वह धर्म अधर्म है जिसमें समानता नहीं है ।
समता, न्याय, स्वातंत्र्य भाव ही सद्धर्म का सार है।
भारतीय समाज सदियों से अपनी विद्रूप वर्ण व्यवस्था के कारण जातीय छुआ-छूत के अभिशाप से ग्रसित रहा है। यदि किसी देश, समाज और राष्ट्र के उत्थान का मूलतत्व धर्म है, तो अधर्म समाज और राज के पतन का कारण भी बनता है। बीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का नाम समाज सुधारकों में सर्वोपरि रहने का अधिकारी है, क्योंकि उन्होंने भारतीय वर्ण व्यवस्था और मनुस्मृति की व्यवस्था से मुक्ति दिलाते हुए सामाजिक संरचना को लोकतान्त्रिक आधार पर पुनर्गठित किया था। डॉ. आंबेडकर ने भारतीय समाज की समस्याओं का गहरा अध्ययन किया और उसके उन्नयन के लिए रास्ते भी तलाशे । उन्होंने महसूस किया कि यह समाज भयंकर रूढ़ियों और अंध मान्यताओं से ग्रस्त है। यह धर्म के नाम पर अनेक बुराइयों से घिरा है। इसलिए उन्होंने सामाजिक जीवन को यथार्थवादी तथा मानवीय दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया और कहा कि जो धर्म समानता, न्याय और स्वतंत्रता का अधिकार नहीं देता वह धर्म नहीं अर्धम है । १४ अप्रैल सन १८९१ को महाराष्ट्र की धरती पर मानवता को प्रकाशित और नए सिरे से परिभाषित करने वाला बाल सूर्य डा. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर का जन्म हुआ । स्कूली जीवन से ही अछूत होने की पीड़ा झेलने वाले आंबेडकर जिन्हें संस्कृत की शिक्षा से वंचित रखा गया, आगे चलकर स्वाध्याय से संस्कृत भाषा को सीखकर वेदों पुराणों की आश्चर्य जनक व्याख्या प्रस्तुत की। अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय से एम.ए.पी.एच.डी के पश्चात लंदन स्कूल आफ इकोनोमिक्स एंड पालिटिकल साइंस से डी. एस. सी., एल. एल. डी. की उपाधि लेने के पश्चात भारत लौटे। यहां प्रोफेसर होने के बाद भी उनसे छुआ-छूत का व्यवहार किया जाता था। इन सबसे दुःखी होकर आंबेडकर ने अपने आपको वकील पेशे की प्रैक्टिस के साथ-साथ अछूतोद्धार में लगाने का संकल्प किया।
प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात सम्पूर्ण विश्व में आम आदमी के जीवन को बेहतर बनाने के प्रयास शुरू हुए थे। अछूत, मजदूर और आमआदमी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए ‘बहिस्कृत हितकारिणी सभा’ २० जुलाई १९२४ को स्थापित की गई जिसे बम्बई प्रेसीडेंसी ने मंजूरी दे दी थी। इसके चेयरमैन थे डॉ. आंबेडकर दलितों के लिए पढाई उनके लिए छात्रावास, उनकी आर्थिक स्थिति सुधारना कठिनाइयों का निदान, दलितों में सांस्कृतिक चेतना लाने के लिए सोसल सेंटर और स्टडी सर्कल की व्यवस्था करने का संकल्प लेकर यह संस्था एक क्रांतिकारी परिवर्तन की दिशा में कदम बढ़ाया। डॉ. आंबेडकर ने कहा कि मनुष्य स्वयं अपना निर्माता है। उनकी फौज को अपना भाग्य बनाने के लिए स्वयं आगे आना होगा। अपने इसी संकल्प के लिए उन्होंने आजीवन नौकरी न करने का संकल्प लिया और अपने संपूर्ण जीवन को मानव सेवा के लिए समर्पित कर दिया।
डॉ. आंबेडकर ने ‘बहिस्कृत भारत’ पत्र निकालकर जनता को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि मन्दिर, तालाब, कूएं सभी वर्ग और प्रत्येक मनुष्य के लिए सुलभ होना चाहिए। डॉ. आंबेडकर राजनीतिक सुधार की अपेक्षा समाज सुधार को अधिक मौलिक मानते थे। चवदार तालब का पानी पीकर नासिक के कालाराम मन्दिर में प्रवेशकर २५ दिसम्बर १९२७ को मनुस्मृति को जलाकर नये संविधान के सृजन की मांग किया। डॉ. आंबेडकर का मानना था कि हरेक व्यक्ति को अपने विकास के लिए पूरी सुविधाएं मिलनी चाहिए। सभी के विकास से देश व जाति का विकास संभव है। जब तक सामाजिक आधार पर समाज में समानता स्थापित नहीं हो जाती तब तक किसी प्रकाश का विकास संभव नहीं है। जिस देश को समाज को डॉ. आंबेडकर जैसा समाज सुधारक विद्वान, राजनेता मिलता है वह देश धन्य हो जाता है। मानवता मुस्कराने लगती है। जन-जन के लिए निरन्तर संघर्ष करने वाले महामानव डॉ. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर एक मशाल की तरह लगातार जलते रहे दूसरों को रोशनी देने के लिए। उन्हें सच्चे अर्थों में मानवता का गौरव हासिल है। ऐसे दृढ़संकल्पी महामानव की जयंती पर विनम्र प्रणाम !