दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स और महाकवि जयशंकर प्रसाद फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में पाँच दिवसीय ई-कार्यशाला का आयोजन किया गया। कार्यशाला का मुख्यविषय सृजनात्मक लेखन रहा। कार्यशाला का आरंभ 14 सितंबर “हिंदी दिवस” के शुभ अवसर पर हुआ और यह कार्यशाला 18 सितंबर तक सफलतापूर्वक आयोजित की गई।
इस कार्यशाला के उद्घाटन सत्र में प्रमुख वक्ताओं और सभी प्रतिभागियों का स्वागत करते हुए दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स के प्राचार्य प्रो. राजीव चोपड़ा ने समकालीन दौर में हिंदी भाषा के वैश्विक विस्तार तथा सूचना प्रौद्योगिकी एवं विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हुए अवसरों व संभावनाओं का उल्लेख किया और विद्यार्थियों को इससे लाभान्वित होने के लिए प्रोत्साहित किया।
विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रो. रमा ने अपने संक्षिप्त संबोधन में कहा कि हमें नई तकनीकों के अनुरूप हिंदी भाषा का नवीनीकरण और चौमुखी विकास करना है। प्रो. अनिल राय उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि रहे। प्रो. अनिल राय ने अपने वक्तव्य मे कहा कि हिंदी भाषा के वैश्विक विस्तार की जो संभावनाएं आज हमें दिखलाई पड़ती हैं, हम उन्हें हासिल करने की तमाम क्षमताएं रखते हैं। हमें पूरे आत्मविश्वास के साथ इस दिशा में अग्रसर होने की आवश्यकता है। कार्यक्रम के प्रारूप और समयसीमा को ध्यान रखते हुए उद्घाटन सत्र के सभी वक्ताओं ने अपनी बात संक्षिप्त रूप में रखी।
पहले सत्र का विषय रहा ‘कविता लेखन के बिंदु’, मुख्य वक्ता दिविक रमेश ने अपनी तीन लाजवाब कविताएं, पहली – खूबसूरत कविता, दूसरी- शमशेर की कविता और तीसरी- तुम भी देखो हम भी देखें, पढ़ते हुए कविता की रचना प्रक्रिया पर बात रखी। उन्होंने साहित्य सृजन के शास्त्रीय सिद्धांतों, काव्य हेतु काव्य प्रयोजनों का उल्लेख किया और उनमें आधुनिक संदर्भ का समावेश करते हुए रचनाकार के जीवनानुभवों का रचना पर पड़ने वाले प्रभावों को रेखांकित किया। अपने जीवन के अनुभवों को साझा किया और कहा कि रचना आरोपित नहीं होनी चाहिए। वह अपने अनुभवों से स्वतः उत्पन्न हो तो संप्रेषित भी होती है और रसानुभूति तक भी पहुँचती है। उन्होंने कहा कि अंतःप्रेरणा और अनुभूति में कल्पना का समावेश करके ही हम अपनी पहचान बना सकते हैं।
दिविक रमेश ने कहा कि हमारे अनुभवों की सापेक्षता, हमारी पक्षधरता तय करती है और कविता निरपेक्ष नहीं होती, लेकिन मनुष्यता की भावना उसकी कसौटी होती है। इस अनुभूतिपूर्ण और सारगर्भित वक्तव्य से सभी श्रोता अभिभूत हुए।
डी. सी. ए. सी के IQAC के संयोजक श्रीकांत पांडेय ने पहले दिन के कार्यक्रम में अतिथियों व प्रतिभागियों का धन्यवाद प्रस्तुत किया। डी. सी. ए. सी हिंदी विभाग के प्रभारी एवं कार्यशाला के संयोजक डॉ. के. एल. ढींगरा ’करुण’ ने कार्यक्रम का बेहतरीन संचालन किया।
