अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष: भारतीय सिनेमा में नारी

महिला दिवस

शीला वर्मा | पी.एच.डी. शोधछात्रा, मुंबई विश्वविद्यालय

प्राचीन काल से ही स्त्रियों की स्थिति दलित मानी जाती रही है। इसका प्रमुख कारण उनकी पारिवारिक तथा सामाजिक स्थिति रही है। स्त्रियाँ न केवल अपने परिवार में बल्कि समाज में भी दोयम दर्ज़े की ही मानी जाती हैं। हर काल में उन पर प्रतिबंध लगाने का क्रम बना रहा। हमारे समाज में हमेशा स्त्रियाँ ही दैहिक और मानसिक प्रताड़ना का शिकार होती रही हैं। सनातन काल से ही स्त्रियाँ अवरोधों, निषेधों और परंपरागत मान्यताओं के बीच जीने की अभ्यस्त बन चुकी हैं, लेकिन जब – जब उनका आक्रोश और छटपटाहट व्यक्त हुआ है, तब – तब पुरुष समाज को वह श्वेत पत्र जारी होने जैसा ही लगा है।

प्राचीन काल में स्त्री को वीर भोग्या मानकर युद्ध में कभी विजय प्राप्त कर और कभी उसका अपहरण कर पत्नी या दासी बना लेने की प्रवृत्ति थी। पुरूष वर्ग के लिए स्त्री मात्र आकर्षण और श्रृंगार की प्रतीक मानी जाती रही। स्त्री क्या चाहती है? उस पर किसी ने कभी विचार करने की मानो आवश्यकता ही नहीं समझी। स्त्री का जितना अधिक पतन रीतिकाल में हुआ, वैसा अन्य किसी काल में नहीं हुआ; परंतु आधुनिककाल में धीरे – धीरे पाश्चात्य प्रभाव पड़ने के कारण कई समाज सुधारकों ने स्त्री शिक्षा और उसके विकास की ओर ध्यान दिया। समाज स्त्री के प्रति संवेदनशील बनने लगा। पूरी तरह से तो नहीं, लेकिन कुछ हद तक समाज का बुद्धिजीवी वर्ग स्त्रियों की दयनीय स्थिति के बारे में सोचने पर विवश होने लगा। स्त्रियों के प्रति एक नए दृष्टिकोण का विकास होने लगा। परिणामस्वरूप स्त्री की भी समाज में सक्रिय उपस्थिति का अहसास लोगों को भली- भाँति महसूस होने लगा।
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स्त्री घर, परिवार और समाज में मात्र एक निर्जीव वस्तु बनकर न रह जाए, अतः उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास हेतु सामाजिक एवं साहित्यिक रूप से अनेक क्षेत्रों में कार्य किए जाने लगे। वास्तव में यदि विचार किया जाए तो स्त्री के उत्थान के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता कभी नहीं थी, क्योंकि स्त्री तो सृजन का प्रतीक है वह प्रकृति के समतुल्य है। जो स्वयं जन्म देती है, सृजन करती है, उसका निर्माणकर्ता कोई और कैसे हो सकता है? लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि पुरूष सत्ता के झूठे अंहकार और दंभ ने स्त्री के अस्तित्व को अपने सामने तुच्छ और हीन ही समझा। उसे सदैव उस लक्ष्मण रेखा के भीतर बाँधे रखने की भरसक कोशिश की जहाँ केवल उसे निराशा, कुंठा, अत्याचार, शोषण और अपमान सहते हुए उपेक्षिता होने का आभास होता रहा। परन्तु बदलते सामाजिक परिवेश और समय की गति के साथ आज की नारियाँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गई हैं। वे अपने हक़ के लिए संगठित होकर संघर्ष करना सीख चुकी हैं।

