर करें, अलग कुछ सुने, कुछ गुने .. !!
– रीता दास राम
पहली कड़ी :
रीता : आप कवि हैं और प्रोफेसर भी है। जानना चाहूंगी शिक्षा और साहित्य का रिश्ता क्या है ? क्या दोनों एक दूसरे पर आश्रित है? साहित्य कब शिक्षा के योग्य समझा जाता है? या किस प्रकार के साहित्य को शिक्षा में जगह दी जाती है ?
डॉ. हूबनाथ : शिक्षा की शुरुआत वैदिक काल से हुई। बहुत प्राचीन काल में जाए तो वैदिक काल में, ऋग्वेद में, शिक्षित करने की बजाय सूचित करना उनका उद्देश्य होता था। क्योंकि शिक्षा का आधुनिक टर्म (तरीका/पद्धति) तब तक नहीं आ पाया था। वैदिक साहित्य हमारा सबसे पुराना साहित्य है। वह शिक्षित करने के लिए ही था। शिक्षा शब्द जो है वो वैदिक काल में संस्कृत में फोनेटिक्स को बोला जाता था। जो ध्वनि विज्ञान है। पहले इस रूप में शिक्षा शास्त्र हमारे यहाँ हुआ करता था। हम उसकी बात नहीं करेंगे। मेरे ख़्याल से आप एजुकेशन (शिक्षा) के बारे में पूछ रही है। एजुकेशन में तीन चीजें होती है। एक तो इन्फोर्म (सूचित) करना। दूसरे एवेयर (जानकारी देना/ परिचय कराना) करना। तीसरे रिस्पोंसिबल (जिम्मेदार) बनाना। ये तीनों कार्य साहित्य करता है। हमने साहित्य को शिक्षा का माध्यम ही माना था। साहित्य इसलिए माना था क्योंकि साहित्य को हमारे यहाँ पर जैसे प्रेमिका का उपदेश होता है वह बुरा नहीं लगता है। जैसे वह कांतासम्मित उपदेश जो मम्मट ने कहा। उसके माध्यम से आप शिक्षित करे तो लोग चीजों को समझते हैं। हमारे यहाँ साहित्य शिक्षा के ही काम आया करता था। अभी भी हमारा पुराना साहित्य जो है वह कहीं न कहीं शिक्षा के तीन मानदंडों पर आधारित है कि एक तो वह सूचित करता है। दूसरे यह सब आपके ग्रोथ (बढ़ोत्तरी) के लिए ही होता है। साहित्य भी आपके अंदर कुछ विकास और आपको जागरूक करता है और शिक्षा भी करती है। शिक्षा असल में उद्देश्य है और साहित्य माध्यम है।
रीता : आज कल जो साहित्य लिखा जा रहा है और पहले जो साहित्य लिखा जाता रहा …. दोनों को देखते हुए आप क्या कहना चाहेंगे?
डॉ. हूबनाथ : पहले के और अभी लिखे जाने वाले सारे के सारे साहित्य साहित्य ही है। आज लिखा जा रहा हो या हज़ार साल पहले लिखा गया हो, अगर साहित्य है तो शिक्षा के लिए ही है। साहित्य लिखा जा रहा है तो उसका एक पाठक होगा। साहित्य में एक बात होती है जो लेखक के अपने अनुभव पर आधारित होती है। लेखक की अपनी सीमा है। उस सीमा के भीतर जो वह महसूस करता है, देखता है, निरीक्षण करता है, उसके आधार पर लिखता है। लिखते समय कवि या लेखक यह नहीं सोचता कि मैं यह लिख कर लोगों को बिगाड़ दूँ या बर्बाद कर दूँ। लोगों को गलत रास्ते पर ले जाऊँ, ऐसे विचार से तो साहित्य लिखा नहीं जाता है न ! लेखक के मन में कोई बात है वो लोगों तक पहुँचे। वह अच्छी बात ही होती है जो वह लोगों तक पहुंचाने की कोशिश वह करता है। साहित्य यह बुनियादी रूप से शिक्षा ही है।
रीता: तो क्या कारण है कि सारे साहित्य का चुनाव शिक्षा के लिए नहीं किया जाता ?
डॉ. हूबनाथ: उसके दो कारण है। एक तो कारण है राजनीति। एक निश्चित राजनीति के तहत हम तय करते हैं कि हम किसको पढ़ाएँ और किसको न पढ़ाए। जैसे हमारी शिक्षा पद्धति एक विशिष्ट विचार धारा को लोगों तक पहुँचाना चाहती है। उस विशिष्ट विचार के तहत जो फिट बैठता है वह पढ़ाया जाता है। जो नहीं बैठता है वह नहीं पढ़ाया जाता है। हमारे यहाँ बेचन शर्मा ‘उग्र’ नहीं पढ़ाए जाते। ‘राजकमल चौधरी’ भी नहीं पढ़ाए जाते। यह एक राजनैतिक व्यवस्था होती है जो यह तय करती है। दूसरे यह है कि साहित्य बहुत ज्यादा लिखा जा रहा है। हम जो सिलेबस बनाते हैं वो तीन साल के लिए बनाते है। उसमें लिमिटेड (सीमित) ही चीजे पढ़ानी पड़ती है। हम उसमें से सिलेक्ट (चयन) करते है। अब उस सिलेक्शन (चयनित) में भी एक तरह की राजनीति होती है कि मैं किस पब्लिशर (प्रकाशक) को खुश करूँ। किस लेखक को खुश करूँ। ये भी चीज़ होती है कि किससे फ़ायदा होगा। जो चुनने वाले होते हैं उनकी भी अपनी पसंद होती। जैसे मुझे निराला पसंद है तो मैं निराला को लगाऊँगा। मुझे मुक्तिबोध पसंद है तो मैं मुक्तिबोध को लगाऊँगा। एक और बात होती है वह है फैशन। अन्य यूनिवर्सिटी में क्या चल रहा है। अभी तो मूल रूप से यह देखा जाता है कि ‘यूजीसी’ का सिलेबस क्या है? वह सिलेब्स हमारे सिलेब्स में कवर हो जाए तो वह विषय पढ़ाते है। सिलेब्स हम मुक्त रूप से तय नहीं करते हैं कोई न कोई दबाव हमारे ऊपर रहते हैं।
रीता : याने यह तय है कि कुछ साहित्यकार अच्छे होते हुए भी छूटते होंगे?
