नयी पीढ़ी की दिशाहीन यात्रा : वर्तमान परिदृश्य – डाॅ.अमलदार ‘नीहार’

खून के आँसू रुलाकर यूँ, बताओ क्या मिला? आसमाँ को भी झुकाकर यूँ, बताओ क्या मिला? दर्द का दरिया बहे दिल में उठे तूफान-सा, फल-लदे जंगल जलाकर यूँ, बताओ क्या मिला..?

डाॅ.अमलदार 'नीहार'

खून के आँसू रुलाकर यूँ, बताओ क्या मिला?
आसमाँ को भी झुकाकर यूँ, बताओ क्या मिला?
दर्द का दरिया बहे दिल में उठे तूफान-सा,
फल-लदे जंगल जलाकर यूँ, बताओ क्या मिला?
आबेहयात (ग़ज़ल-संग्रह-अमलदार नीहार ‘आमिल’)

आधुनिक शिक्षा में नयी तकनीक, सूचना प्रौद्योगिकी ने सचमुच दुनिया को एक लड्डू या मुरब्बे की तरह हमारी हथेली पर रख दिया है, जिसका स्वाद हमारे-आपके बच्चे ले रहे हैं। इस नज़रिये से हम यह कहने में गर्व का अनुभव करते हैं कि हमारे बच्चे हमसे आगे चले गये हैं, उन्हें देश-दुनिया का बड़ा ज्ञान है, जिससे हम आधुनिक जीवन में स्वयं को उनसे पिछड़ा हुआ महसूस करने लगे हैं। जीवन को बेहतर बनाने के लिए ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न होने के साथ बदलते दौर की तकनीकी चीजों की तथा कामयाब होने के हर हुनर की जरूरत हमें पड़ती जरूर है, पर इन साधनों-उपकरणों से एक अधिक संवेदनशील, अधिक मानवीय और नैतिक स्तर पर मूल्यवान, अधिक बेहतरीन और सभ्य परिवार-समाज बनाने में हमें कोई विशेष मदद नहीं मिलती। रिश्तों के सुकोमल, सुगन्धित और रेशमी एहसास को जगाने के लिए जिस नैसर्गिक सरल स्नेह-सौहार्द, ममत्व, श्रद्धा, समर्पण, त्याग, सहिष्णुता और परस्परापेक्षिता की आवश्यकता है, यह सब तो कौटुम्बिक भाव में ही विद्यमान है। नैतिक आचरण का व्याकरण-पाठ जो हमारे कथा-काव्य और नीति-ग्रन्थों में लिपिबद्ध है, वह हमारे जीवन-आचरण में भी दिखना चाहिए, उन्नयन तभी सम्भव है। उसके लिए कोमल स्पर्श, मधुर तथा विनम्र संवाद, एक दूसरे के सुख-दुःख में खयाल रखना बहुत जरूरी है। प्रेम और सम्मान का आत्मीय रिश्ता निभाना कोई नफा-नुकसान का सौदा नहीं, यह तो परमात्मा के पावन मंदिर में बैठ एकाग्रचित्त उसी से एकाकार हो जाना है, उसी की एकान्त मन से की गयी साधना-आराधना है और दुनिया के प्रेम का कर्ज़ उतार देना है। इस प्रेम में पराजय सबसे बड़ी जीत है और सर्वस्व त्याग सबसे बड़ी उपलब्धि। यह मैं निस्संकोच रूप से कहना चाहता हूँ कि हमारी नयी पीढ़ी रिश्तों की व्याप्ति को सयत्न सहेजने-समेटने के मामले में लगभग फिसड्डी साबित हो रही है। हमने ऐसे बच्चों को देखा है, जिन्होंने अपने माँ-बाप के प्रति निज दायित्व को निभाने में कलुषित हृदय से मुनाफे के बाट से तोलकर भी उनके साथ एक बेहूदा, असभ्य, बर्बर, क्रूर कसाई जैसा बर्ताव किया है। जन्मना दरिद्र और श्रमजीवी की स्थिति प्रायः बद से बदतर है। उनके भी घरों के चूल्हे आपस में अबोला रखते हैं और बहू-बेटे न कमाने वाले बाप को बोझ समझते हैं। एक-दूसरे पर तंज़ कसना उनकी दिनचर्या में है और तक़रार में ताड़ी सा नशा, जिसकी लत लगी हुई है। शिक्षा और समझदारी से उनका दूर का वास्ता है, दूरदर्शिता लूली-लँगड़ी और बुद्धि अंधी है। अपवाद उसी घर में देखने को मिल सकता है, जिनके बच्चे कलिकाल की ‘बिगड़ी हवा’ से कुछ अछूते रह गये हैं। नौकरी करने वाला बाप दुनिया छोड़कर जा चुका है और पति की पेंशन पाकर भी अपने जने बच्चों की दया पर पलने वाली माँ समय पर दो रोटी और एक लोटा पानी के लिए तरस रही है। उससे अब चला-फिरा नहीं जाता तो ज़िन्दगी नरक बनकर रह गयी है। जिस घर में बूढ़ा बाप अभी जीवित है,, उसकी पेंशन उसके बच्चे छीन लेते हैं और उसे तिल-तिल घुट-घुटकर मरने के लिए घर के किसी उपेक्षित कोने में चमगादड़ों के बीच अकेला छोड़ देते हैं। अपने ही माँ-बाप को खून के आँसू रुलाने वाले ये नालायक बेटे और बहुएँ केवल गाँवों में नहीं पायी जातीं, इनकी संख्या शहरों में भी खूब देखने को मिलती है। पिछड़े घर-परिवार में ही ये काले किस्से नहीं मौजूद हैं, अच्छे-भले प्रतिष्ठित परिवारों में नीचता की काली परछाइयाँ इंसानियत को दिन-रात डँसती रहती हैं। आप अपने आस-पास थोड़े-से प्रयास से इन किस्सों को कलमबन्द कर सकते हैं। मेरी एक कविता “लहूलुहान रिश्ते का सिसकता बयान” की कुछ पंक्तियाँ देखिए, एक अभागे बाप का कैसा दर्द दिखायी देता है–