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स्त्रियों के जीवन में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। उनमें शिक्षा का प्रतिशत बढ़ा है। हर तरह की नौकरियों और उच्च शासकीय पदों पर वे सफ़लतापूर्वक कार्यरत हैं। मातृत्व, परिवार और समाज के प्रति स्त्री की सोच में बदलाव आया है। यह बदलाव भी एक सा नहीं है। शहरी और उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों में यह सोच उस बाज़ार संस्कृति से प्रभावित है जहाँ सौंदर्य प्रतियोगिता में स्त्री की उपलब्धि को उसकी प्रतिभा और स्वतंत्रता का मानक माना जाने लगा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नारी प्राचीन परम्पराओं और मान्यताओं से हटकर अपने नए व्यक्तित्व का निर्माण करने लगी है। इसमें कहीं न कहीं विद्रोह की भावना थी और पाश्चात्य दृष्टिकोण का प्रभाव भी।

आज की नारी स्वावलंबी तथा आत्मनिर्भर बनना चाहती है। नारी के व्यक्तित्व को उभारने में समाज और साहित्य के साथ सिनेमा का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जिस प्रकार साहित्य समाज का दर्पण है, उसी प्रकार सिनेमा भी समाज और साहित्य से भिन्न नहीं है। सिनेमा ने भी समाज को प्रभावित किया है। समाज का शिक्षित और अशिक्षित वर्ग दोनों ही सिनेमा के प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। कलात्मक एवं यथार्थवादी फ़िल्मों के माध्यम से अनेक सामाजिक और ज्वलंत समस्याओं को लोगों के सामने अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने का कार्य सिनेमा ने ही किया है। भारतीय सिनेमा ने नारी के बदलते स्वरूप को और उसकी सामाजिक तथा पारिवारिक भूमिका को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

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आज भारतीय सिनेमा में नारी सिर्फ़ आकर्षण का विषय ही नहीं बल्कि चिंतन , सामाजिक चेतना और विद्रोह का विषय भी बन चुकी है। 1932 में आई वी. शांताराम की फ़िल्म ‘दुनिया न माने ‘ एक यथार्थवादी फ़िल्म है। इस फ़िल्म की नायिका निर्मला ( शांता आप्टे ) बेमेल विवाह की शिकार तो बन जाती है लेकिन वह अपने अटूट साहस और धैर्य से बड़ी निडरता के साथ अपने बूढ़े पति को अपनाने से इनकार कर देती है। इस फ़िल्म में स्त्री की स्वातन्त्रय, बेमेल विवाह का विरोध और रूढ़िगत मान्यताओं तथा संस्कारों का खंडन करते हुए एक सशक्त महिला के चरित्र को उभारने का सफ़ल प्रयास किया गया है। 1940 में महबूब खान द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘औरत ‘तथा ‘अंदाज़ ‘ (1949) भारतीय नारी की परंपरागत भूमिका के दायरे से बाहर निकलने वाली औरतों की कहानी है।

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मदर इंडिया फ़िल्म (1957) में अभिनेत्री नरगिस द्वारा निभाया गया माँ का किरदार अत्यंत प्रभावशाली है ।इस फ़िल्म में माँ के रूप में स्त्री का ऐसा चरित्र दर्शकों के सामने आता है जिसने अपने पुत्र प्रेम को अपने कर्तव्य के आड़े नहीं आने दिया । कुमार्ग पर चलने वाले पुत्र की स्वयं गोली मारकर हत्या करने का दृश्य अत्यंत भावपूर्ण है।