डॉ. हूबनाथ : साहित्यकार सारे अच्छे ही होते हैं। साहित्य असल में अगर शिक्षा की बात कर रहा है तो बुनियादी रूप से अच्छा है। जैसे पानी है तो उसका उद्देश्य ही प्यास बुझाना है न ! तो इसलिए साहित्य अच्छा या बुरा नहीं होता। साहित्य की कोई केटेगिरी नहीं होती है। बस हम चुनाव कुछ का कर पाते हैं।
रीता : आपके पसंदीदा साहित्यकार कौनसे है ? और क्यों ? किसने आपको प्रेरित किया?
डॉ. हूबनाथ : पसंदीदा बहुत सारे हैं। एक खलील जिब्रान है। उनके अंदर पूरे सिस्टम के लिए एक तरह का विद्रोह है। विद्रोह के साथ इक्वालिटी (स्तरीयता) की बात वह स्थापित (स्टेबलिस्ट) करना चाहते है। सबसे बड़ी बात खलील जिब्रान में ‘न्याय’ है। जिसे सोशल जस्टिस (सामाजिक न्याय) कहते हैं, हम जिसे यूनिवर्सल जस्टिस (विश्वस्तरीय न्याय) कहते हैं। वह खलील जिब्रान में दिखाई पड़ता है। इसलिए वह मुझे पसंद है। दोस्तोव्यस्की मेरे प्रिय लेखक है। टोल्स्तोय मेरे प्रिय है। गोर्की मेरे प्रिय लेखक है। हिंदुस्तान में प्रेमचंद है। निराला है। मुक्तिबोध, धूमिल है जो मुझे पसंद है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। मैं कह नहीं सकता कि अमुक मेरा प्रिय लेखक है। पंद्रह सोलह साल की उम्र में मैंने खलील जिब्रान को पढ़ा। उनका एक संग्रह ‘विरोधी आत्माएँ’ मुझे फुटपाथ पर कहीं मिल गया था। उस उपन्यास ने मुझे पूरी तरह से बदल दिया। मुझे बदलने वाली किताबें सिर्फ़ ‘दो’ है। दूसरी किताब सिनेमा के डाइरेक्टर रामानंद सागर की है। रामानन्द सागर शरणार्थी के रूप में पाकिस्तान से आए थे। उन्होंने जो मार-काट, हत्याएँ और दंगे देखे थे। उस पर उन्होंने एक उपन्यास लिखी थी ‘और इंसान मर गया’। वह किताब मुझे बी.ई.एस.टी. की लाइब्रेरी में मिली। जब मैं वहाँ काम करता था। उसे पढ़कर मैं भीतर से हिल गया। वह उपन्यास कोई बहुत लोकप्रिय नहीं है। उसका बहुत बड़ा कोई साहित्यिक मूल्य भी नहीं है। किन्तु उसके अंदर मानवीय मूल्य बहुत जबर्दस्त है। उन्होंने उर्दू में लिखा था। मैंने उसका हिन्दी में रूपांतर पढ़ा। मैंने उस किताब के ज़ेरॉक्स कराकर सैकड़ों लोगों को दिए। अभी भी मेरे पास बीस-पच्चीस ज़ेरॉक्स पड़े होंगे। मैं आपको भी दूँगा। ‘और इंसान मर गया’ यह किताब झकझोर कर हमें बताती है कि आप बुनियादी रूप से इंसान हो। ये हिन्दू-मुस्लिम सिर्फ़ एक राजनीति है। उस किताब में एक दृश्य है। ‘आनंद नायक है। वह एक मोहल्ले से गुजर रहा है। वहाँ एक तलवार पड़ी है। एक फ़कीर उस तलवार को उठाकर आग में फ़ेक देता है। नायक जो बहुत सारी हत्याएँ देखा हुआ है। कहता है, तुम्हारी एक तलवार फेंक देने से क्या होगा। तब फ़कीर कहता है कि बुराई के रास्ते से एक भी चीज़ मैं हटा पाऊँ तो वह बहुत बड़ी बात है।’ यह बहुत सुंदर उपन्यास है। पर उपन्यास को उतनी लोकप्रियता नहीं मिली।
रीता : ये बहुत अच्छी बात है कि उस उपन्यास ने आपको प्रभावित किया और आप में बदलाव आए। इसके अलावा और कौनसे उपन्यास है जिनसे आपको प्रेरणा मिली? क्या अपनी जिंदगी के बदलाव के बारे में कुछ बताएँगे ?
डॉ. हूबनाथ : इन दो किताबों के अलावा और किसी किताब से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ। मेरी जिंदगी ही बहुत ज्यादा कोंपलीकेटेड (अव्यवस्थित) रही। मुझे जिंदगी ने ज्यादा सिखाया किताबों ने कम। मैं पहली बार तेरह बरस की उम्र में घर छोड़कर भागा। फिर चौदह बरस की उम्र में घर छोडकर भागा। फिर पंद्रह बरस की उम्र में। महीनों ऐसे भटकता रहा।
रीता : आप घर से भागे क्यों सर?
डॉ. हूबनाथ : पता नहीं क्यों …. मुझे अपना एजुकेशन सिस्टम (शिक्षा व्यवस्था) गलत लग रहा था। पढ़ाई ठीक नहीं लग रही थी।
रीता : या घर से भी कोई परेशानी थी ?
