मध्यकालीन कविता की अभिनव आलोचना

  • अनुराग सिंह (असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय)

मध्यकालीन कविता का पुनर्पाठ प्रख्यात आलोचक डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय की नवीनतम आलोचना कृति है जिसे राधाकृष्ण प्रकाशन,नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है।आलोचना को मूल्यांकन की कला कहा जाता है। आलोचना किसी कृति की सीधे व्याख्या नहीं करती अपितु उस कृति को समझने के बहुत से टूल्स हमें मुहैया कराती है।हम पारम्परिक तरीक़े से साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने वाली विधियों के आदी विद्यालयी जीवन से हो गए हैं, परंतु आलोचना ठहर जाने वाली दृष्टि से संचालित होने का कार्य नहीं है। वह स्वयं में गतिशील है, वह अपने आप को लगातार बदलती रहती है। किसी कृति को आज से सौ वर्ष पहले जिस दृष्टिकोण से देखा गया यदि आज भी उसी तरह से देखा जा रहा है तो इसका तात्पर्य यह है कि हम आलोचना अर्थात् मूल्यांकन की कला को विकसित नहीं कर पाए।एक उत्कृष्ट आलोचना समय के साथ बदलती हुई आगे बढ़ती है। मध्यकालीन कविता के प्रारम्भिक दौर से अब तक लगभग छः सौ वर्षों के बीत जाने के क्रम में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक तौर पर न जाने कितने परिवर्तन हो गए। एक वैश्विक ग्राम की परिकल्पना आज साकार रूप ले चुकी है, ऐसे में जब कविता का संदर्भ बदल गया तो उसके देखने का तरीक़ा भी कुछ बदला अवश्य होगा। हिंदी साहित्य के इतिहास में मध्यकाल एक बड़े कैनवस पर उकेरा गया वृहद् चित्र हमारे सामने प्रस्तुत करता है जिसमें रंगों के वैविध्य से शानदार कलाकारी नज़र आती है। मध्यकाल में भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग कहा गया। जिस युग की कविताओं के कारण उसे स्वर्ण युग कहा जा रहा है, उस कविता के पाँच-छः सौ वर्षों के बाद भी क्या वह उसी महत्ता और प्रासंगिकता के साथ आगे बढ़ रही है या उसमें कुछ ह्रास हुआ है या वह और अधिक प्रभावी या प्रासंगिक हो गयी? इन सबके विश्लेषण के लिए वह पुनर्पाठ की माँग करती है। हिंदी आलोचना के वर्तमान समय में प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय ने इस विधा में बड़े सम्यक् तरीके से कार्य करते हुए अपनी प्रबल उपस्थिति दर्ज करायी है। आलोचना का उनका फलक काफ़ी व्यापक है। उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य काव्य चिंतन, मध्यकालीन कविता के साथ-साथ आधुनिक कविता, हिंदी कथा साहित्य, सर्जना के तमाम पहलुओं के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों को लेकर अपने आलोचना कर्म को आगे बढ़ाया है और अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। उनकी हाल में ही प्रकाशित पुस्तक ‘मध्यकालीन कविता का पुनर्पाठ’ उनकी आलोचनात्मक समझ को हमारे सामने रखती है जिसके माध्यम से हम मध्यकाल को एक नए नज़रिए से देख पाने में सफल होते हैं। बहुत से ऐसे पहलू हैं जिनपर एकदम मौलिक दृष्टिकोण से इस पुस्तक में चिंतन नज़र आता है।

आलोचना की बहुत सी पद्धतियों में से एक पद्धति पाठ केंद्रित भी है। इस पूरी पुस्तक में इसी की मदद से इसके तमाम आयामों को देखने की कोशिश की गयी है। उत्तर आधुनिक समीक्षा पद्धितियों ने हमें जो नए उपकरण दिए हैं उसकी मदद से यह देखना और आवश्यक भी हो गया है। आलोचक ने इसके पहले ही अध्याय में ‘भक्तिकाव्य और उत्तर आधुनिकता’ में इस बात को स्पष्ट भी किया है। भक्तिकाल को लोकोन्मुखी व प्रगतिशीलता तथा आधुनिकता की तमाम कसौटियों पर लगातार कसा जा चुका है परंतु उत्तर आधुनिक तरीक़े से उसकी पड़ताल का दायरा सीमित था जिसे यहाँ एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। भक्तिकाव्य को इस दृष्टिकोण से देखा जाना ही इस पुस्तक की सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में माना जाएगा।

