साहित्य की रोचक विधा यात्रावृत्त पर आधारित “देखा जब स्वप्न सवेरे” डॉ. जितेंद्र पांडेय की परिदृश्य प्रकाशन की सद्यः प्रकाशित कृति हअपने स्वप्निल रंगों वाले मुख्यपृष्ठ और उस पर छपे नाम से ही पहली नजर में पाठकों के ध्यानाकर्षण का केंद्र बनती है। पुस्तक के प्रारंभ में चर्चित व्यंग्यकार संजीव निगम का मनोगत पढ़कर पुस्तक से गुजरने की इच्छा और भी प्रबल हो उठती है।
आधुनिक समाज में इंटरनेट, गूगल अर्थ, गूगल मैप और गूगल सर्च का बड़ा बोलबाला है। ऐसे में भी यह पुस्तक अमूल्य साबित होती है क्योंकि यह अपने आप में एक ‘इनसाइक्लोपीडिया’ है। कई साइट्स पर ढूंढ़ने के बावजूद किसी स्थान की उतनी जानकारी प्राप्त नहीं हो सकती जितनी इस पुस्तक के प्रत्येक प्रकरण में लेखक ने मुहैया कराई है । पुस्तक की भूमिका स्वयं ही इसके मसौदे का दर्पण है । पुस्तक के प्रत्येक पड़ाव का शीर्षक अपने आप में वर्णन की वैविध्यता समेटे है।
यात्रावृत्त का प्रारंभ ‘रामेश्वरम‘ पर केंद्रित ‘भय बिनु होई न प्रीति‘ शीर्षक से शुरू होता है। इस स्थान का इतना अद्भुत वर्णन डॉ. पांडेय ने किया है जो अन्यत्र मिलना संभव नहीं है । वेद-पुराणों के संदर्भ, स्थान की भौगोलिक स्थिति, वहां की ऐतिहासिकता, मान्यताएं और उनके पीछे का सच तथा उसकी वैज्ञानिक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आवश्यकता, कलुषित राजनैतिक लाभों हेतु गलत निर्णय, भविष्य की सतर्कता, पर्यावरण के क्षरण की पीड़ा और पृथ्वी के संरक्षण की बेचैनी लगभग हर प्रकरण में दिखाई देती है। संस्मरणकार स्थान का महिमामंडन तो करते हैं पर साथ ही वहां की सामाजिक परिस्थितियों का भी वास्तविक बोध कराते चलते हैं ताकि पाठक भ्रमित न रहे।
सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहरों को संजोने की एक सामाजिक चिंता लेखक के दूसरे प्रकरण में दिखाई देती है। शीर्षक इतना रूमानी की पाठक पढ़ने को मजबूर हो जाए- “एक गुलशन था जलवानुमा इस जगह” इसमें गोलकुंडा फोर्ट का रमणीय वर्णन है। “योगियों-मनीषियों की जमी पर” प्रकरण में अपने स्वप्न वा यथार्थ के कवि से मिलने और उनके व्यक्तित्व को समझने का गौरव प्रदर्शित हुआ है । इस वृत्त में वर्णन सिर्फ गोरखनाथ मंदिर तक सीमित नहीं है बल्कि त्रेता युग के हठयोगी की कथा, धर्म, अध्यात्म, दर्शन, न्याय तथा नाथ संप्रदाय का परिचय भी है । यहां भौतिकता से होने वाले क्षरण और संवेदनशीलता के आहत होने के भी प्रसंग मिल जाते हैं। इसी प्रकरण में तत्कालीन समाज, साहित्य, संप्रदाय और उनके रचनाकारों की एक अच्छी खासी फेहरिस्त आपको मिल जाएगी।
‘भग्नावशेषों के बीच‘ गेटवे ऑफ इंडिया के वर्णन में यहां की व्यस्तता के गर्भ में समाई ऐतिहासिकता व निर्माण कला का बखूबी दर्शन मिलता है। “स्पंदन” प्रेरणादाई प्रसंग के लिए सराहनीय है। “गंगा का मौन हाहाकार” शीर्षक ही अपने आप में परिपूर्णता लिए हुए है । इसे पढ़ते समय कई बार आपका मन लेखक से मिलकर उनकी प्रशंसा करने को लालायित होता है । ” देखा जब स्वप्न सवेरे” शीर्षक के अंतर्गत अलीबाग का रहस्योद्घाटन और कई ऐसे प्रसंगों का वर्णन है जिसमें मानवीय वेदनाओं और उनसे उपजी रचनात्मकता व ‘साहित्य के स्वाधीन विवेक’ की चर्चा भी है।