डॉ. हूबनाथ : घर से भी प्रोब्लेम (कष्ट) रहती थी और बाहर से भी प्रोब्लेम (कष्ट) रहती थी।
रीता : तो आपने घर और शिक्षा दोनों का विरोध किया !!
डॉ. हूबनाथ : विरोध नहीं किया। पलायन किया। भागा और भागने के दौरान जो कुछ मुझ पर बीता उससे मैंने जाना कि दुनिया में कोई आदमी बुरा नहीं होता है क्योंकि 13-14 साल की उम्र में भागने पर भी कोई बुरा आदमी मुझे नहीं मिला।
रीता : जब आप घर छोडकर भागे तो उन दिनों आप कहाँ रहे ?
डॉ. हूबनाथ : मैं अलग अलग जगहों पर रहा। कुछ दिनों मैं कल्याण में रहा। कुछ दिन इगतपुरी में। झाँसी में रहा।
रीता : नहीं नहीं … मैं जगह की बात नहीं कर रही हूँ। आपको किसने सहारा दिया?
डॉ. हूबनाथ : वह तो अलग-अलग है। कुछ चोरों की मंडली ने सहारा दिया। एक पुलिस वाला मुझे अपने घर ले गया। एक टीसी अपने घर ले गया। एक रेल्वे वाला अपने घर ले गया।
रीता : घर ले जाकर उनका व्यवहार कैसा रहता था आपके साथ?
डॉ. हूबनाथ : अच्छा रहता था। वो अपने काम के लिए मुझे अपने घर ले जाते थे। जैसे किसी को अपने बेटे को पढ़वाना था। किसी को बाजार से अपने लिए सौदे मँगवाने थे। किसी को अपना कुछ काम कराना होता था।
रीता : तो वह सारा काम सब कुछ आपने किया? और आपने अपने बारे में कुछ नहीं बताया?
डॉ. हूबनाथ : मैं उनसे अपने बारे में कुछ न कुछ झूठ बोलता रहा। उन्हें अपने बारे में कहानियाँ सुनाता रहा। अगर मैं सच बताता तो वो मुझे मेरे घर पहुँचा देते।
रीता : आप जब घर छोडकर भागे और अन्यथा रहते रहे, उस दौरान कोई ऐसी घटना जो आपको अब तक याद है?
डॉ. हूबनाथ : हाँ एक घटना है। मुझे गाँव जाने की जल्दी थी। झाँसी में मैंने एक ट्रेन पकड़ी जो पूरी वातानुकूलित ट्रेन थी। मुझे पता नहीं था। मैं उसमें बैठ गया। टीसी आया। उसने पूछा … “कहाँ जा रहे हो?” (मैं अक्सर यात्रा के दौरान जो भी रेलवे स्टेशन आते थे उसे याद कर लिया करता था सो मुझे स्टेशनों के बारे में थोड़ी मालूमात थी।) मैंने टीसी से कहा “बबीना के पास बरेठ एक स्टेशन है। वहीं जाना है। पिताजी रेल्वे में काम करते हैं। मैं झाँसी से घर जा रहा हूँ।” टीसी ने कहा, “पिताजी रेल्वे में हैं और तुम्हें पता नहीं है कि यह ट्रेन बरेठ में नहीं रुकती है। यह फास्ट ट्रेन है।” मैंने कहा “ठीक है। ट्रेन जहां रुकेगी, मैं वहीं उतर जाऊँगा।” अचानक ट्रेन बीच जंगल में रुक गई। उस वक्त शाम के कुछ पाँच बज रहे थे। शायद जुलाई का महिना था। टी.सी. ने हमें वहीं उतार दिया। मैं और एक घर से भागा हुआ लड़का था। दोनों वहीं उतर गए। आगे और पीछे दूर तक जाती रेल्वे लाईन के अलावा कुछ भी नहीं था। शाम होने लगी थी। आस-पास जानवरों की आवाज़ें आ रही थी। हमने जेब में पत्थर भर लिए कि अगर कोई जानवर आया तो मुक़ाबला करेंगे। लेकिन हमारी कोई औकात नहीं थी। मेरी उम्र चौदह साल के आसपास थी। वह लड़का पंद्रह-सोलह बरस का रहा होगा। फिर हम चलते रहे। रात के ग्यारह बजे तक चलते रहे। तब एक स्टेशन पहुँचे। स्टेशन भी एक भुतहा स्टेशन था। एक छोटी सी कुटिया थी। एक स्टेशन मास्टर का रूम था। वहाँ एक पत्थर की बेंच पर मैं सो गया। जब मैं जंगल के बीचोबीच रेल्वे लाईन पर चल रहा था तो उस समय विचार आ रहे थे कि अगर कोई जानवर मुझे आकर खा जाए तो घर वालों को खबर कैसे होगी। हमारा क्या होगा? ऐसी बहुत सारी चीज़ें दिमाग में आ रही थी। वह अनुभव मौत से जैसे रूबरू होते मेरा पहला अनुभव था।
रीता : तो उसकी दहशत आज भी है?
डॉ. हूबनाथ : नहीं उसके बाद ऐसे कई वकयात आए।
रीता : लेखन की शुरुआत कैसे हुई? यह शौकिया है या जुनून?
