वाइरस (कविता) – हूबनाथ पांडेय

Coronavirus Hubnath Pandey

ईश्वर छुट्टी पर चला गया
भक्त आइसोलेशन में
एक वाइरस ने
किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रखा
चुनौती की भाषा में चीखने वाले
समझौते की ज़बान पर उतर आए हैं
सारे विश्व का योगक्षेम वहन करने का भ्रम पालने वाले
अपनी जान बचाते फिर रहे हैं
अपने आप पर से उठ रहा भरोसा
सबका
शेर बाघ बकरी खरगोश
सब एक ही घाट
सारे भय शक्ति नहीं देते
कुछ कमज़ोर भी बनाते हैं
अफ़वाहों के भंवर में
डूबते उतराते लोग
लगातार धोएं जा रहे हैं
हाथ मुंह सीने छपाछप
फिर भी भय
फिर भी डर
ब्रह्मराक्षस परेशान है
परित्यक्त सूनी बावड़ी के
ठंडे अंधेरे क़्वारेंटाइन में
पस्त है
सृष्टि के आदि में जैसा रहा होगा घनघोर अंधेरा
उससे कम नहीं है
जैसे मरती हैं एक एक कोशिकाएं
मर रहा जीवन सारे जग का
आहिस्ता आहिस्ता
ब्रह्म की तरह रहस्यमय
किसी की समझ में नहीं आ रहा
या सभी समझ रहे थोड़ा थोड़ा
जिसकी जितनी समझ
उतना झेल रहा है
सारे संबंध
रेत की ढूह से ढह रहे हैं
कोई खिसियाया सा चुटकुलों में राहत ढूंढ़ता
तो कोई थोथा ज्ञान बघारता
कोई लिख रहा कविता
तो कोई मर्सिया
किसी ने रखा हिसाब
कि कितने मरे
कितने चपेट में
कितने मरेंगे अभी
डरे हुए लोग
डरी हुई भाषा में
न डरने का आह्वान कर रहे
महानायकों तक की फटी पड़ी है
कोई जुटा रहा राशन
न जाने कब क़ैद होना पड़े
अकेले डाक्टर ही डटे हैं
अपनी छोटी सी फौज लिए
बाकी सारी फौजें नाकाम हो चुकी हैं
शक्ति के सारे अस्त्र शस्त्र ब्रह्मास्त्रों में जंग लग गई
परमाणु बमों पर हग रहे
चूहे और तिलचट्टे
अब किसी को नहीं बचानी
पृथ्वी
न बचाने हैं प्रेम-पत्र
प्रेमिका का चुंबन
और बच्चों का आलिंगन भी
बचा न पाए
मजबूरी में हाथ जोड़ते
खिसियाये लोग
बचा रहे सिर्फ
नितांत अपना शरीर
एक मामूली से वाइरस ने
हजारों बरसों की उपलब्धियों में आग लगा दी
बचा सिर्फ दमघोंटू धुंआ
जिसमें खो गई है
पहचान सबकी
सब कर रहे इंतजार
बाढ़ के उतरने का
बैठे हुए कगार पर
डूबने से ठीक पहले.

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