“दुःख का बर्फीला पहाड़ चढ़ना चाहे सुख की चींटी
पै कोई रस्ता नहीं मिलता
चोटी पे पहुँचने का…
और ग़र पहुँच ही जाय…
तो क्या घट जायेगा पहाड़ पिघलकर?
अपनी ही औलाद निकल जाय हरामी जब
तो उस तकलीफ़ का बयान…
ऐसहीं होता है बाबूजी! “

कहते हुए फफक पड़ा रामफेर
गिरते हुए पैरों पर।
देखा कि लगे हैं अनगिन घाव उसके गात पर
हजार गुना गहरे उससे भी, मर्म पर–जज़्बात पर
करते हुए सामाजिक रिश्ते को लहूलुहान–
सगे एकदम, प्राण-रन्ध्रों से बहते अपने ही खून के,
इसकी कल्पना कौन कर सकता है
कि जिसके साथ चलते हो बन बच्चे तुम
घुटनों के बल अपरिमित उछाह-उमंग अंग-अंग, लेते हो बलैया जिसकी बारम्बार,
बनते हो बंदर व घोड़े जिसके लिए,
चूमते हो–चाटते हो पेन्हायी गाय की तरह,
उसी के वात्सल्य-पिंजरे में कै़द
तुम्हारे प्राणों का चैन-तोता–
सपने हजार बंद आँखों में–“ऐसा होता, वैसा होता”,
कि एक दिन लहूलुहान कर देगा तुम्हारी नंगी पीठ–
और छाती छलनी, जिगर को चाक, कलेजा दो टूक
पूरा ही बदन अचानक अचूक
किसी चमड़े के चाबुक या लाठी-डण्डे से,
घोंट ही डालेगा तुम्हारा मर्म ज़हरीले धुएँ से–
चमड़े की जीभ से–अपनी दुनिया बस जाने के बाद?
देख रहा हूँ कि रामफेर के होंठ कटे हैं,
कनपटी सूजी हुई,
पीठ पर आधुनिक सभ्यता के
नीले-ज़हरीले नाखूनों के भेड़िया निशान…
भचक-भचककर चल रहा है रामफेर,
भभरियाये रोम-रोम कि सूख चुके कण्ठ-प्राण,
किस लोक में कहाँ और कौन देगा उसे त्राण?
हल्दी तो लगवायी उसके टीसते घावों पर,
लेकिन लगाऊँ कैसे मरहम हताहत मर्म पर,
समझ नहीं पाता। ”
हृदय के खण्डहर (कविता-संग्रह) – अमलदार ‘नीहार’