डॉ. हूबनाथ : मैं 1981 में बी.ई.एस.टी. की जॉब में लगा था। उस समय मैंने पहली कविता लिखी थी। मेरे दसवीं में मार्क्स कम आए थे। घर वालों को लगा था कि ये पढ़ेगा-लिखेगा नहीं, अतः नौकरी में लगा दिया गया। जून का महिना था। सात या आठ जून को स्कूल खुले थे। मैं सुबह सुबह काम पर जा रहा था। उम्र मेरी 16 साल रही होगी। मैंने उस वक्त स्कूल जाते बच्चों को देखा। उनको देखकर अचानक मेरे अंदर एक कविता आई। एक बच्चा जो पढ़ना चाहता है, पर पढ़ नहीं पा रहा है। कुछ बच्चे स्कूल जा रहे हैं। तो जो बच्चा नहीं जा पा रहा है उस बच्चे के दर्द को मैंने कविता में बयान किया है। मैं ट्रेनिंग सेंटर में था। एक शेख साहब ट्रेनर थे। वे शायर भी थे। मुशायरे में जाने वाले और गज़ल लिखने वाले वे पक्के उस्ताद थे। मैंने उनको अपना लिखा हुआ दिखाया। उन्होंने कहा आइडिया अच्छा है तुम लिखा करो। मैंने लिखना शुरू किया। तब जबकि मुझे साहित्य में आना नहीं था। पढ़ाई करनी नहीं थी। तब मैंने लिखना शुरू किया था।
रीता : तो आप उन्हें गुरु मानते हैं ?
डॉ. हूबनाथ : नहीं। मैं उन्हें गुरु नहीं मानता। वक्त को गुरु मानता हूँ। वक्त मुझे सिखाता है। उन्हें तो बस दिखाया था कि मैंने क्या लिखा है। उन्होंने कहा गज़ल लिखो। मैंने ढाई-तीन सौ गज़लें लिखी। वह मुझे बकवास लगी। उसे मैंने फाड़ कर फेंक दिया। मुझे लगा गज़ल मेरी विधा नहीं है। जिसे मेहनत से लिखा जाए, सोच कर लिखा जाए उसे मैं रचना नहीं मानता। मेरी कविता अपने आप आती है। पंद्रह सेकेंड से दो मिनिट में मेरी कविता ख़त्म हो जाती है।
रीता : शिक्षा और साहित्य एक बिन्दु पर आकर आपस में मिलते हैं दोनों एक दूसरे पर आधारित है। प्रोफेसरों और साहित्यकारों बीच भी कोई सामांजस्य … कोई संबंध बनता है तो कैसा?
डॉ. हूबनाथ : प्रोफेसरशिप एक नौकरी है। जैसे बाकी लोगों की नौकरी होती है। कोई आदमी मेकेनिक की नौकरी करता है। कोई पहरेदार की नौकरी करता है। कोई झाड़ू लगाने की नौकरी करता है। वैसे ही कोई प्रोफेसर है। पहले वह एक मिशन हुआ करती थी। शिक्षा के पीछे एक सेवा का भाव हुआ करता था। अभी, एक रुतबा है। एक तनख्वाह मिलनी चाहिए। उसका फ़ायदा होना चाहिए। आज प्रोफेसर भी उतना ही अपनी नौकरी के प्रति समर्पित होता है जैसे बाकी के पेशेवर लोग होते हैं। अब यह एक प्रोफेशन हो गया है। साहित्य में भी पेशेवर साहित्यकार होने लगे हैं। मूलभूत साहित्यकार भी होते हैं। पेशेवर साहित्यकार तय करता है कि मुझे अमुक विषय पर एक ‘गज़ल’ लिखनी है या एक ‘कविता’ लिखनी है या एक ‘उपन्यास’ लिखना है। उसको छपवाना है या प्रसिद्धि पानी है या पुरस्कार पाना है। जो मूलभूत साहित्यकार होता है। वह संवेदनशील होता है। मेरा एक दोस्त कवि है। वह अब भी मैकेनिक का काम करता है। एक मैकेनिक होते हुए भी वह कवि है, कविता करने के लिए उसे प्रोफेसर होने की जरूरत नहीं। प्रोफेसर होना कवि होने को कोई मदद नहीं करता न ही कवि होना प्रोफेसर होने को मदद करता है। वो दोनों अलग दुनिया ही है।
रीता : दुनिया तो दोनों की अलग ही है लेकिन शिक्षा की वजह से दोनों एक दूसरे से मिलते हैं। यूनिवर्सिटी में रहते हुए मैंने महसूस किया है कि प्रोफेसर और साहित्यकार के बीच एक दूरी है। उस पर आप कुछ कहना चाहेंगे।
डॉ. हूबनाथ : दूरी नहीं है। प्रोफेसरों को गलत फ़हमी है कि वह विद्वान है। साहित्यकार को यह गलत फ़हमी है कि वह कोई बहुत बड़ा काम कर रहा है। दोनों अगर अपने बुनियादी पेशे पर रहे तो अच्छा होगा। प्रोफेसर जो होता है वह बुनियादी रूप से विद्यार्थी होता है किन्तु वह अपने आप को विद्यार्थी नहीं मानता। ठीक उसी तरह साहित्यकार भी एक विद्यार्थी होता है। जिस साहित्यकार को लगे कि मुझे अब सब आ गया है, वह उसी दिन मर जाता है। जिस प्रोफेसर को लगे कि मुझे सब कुछ आता है वह उस दिन ही ख़त्म हो जाता है। अगर प्रोफ़ेसर सचमुच में प्रोफेसर है और साहित्यकार