कार्यशाला के दूसरे दिन का विषय रहा “कहानी की रचना प्रक्रिया”, इस विषय पर मुख्य वक्ता जाने माने कथाकार डॉ.अजय नावरिया, एसोसिएट प्रोफेसर जामिया मिल्लिया इस्लामिया थे। उन्होंने अपने विषय पर बात रखते हुए कहा कि लेखन कौशल प्रदत्त और अर्जित पृष्ठभूमियों पर आधारित होता है, इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि प्रत्येक रचना कार अपने प्रदत्त एवं अर्जित अनुभवों को ही अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त करता है। हिंदी की पहली कहानी के विवाद से बात की शुरुआत करते हुए वर्तमान 2021 तक में प्रकाशित कहानियों व कहानीकारों का उदाहरण देते हुए डॉ.अजय नावरिया ने ग्रामीण, कस्बाई, क्षेत्रीय और शहरी इत्यादि परिवेश का रचनाकार पर पड़ने वाले प्रभाव का उल्लेख किया। शहरी एवं ग्रामीण परिवेश से उत्पन्न संवेदनाएं और उनके प्रति रचनाकार की प्रतिक्रिया के मूल कारणों पर अपनी बात रखी। वक्तव्य के अंत में कहानी लेखन की शुरुआत और अन्त के संदर्भ में उन्होंने ऑब्जर्वेशन और कल्पना के महत्व को रेखांकित किया। इस सत्र में मुख्य वक्ता का परिचय कॉलेज के छात्र आदर्श सिंह के द्वारा दिया गया। इस सत्र का समापन हमारे हिंदी विभाग डी. सी.ए .सी. के साथी डॉ. प्रत्यय अमृत के द्वारा धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ।
दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स तथा महाकवि जयशंकर प्रसाद फाउंडेशन के सहयोग द्वारा आयोजित पॉंच दिवसीय ई-कार्यशाला के तीसरे दिन का विषय ‘ नाटक और रंगमंच ‘ था। प्रसिद्ध रंगकर्मी तथा रचनाकार विभा रानी इस सत्र की मुख्य वक्ता थीं। विभा रानी नाट्य लेखन तथा मंचन के विविध पक्षों का उल्लेख करते हुए नाट्य मंचन पर अपनी बात को केंद्रित रखीं साथ ही नाटक और रंगमंच से जुड़ने के स्वयं के प्रेरक पलों को साझा किया। विभा रानी ने नाट्य मंचन के क्षेत्र में संसाधनों के अभाव से जुड़ी व्यवहारिक समस्याओं और आर्थिक परेशानियों का जिक्र करते हुए वैकल्पिक रंगमंच , जैसे रूम थिएटर और सोलो थिएटर को समय की मॉंग बताया। आगे बोलते हुए विभा रानी ने कहा कि हमें नए दौर के अनुरूप रंगमंच के दर्शकों को तैयार करना होगा और अभिनय कौशलों का भी लगातार अभ्यास के द्वारा विकास करना होगा। इस सत्र का मुख्य आकर्षण प्रश्नोत्तर रहा। कार्यक्रम का संचालन हिन्दी विभाग (डी.सी.ए.सी.) के प्रभारी डॉ.के.एल. ढींगरा ने अपने अभिनयात्मक अंदाज में किया। कॉलेज (डी.सी.ए.सी.)की छात्रा सोनिया पंजवानी ने मुख्य वक्ता विभा रानी का परिचय दिया तथा हिन्दी विभाग (डी.सी.ए.सी.) के अध्यापक डॉ. नेहाल अहमद ने धन्यवाद व्यक्त किया।
दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स तथा महाकवि जयशंकर प्रसाद फाउंडेशन के सहयोग से आयोजित पॉंच दिवसीय ई-कार्यशाला के चौथे दिन का विषय ‘डिजिटल माध्यम और सृजनात्मक लेखन’ था। इस सत्र की मुख्य वक्ता प्रो. पूनम कुमारी (हिन्दी विभाग, जे.एन.यू.) थी। कार्यशाला में अपनी बात की शुरुआत करते हुए प्रो. पूनम कुमारी ने बताया कि डिजिटल माध्यमों के विकास से पहले रचनाओं के प्रकाशन में किन-किन समस्याओं और सीमाओं का सामना करना पड़ता था और डिजिटल माध्यमों के आने के बाद स्थिति में कितना व्यापक परिवर्तन आया है। प्रो. पूनम कुमारी ने समकालीन समय में विद्यार्थियों के बीच डिजिटल माध्यमों की उपयोगिता और व्यवहारिक कौशल का उल्लेख किया साथ ही प्रकाशन क्षेत्र के व्यापक विस्तार और असीमित क्षेत्रों की ओर श्रोताओं का ध्यान आकर्षित किया तथा यह भी बताया कि इस कारण रचनाओं के प्रकाशित होने के ज्यादा अवसर सुलभ हो गए हैं। रचनाओं के प्रकाशन क्रम में कुछ सावधानियां बरतने की सलाह देते हुए प्रो. पूनम कुमारी ने यह भी बताया कि प्रकाशन की सुलभता के कारण भाषा, वर्तनी और वाक्य विन्यास में भारी गिरावट दिखाई पड़ती है। जिससे सतर्क रहने की आवश्यकता है।