अपनी पीठ पर जिम्मेदारियों का पहाड़ ढोते और बुढ़ाते माँ-बाप जिनकी चिन्ता में दिन-रात दुबले हुए जाते हैं, उनकी ही भलाई के लिए कितने जतन करते हैं। उन्हें तनिक भी तकलीफ़ हो तो मानो उनकी साँस ही अटक जाती है, उनकी अपनी नींद हराम और चैन गाय हो जाता है यदि उनके बच्चों के ऊपर मुसीबत की छाया भी पड़ जाय तो। बच्चों के मुँह में जब एक-एक निवाला जाता है तो जैसे उनकी अपनी ही आत्मा परितृप्त हो जाती हो। घोंसले में बैठे शावक की खुली कोमल चोंच में चारा डालने वाली गौरैया को क्या सुख मिलता है, यह तो एक माँ का दिल ही जान सकता है। बच्चे की भोली मासूम आँखों में खुशी की एक चमक और होठों पर एक निर्मल-निश्छल खिलखिलाहट देखने के लिए न जाने क्या कुछ क़ुरबान करने को तैयार हम सभी माँ-बाप के रूप में। हमारी खुशी का एक क़तरा, हमारे आनन्दोल्लास का अनन्त पारावार अपने हँसते-खेलते परिवार के ही संग-साथ लहराता है। परिवार में ही बचपन दुलार पाता है, यौवन अमन्द आमोद में तरंगित हो उठता है और बुढ़ापा चेतना-समाधि के सुस्थिर जल में झिलमिल आनन्द-प्रकाश का साक्षात्कार करता है। हमारे अश्रु-हास, हर्ष-विषाद, चिन्ता, उम्मीद, अरमान, सब कुछ टिके हुए हैं बच्चों की हँसती-खेलती ज़िन्दगी पर। त्याग और बलिदान माँ-बाप का नैसर्गिक गुण है। इसे नैसर्गिक ममत्व कह सकते हैं, मोह, आसक्ति या कुछ और? इसी सृष्टि में कुछ ऐसे भी जीव हैं, जो आत्मोत्सर्ग की की कीमत चुकाकर ही माँ बन पाती हैं, उनके ही बच्चे माँ के शरीर का भक्षण करके इस दुनिया में आते हैं। सभ्य दुनिया में बहुत से खल स्वभाव के मानुषी बच्चे माँ-बाप का रक्त चूसने और सुख-चैन हराम करने का काम जीवन पर्यन्त करते है। मानव समाज में नैसर्गिक स्नेह, ममता, आसक्ति, वात्सल्य, समर्पण-श्रद्धा आदि भावों को सामाजिक दृष्टि से सम्बन्धों को जोड़े रखने में अदृश्य चेतना की सहज प्रेरणा भी मान सकते हैं, लेकिन हमने प्रत्येक घर-परिवार और समाज में ऐसे बच्चों को भी खूब देखा है, जो वयस्क हो जाने पर “अपनी फेमिली” में मस्त-मगन किसी ऐसी दुनिया के निवासी हो जाते हैं, जहाँ से उन्हें माँ-बाप के दिल की धड़कन, उनकी कातर-करुण पुकार तक नहीं सुनायी देती। मैं यह नहीं कह सकता कि माँ-बाप की आह-कराह सुनने वाले बच्चों की संख्या नगण्य-सी हो गयी है, लेकिन यह सच है कि बूढ़े माँ-बाप के दर्दे-दिल का वह तापमान युवा बेटों के मन में पैदा ही नहीं हो पाता, जो उनके लिए एक माँ बिना बताये महसूस कर लेती है। जवानी के कन्धे पर बुढ़ापे का बोझ ऐसा असहज लगता है कि सभ्यता शर्म से चेहरा छिपा लेती है।
आखिर एक पिता अपनी प्यारी संतान से बुढ़ापे में क्या अपेक्षा रखता है-