सचमुच में साहित्यकार है, तो कोई दूरी नहीं है। दोनों भूमिका निभा रहे हैं। प्रोफेसर को लगता है कि मैं साहित्यकार को उपकृत करूंगा। बहुत से ओछे किस्म के साहित्यकार प्रोफेसरों के पास आते हैं मेरी किताब सिलेबस में लगवा दो। रामचन्द्र शुक्ल ने आगरा विश्वविद्यालय के हेड को एक लेटर लिखा था, कि मेरी किताब आई है ‘त्रिवेणी’। उसे आप पाठ्यक्रम में लगवा दो। सभी के अंदर इस तरह का भाव होता है कि पाठ्यक्रम में लग जाय लोगों तक पहुँच जाए। दिनकर भी चाहते थे कि उनकी ‘उर्वशी’ पाठ्यक्रम में लग जाय। जिनका बहुत विरोध हुआ था कि यह किताब पाठ्यक्रम में नहीं लगनी चाहिए। लेकिन लोग किसी न किसी तरह से लगवा लेते हैं। इस तरह साहित्यकार शिक्षा के अंदर दखलंदाज़ी करते हैं।
रीता : आपके अनुसार इस दखलंदाज़ी की वजह से प्रोफ़ेसर और साहित्यकार के बीच क्या दूरियाँ बढ़ी है या इनके भीतरी संबंध में दरार है।
डॉ. हूबनाथ : दरार भी आती है और उनके भीतर कोंट्रेक्ट भी पैदा होते है। अब हमारे मुंबई के कुछ घटिया साहित्यकार है जो प्रोफेसर से कह कर अपने ऊपर पीएचडी करवा लेते हैं। ऐसा भी होता है।
रीता : जिंदगी के अनुभव आपके लेखन में आते रहे हैं। कविताओं से पता चलता है मुंबई से आप गहरे जुड़े रहे है। वसई, कोले गाँव का जिक्र भी आपकी कविताओं में मिलता है। यहाँ के बंद होती मिले और कारखानों का जिक्र भी आपकी कविता में हैं। आपकी अपनी जिंदगी के बारे में आपसे सुनना मेरी जिज्ञासा रही है। आपका बचपन … कैसे … ।
डॉ. हूबनाथ : बचपन मेरा …. जिसको वेगा बॉन्ड कहते हैं न … कोई बंधन नहीं। मैं म्युंसिपल स्कूल में पढ़ता था। बचपन मेरा जंगली पेड़ पौधों की तरह अव्यवस्थित था। सिस्टम मुझे पसंद नहीं था। सिनेमा मुझे बहुत अच्छा लगता था। स्कूल से भाग कर मैं सिनेमा देखा करता था। सिनेमा मुझे बहुत आकृष्ट करता रहा।
रीता : आपका जन्म कहाँ हुआ सर?
डॉ हूबनाथ : जन्म मेरा बनारस में हुआ है। परिवार भी बनारस में था। माँ बनारस में रहती थी। पिताजी मुंबई में रहते थे। दादाजी 1930 में मुंबई आए थे। ट्राम में नौकरी करते थे। फिर यहाँ से वापस चले गए। मेरे पिताजी घर से भाग कर 15-16 साल की उम्र में यहाँ कमाने आए थे। वे बी.ई.एस.टी. में काम पर लग गए। मेरे बड़े भाई वकालत करते हैं। उनके पास बहुत सी डिगरियाँ हैं इंजीनियरिंग की, बी कॉम की, लॉ की, मेनेजमेंट की। तीन बहनें हैं तीनों की शादी हो चुकी है।
रीता : आपकी प्रारंभिक शिक्षा बनारस में हुई … या मुंबई में आपने शिक्षण की शुरुआत की?
डॉ. हूबनाथ : सांताक्रूज में सातवीं तक की पढ़ाई हुई। फिर रूईया स्कूल में दसवीं तक पढ़ा। उसमें भी पता नहीं कैसे मैं पास होता चला गया। दसवीं में बहुत कम नंबरों से पास हुआ। 11 वीं में अड्मिशन (दाखिले) के समय दिक्कत हुई। तब एम.डी. कॉलेज में 11 वीं साइंस (विज्ञान) में मेरा अडमिशन (दाखिला) हुआ। वहाँ भी पढ़ाई पर मेरा खास ज़ोर नहीं रहा। घर वालों ने बी.ई.एस.टी. में अप्रेंटिसशिप में लगवा दिया। वहाँ तीन साल मेकेनिक की ट्रेनिंग लेता रहा। पहले साल में ही मैंने महसूस किया कि यह दुनिया तो मुझे नहीं चाहिए। सोचा इससे बाहर कैसे निकलूँ। घर वालों ने कहा तुम्हें जैसे निकलना है वैसे निकलो। मैंने अंधेरी में जूनियर नाइट कॉलेज जॉइन किया। वहाँ से मैंने बारहवीं कॉमर्स किया। जब रिजल्ट आया उस समय मैं दिल्ली में था। प्रतिशत कम मिलने की वजह से मेरे भाई ने इस्माइल युसुफ कॉलेज में ‘बीए’ में मेरा अडमिशन करा दिया। वहाँ बी.ए. किया। सोचा, परीक्षा देकर बी.ई.एस.टी. में ऑफिसर हो जाऊँगा। लेकिन मेरे मित्रों सुझाव दिया कि तुम एम.ए. कर लो। मैं उनके सुझाव पर यूनिवर्सिटी में एम.ए. करने आ गया। यह सब करते-करते मैं बी.ई.एस.टी की नौकरी करता रहा। मेरी सारी पढ़ाई नौकरी करते हुए होती रही।
रीता : आप यूनिवर्सिटी कब आए? बी.ई.एस.टी की नौकरी के साथ-साथ पढ़ाई कैसे संभव हुई ?