श्याम बेनेगल की फ़िल्म अंकुर, निशांत, भूमिका तथा मंडी भी प्रमुख रूप से स्त्री केंद्रित फ़िल्में हैं। अंकुर फ़िल्म (1973) में कौशल्या ( शबाना आज़मी ) मातृत्व सुख को अपना अधिकार मानती है और अपने पति से संतान प्राप्ति न होने पर दूसरे पुरुष से सम्बंध बनाने में किसी तरह के अपराधबोध या ग्लानि का अनुभव नहीं करती है। स्त्री का अपनी देह पर बिना किसी वर्जनाओं के एकाधिकार होता है, यह सत्य इस फ़िल्म का सबसे उजला पक्ष है। अंकुर फ़िल्म सामंती प्रवृत्ति, स्त्री शोषण , पुरुष वर्चस्व तथा धार्मिक पाखंड पर तीखा प्रहार करती है। भूमिका फ़िल्म ( 1997 ) में पुरुष सत्ता और उसके झूठे दंश से अपने आपको स्वतंत्र रखने का अथक प्रयास करते हुए एक ऐसी स्त्री की मनोदशा को दिखाया गया है, जो स्वयं एक सफ़ल अभिनेत्री तथा कलाकार है। स्वाभिमानी तथा आत्मनिर्भर है , बावजूद इसके घरेलू हिंसा, व्यभिचार तथा अपने पति और जीवन में आए अन्य पुरुषों के झूठे अहंकार को झेलना उसकी नियति बन गई है। स्त्री जीवन के संघर्ष को और उसकी शारीरिक तथा मानसिक स्वतंत्रता की छटपटाहट को इस फ़िल्म के माध्यम से दिखाया गया है।

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1985 में केतन मेहता द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘ मिर्च मसाला ‘ नारी शक्ति और उसके अदम्य साहस तथा सामर्थ्य को दर्शाती हुई एक उत्कृष्ट फ़िल्म है। पुरुषसत्ता और उसकी क्रूरता का पुरज़ोर विरोध करते हुए ग्रामीण स्त्रियों के संगठित एवं सार्थक विद्रोह को इस फ़िल्म में दिखाया गया है। स्त्री शिक्षा तथा नारी सम्मान समाज की प्राथमिकता है। पुरुषवादी अंह और दंभ के कारण स्त्रियाँ न तो स्वनिर्णय ले पाती हैं और न ही अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का विरोध कर पाती हैं। मिर्च मसाला फ़िल्म में स्त्रियों के विद्रोह को मुखर स्वर प्रदान किया गया है।

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भारतीय सिनेमा में ऐसी कई फ़िल्में हैं, जिनके माध्यम से स्त्री जीवन के संघर्ष और उसकी विविध समस्याओं को दिखाने का सफ़ल प्रयास किया गया है। कलात्मक तथा कई व्यावसायिक फ़िल्मों में नारी चरित्र को प्रधानता देकर फ़िल्म जगत ने भी स्त्रियों के प्रति अपना सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने का कार्य सफ़लतापूर्वक किया है। स्त्री केवल एक स्त्री नहीं होती है, वह एक साथ अपने वास्तविक जीवन में भी कई अहम भूमिकाओं का निर्वाह करती है। माँ, बहन, बेटी प्रेमिका तथा पत्नी के रूप में उसके जीवन में प्रतिदिन उतार – चढ़ाव आते रहते हैं।

भारतीय सिनेमा ने स्त्री के लगभग सभी रूपों को समाज के सामने बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करने का कार्य किया है। 21 वीं सदी के प्रथम दशक के हिंदी सिनेमा में भी नारियों के बदलते स्वरूप को चित्रित किया गया है। चाँदनी बार, डोर, ओमकार, कॉरपोरेट, लाइफ़ इन मेट्रो, पीपली लाइव, फैशन, पेज थ्री तथा परज़ानिया जैसी फ़िल्में स्त्री केंद्रित फ़िल्में हैं।

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आज की नारी अबला कम और सबला अधिक है। अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति वह सजग और सावधान है। अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को अब वह पहले की तरह मूक बन कर नहीं सहती है बल्कि उसके विरोध में डटकर खड़ी रहना सीख चुकी है। आज के दौर के सिनेमा में लगभग हर क्षेत्र में नारी की उपस्थिति का चित्रण मिलता है। इस दृष्टिकोण से सिनेमा और समाज के अंतःसंबंध को नकारा नहीं जा सकता।

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