नामदेव भक्तिकाव्य के प्रारम्भिक दौर के रचनाकार हैं और आलोचक ने उनके काव्य की सार्थकता वर्तमान समय की वैश्वीकृत संसार में हमारे समक्ष रखी है। ये दिखाता है कि इस पुनर्पाठ में आलोचक ने बहुत से विषयों पर एकदम नए तरह से विचार किया है। किसी कृति और पाठक के मध्य आलोचक का कार्य सेतु निर्माण का होता है ताकि वह पाठकों को कृति समझाते हुए उसके पार ले जाए। इसलिए उसका दायित्व और अधिक महत्वपूर्ण होता है। प्रो. करुणाशंकर इस पुस्तक में पुराने हो चुके सेतु की न सिर्फ़ मरम्मत करते हुए नज़र आते हैं अपितु पाठकों को जहाँ पर नए सेतु की आवश्यकता महसूस होती है वहाँ नए सेतुओं का निर्माण करते हुए भी आगे बढ़ते हैं। कबीर का जितना साहित्य समाज व सामाजिक रूढ़ियों पर केंद्रित है उससे कहीं अधिक व विपुल मात्रा में उन्होंने योग साधना आदि पर लिखा है परंतु कबीर को हमने सामान्यीकृत कर उनके ऊपर समाज सुधारक का तमग़ा लगा दिया है, इस पुस्तक में उसके दूसरे पहलू ‘भारतीय योग परम्परा और कबीर’ में उस पहलू को भी सामने रखा है। कबीर पर अभी भी इस दृष्टि से और अधिक कार्य करने की आवश्यकता है, आलोचक ने यहाँ इस ओर संकेत भी किया है। कृति की आलोचना के क्रम में आलोचक उसकी समस्त आंतरिक प्रक्रियाओं से होकर भी गुजरता है और उसका सारा नक़्शा पाठक के सामने उपस्थित करता है। इस रूप में एक आलोचक कृति का मर्म उद्घाटित करने की दृष्टि से अत्यंत ही जटिल कार्य का निर्वहन करता है। कबीर पर हज़ारीप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक आ जाने के बाद से हिंदी के श्रेष्ठ आलोचक रामचंद्र शुक्ल पर यह आरोप- प्रत्यारोप शुरू हो गया कि उन्होंने तुलसीदास को ऊपर दिखाने के क्रम में कबीर का समुचित मूल्यांकन नहीं किया। इस पुस्तक में ‘रामचंद्र शुक्ल के कबीर सम्बन्धी मूल्यांकन का पुनर्पाठ’ प्रस्तुत करते हुए प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय ने इस दिशा में उठे सभी प्रश्नों एवं रामचंद्र शुक्ल की पैनी दृष्टि का भी उल्लेख किया है जो सभी आरोपों के तार्किक उत्तर प्रस्तुत करने का सफल प्रयास है। भक्तिकाव्य में सूफ़ी काव्यधारा का अपना विशेष महत्व है। उस समय की सामाजिक संरचना का अध्ययन आज के समाजशास्त्रीय उपकरणों के माध्यम से यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

समाज चाहे जब का हो, किसी समय-कालखंड का हो, एक तार्किक व समझदार व्यक्ति सदैव बेहतर समाज की परिकल्पना करता है। ऐसे में ‘रामराज्य’ एक सामाजिक अवधारणा के रूप में भारतीय उपमहाद्वीप में प्रस्तुत हुआ जहाँ सब लोग सुखी, सम्पन्न व प्रसन्न हैं।आज आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों वाली सरकारों में भी हम ऐसी स्थितियों को प्राप्त नहीं हो पाए हैं। मध्यकाल व उससे पूर्व ही यह अवधारणा हमारे समाज के चिंतकों ने प्रस्तुत की। इस पुस्तक में ‘रामायण और रामचरितमानस में प्रतिष्ठित मूल्यों की सार्वभौमिकता’, ‘रामचरितमानस: आदर्श सामाजिक व्यवस्था का महाकाव्य’ व ‘सामाजिक प्रतिबद्धता का लोकवृत्त’ लेखों में इसे समकालीन संदर्भों के साथ जोड़कर आदर्श सामाजिक व्यवस्था का रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है। लोकतंत्र ‘दैहिक दैविक भौतिक तापों’ से बचाने की बात नहीं करता लेकिन भक्तिकाल के कवियों ने अपनी भक्ति व सामाजिक समझ से इन सबको हर डालने की बात करते हुए नज़र आते हैं। कृतिकार के निगूढ़तम मंतव्यों और संदेशों को अतीव सरल और सहज रूपों में पाठक के लिए संवेद्य बनाने का दायित्व आलोचक पर अवलम्बित होता है। वह पाठक की काव्य रुचियों और साहित्य संस्कारों को प्रगतिशील और स्वस्थ दिशाओं की ओर उन्मुख करता है न कि उसे और अधिक जटिल बनाकर उसे ग़लत दिशा की ओर मोड़ दे। इस हिसाब से यह पुस्तक अद्वितीय है। प्रो. उपाध्याय ने तुलसीदास के ऊपर अनेक हमलों को अपने काव्यशास्त्रीय समझ व परम्परा की गहरी व पैनी दृष्टि की ढाल से रक्षा की है। तुलसीदास संभवतः एक ऐसे कवि हैं जो जितने अधिक लोक में विख्यात हैं, जितने अधिक उनके पाठक हैं, उतनी ही बड़ी संख्या में उन पर हमलावर भी हैं। ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ यह पंक्ति न जाने कितनी ही बार उद्धृत कर उनको नारी के प्रति पिछड़ी दृष्टि के साथ और बहुत से अप्रगतिशील मूल्यों का पोषक कहा जाता है। इस पुस्तक में ‘हिंदी के पहले नारीवादी कवि हैं तुलसी’ लेख में बहुत ही सहजता से इस बात को सिद्ध किया कि तुलसी पर लगने वाले ऐसे आरोपों का आधार नहीं है। कुपाठ कर यह दुष्प्रचार किया गया है। प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय की विशेषता यह है कि ऐसे पहलुओं जो कि विवादित हैं और सामान्य लोग उससे बचने की कोशिश करते हैं, वे ऐसे विषयों को छोड़ते नहीं अपितु ऐसे विषयों को खोजकर उस पर सार्थक दृष्टि डाल पाठकों को उलझन से तार्किक रूप से बाहर भी लाते है जो कि एक आलोचक का दायित्व भी है। इस मामले में वे एक सफल व सुलझाऊ आलोचक हैं न कि उलझाऊ। मध्यकाल की स्थापत्य कला की बात पूरे भारत में बहुत गर्व से की जाती है,हम ताजमहल को दूसरों को दिखाते हुए नहीं थकते। परंतु अपने कवियों और काव्यों में स्थापत्य कला के जो विशाल भवन निर्मित किए गए हैं, उन पर शायद ही आज तक किसी ने दृष्टिपात किया हो। प्रो. उपाध्याय ‘तुलसीदास और ताजमहल’ लेख में हमें इस ओर भी सोचने का इशारा करते हैं। इस ओर दृष्टि अभी तक शायद ही किसी आलोचक ने डाली है,इसलिए यह पूर्णतः मौलिक दृष्टि भी है।