“मेरे बच्चों! अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ,
कन्धे अब नहीं रहे मजबूत इतने कि
घुमा लाऊँ चाँद-तारों की दुनिया तक तुम्हें,
न ला सकता हूँ वे जुगनू
न तितलियाँ रंग-विरंगी, खूबसूरत ख्वाबों सी
न घोड़ा बने रहने की हिम्मत हमारी थर-थर टाँगों में,
न दुर्वह भार-श्रम-समर्थ शरीर, मेरुदण्ड खण्ड-खण्ड,
व्यूढ कपाटोपम विदीर्ण छाती जिजीविषा की,
पर तुम्हें सिखा दिया है उड़ना भाव विभोर,
कुलाँचें भरना मृगशावक-सा सोल्लास
उछलना कंगारू-सा, भागना सरपट बेलगाम घोड़े-सा
मृगेन्द्र-समान हो निडर निज सत्य-राह चलना,
हवा में सूँघते रहना कठिन काल की काकोदरी गन्ध,
बने जो बाधक पहाड़, पीछे ठेल देना परिश्रम के बल।
मोल पसीने का भी है और प्रतिभा का भी
जो बैठा रह जाता है हाथ पर धरे हाथ
सफलता सरक जाती है ज्यों किनारे पर खुली हुई नाव
सपने सजाये रखना सदैव अपनी जागती आँखों में
तलाशना अपनी ही ज़मीन के अन्दर खुशियों के बीज,
तोड़ लाना सितारे आसमाँ के सारे,
मेरे बच्चों! अब तुम बच्चे नहीं रहे,
चाह़ता हूँ कि अच्छे ‘पिता’ बनो तुम भी
सच्चे अर्थों में निज दायित्वों के साथ
माथ मुकुट जीवन-महासंगर के अपराजेय योद्धा का
और नयी पीढ़ी तुमसे कहे–“पातु माम् –पातु माम्”
जिसकी बिहँसती बाल छवि निहार
शामिल हो जाऊँ मैं भी “बचपन” में चुपके से
और निभाओ तुम “पिता” की भूमिका ठीक मेरी तरह
आत्मीयता के स्पर्श-पुलकित प्राण मार्जार-शावक से
बच्चों के बीच बूढ़े माता-पिता भी कहीं तुम्हारे मनोलोक में
सार्थक हो “पिता” नाम तुम्हारे साथ भी–दुआ हमारी। ”
हृदय के खण्डहर (कविता-संग्रह)-अमलदार ‘नीहार’

मेरा मानना है कि सन्तान की चार किस्म होती है/हो सकती है।पहली उत्तमोत्तम संतान वह है, जो बिना बताये अपने बूढ़े-बुजुर्गों की तकलीफ समझे और यथा समय सेवा-शुश्रूषा भाव से उसका उपचार करने में लग जाय। दूसरी सन्तान वह है, जो बताने पर तुरन्त सेवा-सहायता में जुट जाय, तीसरी सन्तान वह है, जो दर्द और छटपटाहट देखकर भी सेवा-टहल में टाल-मटोल करे या दूसरों का मुँह निहारे, चौथी श्रेणी है उस सन्तान की, जो निरन्तर तिरस्कार, उपेक्षा से मानसिक आघात पहुँचाये और सन्तान की पाँचवीं निकृष्टतम कोटि है, जो हर दिन अपमान करे, जो कंस तथा औरंगजेब की तरह क्रूर तथा आततायी हो, शक्ति-वैभव तथा सत्ता के लिए कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हो। यदि कोई चाहे तो इस परिभाषा की कसौटी पर भाई, मित्र तथा अन्य रिश्ते-नातों को परख सकता है। महाकवि कालिदास और गोस्वामी तुलसीदास ने फलदार वृक्ष से फल प्राप्त करने का जो सिद्धान्त बताया है, वह भी लगभग इसी प्रकार का है। उत्तम व्यक्ति वृक्ष से स्वयं टपके हुए फल को सादर प्रसाद की तरह ग्रहण करता है और उसी में उसे सन्तोष मिल जाता है। मध्यम कोटि का व्यक्ति कच्चे फल को पकने से पहले तोड़ लेता है और बाद में पकाकर खाता है। अधम श्रेणी का व्यक्ति फलों पर ढेले मारता है, डालियों को झकझोर डालता है, कोमल किसलयों को भी छिन्न-भिन्न कर देता है, अधमाधम व्यक्ति उस पेड़ को ही जड़ से नष्ट कर देता है, जिससे कोई दूसरा फल न खा सके। कितने ऐसे बेटे-बेटियाँ हैं इस दुनिया में, जो अपने बुजुर्ग तथा माँ-बाप की गीली आँखों का दर्द बूझ पाते हैं, जो उनके भीतर फैले दमघोंटू धुएँ में उनकी भाव-भूमि पर उतर उनकी ज़िन्दगी की जद्दैजहद में मजबूत कन्धा बन पाते हैं?