डॉ. हूबनाथ : 1988 में मैं यूनिवर्सिटी आया। 88-90 पूरे दो साल तक नौकरी से हफ़्ते में एक दिन छुट्टी मिलती थी। उस दिन लेक्चर अटेण्ड करता था। बी.ई.एस.टी. में दोस्तों के साथ मिलकर हमने लाइब्रेरी भी बनाई थी। वहाँ मैं पढ़ता रहता था। एम.ए. कर लेने के बाद किसी ने कहा की नेट की परीक्षा पास कर लो तो पैसे मिलेंगे। मैंने दूसरे साल नेट की परीक्षा पास कर ली। फिर पता चला नौकरी कहीं करते हो तो पैसे नहीं मिलेंगे। नौकरी तो छोड़नी नहीं थी तो नौकरी करता रहा। पता चला इस्माईल यूसुफ़ कॉलेज जहां से मैंने बीए किया था वहाँ के एक टीचर ट्रांसव्फर हो रहे हैं। उन्हें नागपूर जाना था। प्रिंसिपल ने टीचर से कहा आपको नहीं जाने देंगे। अगर जाना ही है तो किसी को रखकर जाइए जो क्वालिफाइड हो। तब वे टीचर मेरे घर आए और कहा आप चार महीने पढ़ा दो। उन्हें ट्रांसव्हर मिल जाएगा तो वे वापस आ जाएंगे। तब उनके लिए दिन में मैं कॉलेज पढ़ाता रहा और रात में नाइट ड्यूटी की। चार महीने के बाद वो नौकरी खत्म हो गई और मैं कॉलेज से निकल गया। जून में इस्माइल युसुफ कॉलेज नए साल में फिर खुला तो प्रिंसिपल ने कहा तुम वापस आ जाओ। मैंने कहा मुझे नहीं आना है मेरी नौकरी यहाँ परमानेंट है। उन्होंने कहा दोनों करो। उनकी बात मानकर मैंने फिर से दिन में पढ़ाना और रात में नाइट नौकरी करने लगा। नींद पूरी न हो पाने की वजह से मेरा वजन घटता गया। वजन 42-43 किलो हो गया। प्रिंसिपल ने कहा बी.ई.एस.टी. की नौकरी छोड़ दो। उनके सुझाव से मैंने बी.ई.एस.टी. की 11 साल की नौकरी छोड़ दी। टेम्प्रेरी इस्माईल यूसुफ़ कॉलेज में पढ़ाने लगा। उसके बाद मैंने डॉ रतन कुमार पांडेय सर के मार्गदर्शन में पीएच.डी. की। पीएच.डी. के लिए पहले चार साल मैंने पढ़ाई की। फिर मुझे लगा कि मुझे इस विषय पर काम करना चाहिए तब मैंने 1994 में शोध कार्य की शुरुआत की और 1998 में मेरी पीएचडी पूरी हुई। उस समय तक मैं ईस्माइल यूसुफ कॉलेज में पढ़ाता रहा।
रीता : लेखन की प्रक्रिया का विस्तार कैसे हुआ?
डॉ. हूबनाथ : लेखन की शुरुआत बी.ई.एस.टी. से ही हो गई थी। मैं अपनी रचनाएँ लिखता रहता था। लिखकर कभी रखता नहीं था। अपने दोस्तों को दे देता था। मेरे कुछ दोस्तों ने उसे अपने नाम से छपवाया। जब रात्रि कक्षा में पढ़ाई करता हुआ मैं जूनियर कॉलेज में पहुँचा तब मैं हाथ से लिखी हुई मैगज़ीन बनाई। सारे आर्टिकल मेरे ही लिखे हुए थे, पर सबके अलग अलग नाम से। मैंने वहाँ दो साल में दो मैगज़ीन बनाई। अब कहाँ है पता नहीं। कविताएँ मुझे रखनी चाहिए। लेख मुझे रखने चाहिए। यह कभी मैंने सोचा नहीं। बस लिखा और दे दिया।
रीता : आप लिखते चले गए और बाँटते रहे। आप को क्या लगता है आपका ये लेखन शौक़िया है या जुनून है?
डॉ. हूबनाथ : पता नहीं ! मुझे लगता था कि मुझे लिखना चाहिए बस मैं लिख देता। सुनाता नहीं था। किसी को बताता नहीं था। दोस्तों को पढ़ने के लिए दे देता था। बहुत बाद में मेरे एक विद्यार्थी शकील अहमद को लगा कि मेरी कविताएं लोगों तक पहुंचनी चाहिए। अतः उसने मेरी कविताएं जुटानी शुरू कर दी। विजय से मुलाक़ात हुई उसने भी कविताएं जुटानी शुरू कर दी। इन दोनों ने मेरी कविताओं का पहला संग्रह निकाला।
रीता : याने आपके लेखन को पाठकों तक प्रेषित करने में आपके विद्यार्थियों का हाथ है?
डॉ. हूबनाथ : हाँ। अब भी उन्हीं का हाथ है। उन्होंने ही किया।
रीता : आपकी पहली किताब ‘लोअर परेल’, दूसरी ‘कौए’, तीसरी ‘मिट्टी’ और अब चौथी कविता संग्रह ‘अकाल’ आ रही है। इस सफर के बारे में आपके विचार जानना चाहूंगी?
डॉ. हूबनाथ : कोई सफर नहीं है ये तो बस ऐसे ही है। जब ‘कौए’ आई थी उसके पहले कम से कम हज़ार कविताएँ मैंने ऐसे ही लिख कर बर्बाद कर दी। अब मुझे लगता है कि वह मुझे रखनी चाहिए थी।
रीता : आपकी पहली कविता संग्रह कौनसी है ‘कौए’ या ‘लोअर परेल’।
डॉ. हूबनाथ : दोनों साथ में ही आई थी। पहले मैंने ‘लोअर परेल’ ही सोचा था लेकिन कविताएं ज्यादा हो रही थी तो ‘लोअर परेल’ और ‘कौए’ दो संग्रह बनाई गई।
रीता : ‘कौए’ में अंधविश्वास के प्रति आपका विरोध दिखता है। क्या कुछ कहना चाहेंगे समाज के लिए?
डॉ. हूबनाथ : समाज में कुछ भी गलत होता देखता हूँ तो वो मुझे कचोटता है। मैं उसके लिए कुछ करना चाहता हूँ। जब कर नहीं पाता हूँ तो कविता लिखने लगता हूँ। कविता मेरे लिए एक तरह से पलायन ही है। जिंदगी से भागने जैसा ही।
रीता : याने आप मानते है कि करना चाहते हुए भी आप कर नहीं पा रहे हैं ?