आठवें प्रकरण “को कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ” में इलाहाबाद की स्वच्छंद और रूमानी हवा को एक कवि की प्रासंगिक कविता से जोड़ना बड़ा मनमोहक लगा है – “शरद में ठिठुरा हुआ मौसम लगा होने गुलाबी, हो गया अपना इलाहाबाद पेरिस, अबू, धाबी ।” इलाहाबाद शहर के लोकजीवन का बयान करते हुए लेखक ने कहा है, “यहां सदा जीवनोत्सव होता है । यहां के लोग राग-विराग, संयोग-वियोग और दुख-सुख में समानधर्मा हैं । लेखक आगे लिखता है, “दर्शन और ज्योतिष यहां लोगों की धमनियों में दौड़ता है ।” एक अन्य उदाहरण में कहते हैं कि यहां धनार्जन की ललक में लोग अंधे नहीं हैं । संवेदनाएं जीवित हैं । इस वृत्त में डॉ. पाण्डेय निराला की “वह तोड़ती पत्थर” और रवि प्रकाश की “इलाहाबाद” कविता को लिखना नहीं भूलते । इसके पश्चात “झरती आस्थाएं” शीर्षक में कर्मकांडों की निस्सारता दर्शाई है । तंबाकू के सेवन विधि का प्रसंग मजेदार बन पड़ा है।
भारत में संस्कृत की धूमिल होती छवि व सबके होते हुए भी “राम” पर लगे हुए पहरों से आहत लेखक “उत्तर दिसि सरयू बह पावन” में अयोध्या का वर्णन करते हुए प्रभु राम जन्मभूमि को सांस्कृतिक धरोहर के रूप में देशवासियों को स्वीकार करने का प्रस्ताव रखता है।
ग्यारहवें प्रकरण के “छप्पन भोग” शीर्षक यात्रावृत्त में कई संदर्भों का रहस्योद्घाटन हुआ है। “छप्पन भोग” की कथा, व्यंजनों, कमल की परतों, रसों, 8 दर्शनों, गोवर्धन-धारक श्रीनाथ जी की कथा आदि प्रकरण के अंत में लेखक के अवचेतन मन में उभरे कुछ चेतन चित्र हमारी चेतना को भी झकझोरते हैं । “स्वप्नलोक” शीर्षक यात्रा वृत्तांत में महाबलेश्वर, पंचगनी और वाई का भौगोलिक वर्णन मन मोह लेता है । यहां का इतिहास, जनजीवन और शैक्षणिक संस्थानों के हब के रूप में प्रसिद्ध यह पर्यटन-स्थल एक महातीर्थ है । यह संस्मरण कई परतों को कुरेदता हुआ आगे बढ़ता है।
“जल में कुंभ” में जम्मू-कटरा का वर्णन आध्यात्मिक चेतना को सक्रिय कर देता है। “मंगलदधिपात्रम्” कश्मीर की अवर्णनीय सुंदरता को बटोरते हुए वहां के इतिहास और जनजीवन का आकर्षक वर्णन है । इस संस्मरण से गुजरते हुए अपनी संस्कृति और अपनी विरासत पर गर्व होने लगता है।
पुस्तक का अंतिम अध्याय “एक नाव के यात्री” है। यह सफर अपनी कर्मभूमि, कार्यक्षेत्र, मित्र और सामाजिक जीवन के उतार-चढ़ाव पर आकर पूरा होता है । पुस्तक में भावों के प्रवाह को शब्दों से गति मिलती है । वेद-पुराण बतौर साक्ष्य के रूप में टांके गए हैं । शब्द-चित्रों से ऐसे बिंब निर्मित होते हैं जिससे पाठकों का मन वर्णित स्थलों को देखने के लिए मचल उठता है । लेखक ने न सिर्फ प्राकृतिक सुंदरता को उकेरा है बल्कि स्थलों के श्यामल पक्षों को भी उजागर किया है । समाज, शिक्षा, साहित्य और संस्कृति के गहरे मंथन से उपजी यह पुस्तक समकालीन यात्रावृत्तों में बेजोड़ है । यह सामान्य पाठक से लेकर साहित्य में रुचि रखने वाले बुद्धिजीवियों को भी रिझाने का दम रखती है चलते-चलते यह बता दूं कि यह एक संग्रहणीय पुस्तक है। आगे चलकर अपनी गुणवत्ता के बदौलत किसी न किसी पाठ्यक्रम में अवश्य अपना स्थान ग्रहण कर लेगी । पुस्तक की अमूल्य सामग्री के मद्देनजर पुस्तक की कीमत काफी कम है । लेखक की लेखनी और वैविध्यता मनमोहिनी है जो पाठक को कदम-कदम पर आश्चर्यचकित करती है । पुस्तक की भाषा-शैली के नाते कहीं कोई बात खटकती नहीं, प्रवाह बना रहता है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है की यह पुस्तक यात्रा वृतांत के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होगी तथा देखते ही देखते पाठकों के हृदय-कमल में आ विराजेगी।
समीक्षक : भारती संजीव श्रीवास्तव
लेखक : डॉ. जितेन्द्र पाण्डेय
पुस्तक: देखा जब स्वप्न सवेरे (यात्रावृत्त)
प्रकाशक : परिदृश्य प्रकाशन, मुंबई
कीमत : 175/-