एक पल ठहरकर सोचिए, माता-पिता चाहे अच्छे हों, कम अच्छे हों, कुछ बुरे या अधिक बुरे हों, तब भी अपने बुद्धि-विवेक और सामर्थ्य की परिधि में अपनी संतान के लिए वह सब कुछ सोचते हैं-करते हैं, करना चाहते हैं, जो उन्हें गौरवदीप्त बना सके या कम से कम उससे सन्तान के प्राणों की रक्षा हो सके। एक श्रेष्ठ गुरु तथा श्रेष्ठ पिता अपने शिष्य तथा पुत्र को स्वयं से अधिक महिमावान देखना पसन्द करता है और उसकी कीर्ति से स्वयं को जोड़कर देखने का अधिकार रखता है। माँ-बाप का यही प्रेम जब दूसरों के हक़ छीन अपनी सन्तान के हित में खड़ा होता है तो ‘मोह’ कहलाता है। मोह में मूर्च्छा का भाव होता है, यह जन्म से अन्धा होता है–“मै” और ‘मेरा’ का ही भाव प्रबल होता है। जो माता-पिता जान-बूझकर या भूल से अपने बच्चों में यह संस्कार भर देते हैं, वे उसके सबसे बड़े शत्रु होते है।

ध्यान रहे यह मोह मगरमच्छ की तरह घातक है, और जिसके भीतर जन्म लेता है, उसका भी सर्वनाश कर डालता है। प्रेम यदि कर्तव्य भाव से जुड़ा है तो अपने प्राणों की भी परवाह न करके अपने बच्चों-प्रिय जनों या शरणागत की प्राण-रक्षा करता है, यदि मोहग्रस्त हुआ तो उसे जीवन-समर में दुर्योधन बनाकर जूझने के लिए अकेला छोड़ देता है। महाभारत की गान्धारी अपने पति के अन्धत्व की अनुगामिनी मात्र है। वह चाहती तो अपने जीवन-सहचर हस्तिनापुर-नरेश के लिए प्रकाश-पथ बन सकती थी, पर भारतीय संस्कृति के पातिव्रत धर्म की लकीर पीटती उसकी अन्धी आस्था ने उसके स्त्रीत्व को कुण्ठित, बौना और अपाहिज बना दिया। मेरी समझ से गान्धारी से अधिक सशक्त भूमिका है कुन्ती की। इसी महाभारत का निहायत कलुषित पात्र महामोह का प्रतीक है बुद्धि-अन्ध धृतराष्ट्र और श्रेष्ठ-सुपात्र श्रीकृष्ण के पूज्य माता-पिता देवकी-वसुदेव दो ऐसे ही व्यक्तित्व हैं, जो अपनी भूमिका में अधिक व्यापक न होकर भी महत्वपूर्ण हैं। न तो धृतराष्ट्र के जीवन की कोई अन्य यादगार पराक्रम-गाथा लोगों को याद है न देवकी-वसुदेव की, पर दोनों दो तरह से याद किये जाते हैं। हमें नहीं पता कि महाराज दशरथ ने अपनी प्रजा के हित में क्या-क्या किया। प्रजा का ताड़न करने वाली ताड़का से ‘जनस्थान’ की मुक्ति और प्रभुत्व-पद-मण्डित भुजंग-भोग-देवराज के ‘इन्द्रत्व’ से मर्दिता अहल्या जैसे ‘जन’ की अपयश-मुक्ति-दान का सुयश आज तक गौरव-तिलक बनकर राम के माथे पर चमक रहा है। राजा दशरथ ने भोग-विलास(रामायण-कथा के अनुसार राजा दशरथ के पास सात सौ रानियाँ थीं) के अलावा ऐसा कौन-सा कार्य किया लोक-मंगल का? वे इतने पराक्रमी थे कि देवता उनसे सहायता माँगते थे, पर एक निर्दोष श्रवण कुमार की हत्या ने ऐसा अभिशप्त किया जीवन को कि अपनी आँखों से बेटे को राजा बनते देख न सके, किन्तु दोष इतना ही नहीं था उनका। एक विलासी राजा को कैकेयी के प्रति कुछ अधिक मोहासक्त होने का भी दण्ड मिलना ही था। सब कुछ के बावजूद आज दशरथ इसलिए रामकथा में अमर हैं कि महारानी कैकेयी को दिये उनके वचन