डॉ. हूबनाथ : जी। नहीं कर पाता हूँ तो लिख देता हूँ। कविता अपने आप आती है और लिख जाती है। मैंने कभी कोशिश नहीं की कविता लिखने की।
रीता : पहली किताब में आप ‘मुंबई’ से जुडते हैं। दूसरी में आप ‘कौए’ पर अपनी लेखनी चलाते हैं। तीसरी में आप ‘मिट्टी’ के लिए समर्पित हैं। जान सकती हूँ आप ‘अकाल’ में काल के किस दृश्य से पाठक को रूबरू करा रहे हैं?
डॉ. हूबनाथ : ‘अकाल’ यह शब्द ‘सूखे’ से जुड़ा नहीं है। जिसे अँग्रेजी में ‘फेमिन’ कहते है, यह शब्द इससे भी जुड़ा नहीं है। ‘अकाल’ यह ‘असमय’ है। मतलब यह समय कविता का नहीं है। यह समय बोलने का नहीं है। यह समय विरोध करने का नहीं है। समय के ऊपर जो दबाव है उसको व्यक्त करने के लिए मैंने यह शब्द चुना है। कोई न कोई तो संज्ञा देनी पड़ती है तो मैंने यह संज्ञा दी है। यह बहुत संकट का समय है मुझे ऐसा लग रहा है।
रीता : यह समय आपको संकट का समय क्यों लग रहा है? इस समय में किस प्रकार के अंदेशे की आप अनुभूति कर रहे हैं? इस बारे में आपके विचार क्या कुछ है… साझा करेंगे ?
डॉ. हूबनाथ : ‘अकाल’ में 2016 जनवरी से ‘अकाल’ के प्रकाशित होने के पहले तक की कविताएं है। राजनैतिक फैसलों की वजह से सामाजिक उद्वेलन पैदा होता है। सामाजिक विसंगतियाँ पैदा होती है। तब हालात बहुत बुरे हो जाते हैं। जैसे नोट बंदी है। नोट बंदी चाहे जो हो उसका आम आदमी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। नोट बंदी पर दो या तीन कविताएं मैंने लिखी है। हम यह सोचते हैं कि सिस्टम को बदले। बदलने वाले ने जो भी सोचा हो, उस बदलाव से असर किस पर पड़ता है यह भी देखना जरूरी है। ‘अकाल’ में कुछ कविताएं है। कुपोषण से बच्चे मरते हैं। जबकि 2018 में हम विकास कर रहे हैं। अच्छे दिन आ रहे हैं। देश इतना विकसित हो रहा है। हमारी आमदनी इतनी बढ़ रही है। फिर भी हम बच्चों को नहीं बचा पा रहे हैं। तकरीबन 40 हज़ार बच्चे हर साल मरते हैं। मैं सिर्फ नॉर्थ की बात कर रहा हूँ। पूरे देश में तो लाखों बच्चे मरते हैं। और ये बच्चे 0 से लेकर चार साल की उम्र के होते हैं। हमारी राजनैतिक व्यवस्था जिसको हम लोकतंत्र बोलते हैं। लोकतंत्र का मतलब होता है कि हर आदमी के लिए व्यवस्था होनी चाहिए। हमने सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ पोलिटिकल सिस्टम अख़्तियार किया है। जिसमें समाज के सबसे छोटे तबके का भी विकास होना चाहिए। समाज का सबसे छोटा तबका तो बच्चा होता है। हिंदुस्तान का कोई राज्य नहीं होगा जहाँ बच्चे नहीं मरते हैं। सब दवाई के अभाव में मरते हैं या कुपोषण से मरते हैं। बच्चे भूख से मरते हैं भूख को भी हम कुपोषण कहते है। ये सारी चीजें मुझे बहुत परेशान करती है।
रीता : इस मुद्दे पर मेरा आखरी प्रश्न था किन्तु उसे अभी पूछ रही हूँ कि व्यवस्था के कारण समाज में जो उतार चढ़ाव है। अमीर बहुत अमीर होते चले जा रहे हैं और निम्नस्तरीय के लिए जीवन मुश्किल होता जा रहा है। किसान आत्महत्या कर रहे है। माल्या जैसे लोग देश छोड़ कर भाग रहे हैं। कारण चाहे जो हो एक शिक्षित जिम्मेदार नागरिक होने की वजह से आप कुछ कहना चाहेंगे सर ?
डॉ. हूबनाथ : असमानता तो पहले भी थी अब भी है। असमानता तो होती ही है। अमेरिका में भी है। असमानता ब्रिटेन में भी है। ये इनइक्वालिटी ऑफ इन्कम है। उसके बीच में जो खाई थी वो खाई इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि लाखों करोड़ों लोगों की रोजाना की आमदनी बीस से तीस रुपये होती है। बीस से तीस रुपये में वो कैसे दिन गुजार सकते हैं। उनको तो हम ‘बिलो पावर्टी’ लाइन भी नहीं कह सकते। ऐसे ढेर सारे लोग इस तरह का जीवन जीने को अभिशप्त है। मेरी एक कविता है ‘साठे नगर’। यह कविता एक डम्पिंग ग्राउंड के ऊपर बसी हुई बस्ती पर लिखी गई कविता है। उस डम्पिंग ग्राउंड में गंदगी और सड़न है। उस सड़ांध में ही लोग जीते हैं। वहीं रहते हुए पलते हैं। वहाँ बच्चे और बूढ़े भी हैं। यह मुंबई महानगर से पचास-साठ किलोमीटर दूर कल्याण के आसपास स्थित जगह है। हम जब इंसान को इंसान की तरह जीने की सहूलियत मुहैया नहीं करा पाते तो ऐसे सिस्टम का रहना जरूरी नहीं है। यह सिस्टम बदलना चाहिए।
रीता : एक आम आदमी के लिए आपकी क्या राय है या उनके लिए कोई सलाह या संदेश….।
डॉ. हूबनाथ : मेरा यह मानना है कि जो बुरे आदमी होते हैं वे मुट्ठी भर होते है। बुराई कभी भी बहुत ज्यादा नहीं होती। पर वह इतनी संगठित होती है कि अच्छाई उसका मुक़ाबला नहीं कर पाती। हमारी मुख्य समस्या बुराई के संगठित होने की नहीं है। बल्कि अच्छाई के असंगठित होने की है। आम आदमी आपस में जुड़ नहीं पा रहे हैं। जुड़ नहीं पाने के दो-तीन कारण हैं। पहली तो राजनीति है। राजनीति कभी नहीं चाहेगी कि आवाम एक हो। संगठित हो। वह धर्म के आधार पर बाटेंगी। वह जाति के आधार पर बाटेंगी। वर्ण के आधार पर बाटेंगी। जितना लोग बटे रहेंगे राजनीति का उतना फ़ायदा होगा। पर यह बात आम आदमी समझ नहीं पा रहा है।
रीता : तो ऐसा क्या कुछ करना चाहिए कि कोई राह निकले। जो शिक्षित वर्ग है जिसे इसकी समझ है …. क्या वह कुछ ….?