प्रो. पूनम कुमारी ने डिजिटल माध्यमों के लेखन के संदर्भ में सुझाव देते हुए कहा कि लेखकों को अपूर्णता और अधिकता दोनों से बचना चाहिए तथा छोटे बच्चों द्वारा उपयोग किए गए कंटेंट पर दृष्टि रखनी चाहिए। इस सत्र का संचालन हिन्दी विभाग (डी.सी.ए.सी.) के प्रभारी डॉ. के. एल. ढीगरा ने बहुत ही सुंदर तरीके से किया। बी.ए. प्रोग्राम द्वितीय वर्ष (डी.सी.ए. सी.) की छात्रा तनुश्री सिंह ने मुख्य वक्ता का परिचय दिया तथा कार्यक्रम के अंत में हिन्दी विभाग (डी.सी.ए.सी.) की सहायक प्राध्यापक डॉ. रश्मि रावत ने धन्यवाद ज्ञापन किया।
कार्यशाला के पांचवे दिन का विषय ‘आलोचना का प्रतिमान’ था। सुप्रसिद्ध आलोचक और अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय, प्रोफ़ेसर करुणाशंकर उपाध्याय मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित थे। प्रोफ़ेसर उपाध्याय ने अपने वक्तव्य में आलोचना को भी रचना मानते हुए उसकी सीमा और संभावना की ओर ध्यान आकर्षित करवाया। उन्होंने कहा कि कुछ विचारकों का मानना है कि आलोचक की प्रतिभा सृष्टा न होने के कारण प्रथम नहीं माना जाती है, जबकि आलोचक रचनाकार के लिखे हुए रेशे-रेशे को परखता है तथा नए सृजन को जन्म देता है। प्रोफेसर उपाध्याय ने इसके साथ ही आज के आलोचक और आलोचना कर्म के बीच जो भेद आया उसके तरफ भी ध्यान खींचा। उन्होंने कहा कि विमर्शों के माध्यम से आलोचना स्वतंत्र एवं लोकतांत्रिक तो हुई परंतु विचारधाराओं का आरोपण अत्यधिक हो रहा है जिससे आलोचना एक वैचारिक हथियार के रूप में विकसित हो रही है। उन्होंने कहा कि आलोचक का दायित्व दोहरा है एक तरफ उन्हें वैचारिक पूर्वाग्रह से बचना चाहिए तो दूसरी तरफ उन्हें अपने समय और समाज को भेदकर साहित्य का मूल्यांकन करना चाहिए। इसके लिए वे आलोचकों से साहित्य और दूसरे ज्ञानानुशासन के ज्ञान की अपेक्षा रखते हैं। अंत मे प्रोफेसर उपाध्याय ने कहा कि आलोचना समग्र दृष्टि की मांग करती है। हम अन्तर्दृष्टि और विश्व संदृष्टि के बलपर भारतवर्ष की गतिशील लोकोन्मुख परंपरा को पुरस्कृत करते हुए पाश्चात्य काव्यचिंतन के सर्वोत्तम के साथ समायोजन करते हुए नवीन संदर्भों के अनुरूप विश्वस्तरीय प्रतिमानों का निर्माण कर सकते हैं। ऐसा करके ही हम हिंदी आलोचना को विश्वस्तरीय विमर्श का हिस्सा बना सकते हैं। हमारे ऊपर हिंदी साहित्य के साथ-साथ संपूर्ण भारतीय साहित्य को न्याय दिलाने की जिम्मेदारी है।
कार्यक्रम का संचालन हिंदी विभाग (डी.सी.ए.सी.) के प्रभारी डॉ. के.एल. ढींगरा ने अपने शानदार वक्तव्य कौशल के साथ किया। हिंदी विभाग के वरिष्ठ प्राध्यापक प्रोफ़ेसर द्विवेदी आनंद प्रकाश शर्मा ने प्रोफ़ेसर करुणाशंकर का परिचय दिया। पांच दिवसीय ई-कार्यशाला की रिपोर्ट विभाग के सहयोगी डॉ. पूरन चंद ने प्रस्तुत की। तत्पश्चात दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स एण्ड कॉमर्स के आई.क्यू.ए.सी. के संयोजक श्रीकांत पांडेय ने सभी अतिथि प्रवक्ता एवं सभी प्रतिभागियों को धन्यवाद ज्ञापित किया। समापन सत्र के अंत में हिन्दी विभाग के वरिष्ठ प्राध्यापक प्रोफ़ेसर सुजीत कुमार ने धन्यवाद ज्ञापित किया।
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