आज जबकि सारी दुनिया पर्यावरणीय चिंताओं से घिर गयी है। रियो डी जेनेरियो से लेकर पेरिस समझौते की गूंज समूची दुनिया में सुनाई दे रही हैं,ऐसे में पर्यावरण एक महत्वपूर्ण विषय बनकर हमारे सामने आया है। जब हमने अपने आस-पास व परिवेश को दूषित कर दिया, हमें यह बात तब जाकर समझ आई। यदि मध्यकालीन कविता के इन संदर्भों को हमने समझने की कोशिश की होती तो शायद हम आज ज़्यादा जागरूक होते, यदि इसे व्यवहार में उतारा गया होता तो आज इस तरह के संकट से हम न जूझ रहे होते। ‘भारतीय पर्यावरणीय दृष्टि और संत जांभोजी का चिंतन’ लेख में आलोचक ने इन्हीं समकालीन मुद्दों से जोड़कर संत जांभो जी के काव्य को समझने का प्रयास किया है।

मध्यकालीन साहित्य अपनी पूर्णता में विचार,भाव,भक्ति,आदर्श,यथार्थ,समय-समाज,व्यष्टि-समष्टि,शास्त्र-लोक,उच्चतर नैतिक मूल्य व चराचर जगत के सभी चिंताओं का बहुरंगी समुच्चय है। इसमें जीवन और जगत की ऐसी कोई गति तथा ऐसा कोई प्रश्न नहीं जिससे जूझते हुए हमारे कवि उन अनुगूँजों तथा उन आशयों तक न पहुँचे हों जो मनुष्यमात्र के उज्ज्वल भविष्य के प्रति विवेकपूर्ण संकेत करते हैं।’ इस पुस्तक की यह पंक्ति महज़ उदाहरण है कि देखे जाने की दृष्टि कितनी व्यापक है। आलोचक प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय ने अपने श्रम को सार्थक रूप दिया है। यह पुस्तक मध्यकाल से जुड़े विविध पहलुओं पर मौलिक चिंतन करती है,इसलिए मध्यकाल के पाठकों के लिए अब से यह पुस्तक ‘अवश्य ही पढ़े जाने वाली’ पुस्तकों की श्रेणी में अपना स्थान बना पाने में सफल होगी। इसमें विषयों पर चिंतन महज़ मौलिक ही नहीं अपितु गहन और तार्किक भी है जो इसको और धार देते हैं। यह पुस्तक मध्यकाल के पाठकों के लिए नई खिड़कियाँ खोलती है जिससे एक ही दृश्य को अलग-अलग तरीक़े से तो देखा ही जा सकता है, साथ ही उस कोण से कुछ नए दृश्य भी देखने को मिलते हैं। ये नए दृश्य ही इस पुस्तक की सार्थकता व आलोचक के श्रम को सार्थक करते हैं।

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