डॉ. हूबनाथ : जो शिक्षित वर्ग है वह अपनी रोजी-रोटी में ही डूबा होता है। उसे आम आदमी से कुछ लेना-देना भी नहीं होता है। यह बात तो हमारे संस्कार में ही है कि हम किसी सरकारी कार्यालय में जाय तो क्लर्क से भी हम अदब से बात करते हैं। लेकिन कोई सब्ज़ी वाला है तो उससे हम अदब से बात नहीं करते हैं। कोई मोची है तो उससे हम अदब से बात नहीं करते हैं। हमारे अंदर भी वो चीजें हैं। हम पूरी तरह डेमोक्रेटिक नहीं हो पा रहे हैं। एक तो हमें देश को अपना समझना चाहिए। देश के लोगों को अपना समझना चाहिए। इनको समझाने की कोशिश करनी चाहिए। प्रोब्लेम यह है कि हम पढे-लिखे लोग आपस में ही बातें करते रहते हैं। जिन तक वह बात पहुंचनी चाहिए उन तक वह बात नहीं पहुँच पाती। जैसे धूमिल की ‘मोचीराम’ कोई मोची नहीं पढ़ता। पढे- लिखे लोग पढ़ते हैं और खुश हो जाते हैं। जहाँ तक चीजें पहुंचनी चाहिए वह नहीं पहुँच पा रही है। यह मेन प्रोब्लेम (मुख्य समस्या) है।
रीता : जैसे आपने इस समस्या को समझा है तो क्या कोई रणनीति है कि इसे कैसे प्रेषित किया जाय या आगे बढ़ाया जाय ताकि लोगों तक यह पहुँचे …… !
डॉ. हूबनाथ : यह तो हर व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह अपना समय समाज को भी दे। मैं अपने परिवार के लिए समय निकालता हूँ। अपने रोजगार के लिए समय निकालता हूँ। मुझे समाज के लिए भी समय निकालना चाहिए। समाज का मतलब मेरा अपना वर्गीय समाज नहीं बल्कि समस्त भारतीय समाज से है। जैसे हम कहते हैं कि यह बस्ती है बहुत गंदी है। सरकार को उसके लिए कुछ करना चाहिए। किन्तु क्या हम इसके लिए कुछ करते हैं ? हमें भी तो कुछ करना चाहिए। जिस संस्था में मैं हूँ हमारी बालवाडियाँ चलती है। मैं काम करता हूँ उस बालवाड़ियों में बच्चों के पिता नहीं आते। वे काम पर जाते हैं। हम बच्चों की माँओं से बात करते हैं। उन तक हम अपनी बात पहुंचाने की कोशिश करते हैं। उसके अलावा अलग-अलग जगहों पर जाकर भी हम इस तरह से लोगों तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश कर सकते हैं।
रीता : क्या जिस तरह से लोग एनजीओ से जुडते हैं ? आप शायद यही कह रहे हैं …..
डॉ. हूबनाथ : एनजीओ का अपना एक आर्थिक पैटर्न हो जाता है। वो भी जिस चीज़ को लेकर चलते हैं उसी पर बात करते हैं। अभी कल ही एक मीटिंग थी चेंबूर में मैंने उसमें कहा कि आप सभी लोग अच्छे हो, लेकिन आप अलग अलग जगहों पर अच्छे हो। अगर आप एक हो जाओ तो कितनी अच्छाई एक साथ आ जाएगी। आप अपना एन.जी.ओ. का काम करते रहो। महीने में कम से कम एक बार मिलकर तो समाज के लिए काम करो। अब वहाँ काम शुरू हो चुका है। उसे हमने नाम दिया है ‘अपना अड्डा’। हमने तय किया है हर महीने मिलेंगे और क्या-क्या काम कर सकते हैं, कैसे एक दूसरे की मदद कर सकते हैं, इस पर बात करेंगे, बहस करेंगे और काम भी करेंगे।
रीता : यह बहुत अच्छा कार्य है। आप समाज के प्रति समर्पित भाव से बहुत बढ़िया कर रहे हैं। आपको इस काम के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देती हूँ।
डॉ. हूबनाथ : हम्म …
रीता : आपकी कविता संग्रह ‘मिट्टी’ में 11 वीं कविता है “आओ ढूँढे उस मिट्टी को जिसे कभी हम सिकंदर कहते है, ढूँढे उस मिट्टी को जिसे कभी हम नेपोलियन, अशोक, या अकबर कहते थे, राम-कृष्ण, गौतम, यीशु, पैगंबर कहते है” इन सभी को मिट्टी से जोड़ कर, धरती से जोड़ कर, आप क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं?
… शेष साक्षात्कार क्रमश:
(बिजूका से साभार )
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