का पालन करके उनके आदर्श आज्ञाकारी बेटे ने उनके मान को अधिक बढ़ा दिया। ऐसे अनेक आज्ञाकारी बेटे हो चुके हैं, जिन्होंने अपने पिता की आज्ञा मान अच्छा-बुरा सब किया और अपने ‘पुत्र होने’ का गौरव पाया, लेकिन मेरी सलाह है कि प्रत्येक पुत्र को अपने माता-पिता की अनुचित आज्ञा अथवा इच्छा का पालन करने से विनम्रतापूर्वक विरोध करना चाहिए। यदि हिरण्यकशिपु सचमुच वैसा पिता था कि मात्र विष्णुभक्ति के कारण अपने प्यारे बेटे के प्राणों का यूँ ग्राहक बन जाए तो उसके साथ जो हुआ, सो ठीक हुआ। अपने भाइयों के हत्यारे और सगे बाप को जेल में डाल देने वाले औरंगजेब जैसे पुत्र की कामना भला कौन करेगा? कौन ऐसा पुत्र होगा, जो शुनःशेष की यंत्रणा से गुजरना चाहेगा, पर वह पिता द्वारा बेचे जाने और यज्ञपशु बनाये जाने की कथा में मृत्यु-मुंचित रूप में आज भी अमर है। यदि परशुराम अपने पिता की कठोर आज्ञा का पालन न करके अपनी माँ की रक्षा में तत्पर हो जाते तो कदाचित् और अधिक पूज्य तथा आदरणीय हो जाते। शायद तब न इतने परुष और क्रूरकर्मा होते, न परशुधर होते। ऐसा भयानक आदेश देने वाले तेजस्वी पिता के साथ क्या किया सहस्रार्जुन के बेटों ने? वे इतने अधिक पितृभक्त थे कि पिता की आज्ञा मान माता के कण्ठ पर कुठार फेर दिया और इतने विवेकवान कि पिता के हत्यारों से प्रतिशोध लेने हेतु पृथ्वी को क्षत्रियविहीन कर डालने की विक्षिप्त और असफल प्रतिज्ञा कर डाली। बर्बाद हो जाता सलीम भले अनारकली को पाकर और उसी का बाप शाहंशाह अकबर उसे तोप से उड़वा भी देता तो क्या होता? एक प्रेमी के रूप में उसका नाम अमर हो जाता। यह कम गौरव की बात न थी। जिस रानी तिष्यरक्षिता ने पवित्रहृदय पुत्रवत् कुमार कुणाल को अन्धा बना दिया, उसके पशुत्व को सजा मिलनी चाहिए थी एक सम्राट पिता की न्याय-पीठ से। महाराज उत्तानपाद को कौन जानता है, पर बेटा ध्रुव तो अमर और अटल-अविचल ही है, रहेगा सर्वदा त्रिकाल अमर अपनी महान भक्ति के कारण। नचिकेता ने अपने पिता की आज्ञा मानकर उनका कल्याण ही किया, ऐसे लोभी ऋषियो, पुरोहितों, ऋत्विजों, ब्राह्मणों को दान का धर्म और मर्म समझा दिया। श्रवणकुमार अपने आप में माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा में प्राण अर्पण कर देने वाले ऐसे सत्पुत्र का मुहावरा बन गया है, जो भारतीय जन-मानस में माता-पिता का सबसे बड़ा भक्त और आदरणीय भी है।अब ऐसे भी कलिकाल-कपूतों के बारे में सोचिए, जो सांस्कृतिक समारोहों में दर्प-दृप्य भाव से “पुत्रोऽहं पृथिव्याः” का उद्घोष करके गौरवान्वित हो लेते हैं और भ्रष्टाचार के पुरीष-प्रवाह से “नमामि गंगे” को नंगा कर देते हैं, लोक-मंच पर स्वयं को “भारत माँ का बेटा” कहकर दहाड़ते हैं और अपने दुष्कर्मों से इस माँ की आबरू को रौंदते हैं। यही बेटे इस भारत माता की बोटी-बोटी नीलाम करने पर उतारू हैं। ये सब भी अपने जैविक माता-पिता की ही सन्तान हैं। ईश्वर ही जाने कि इन सर्वग्रासी कपूतों को जन्म देकर इनके माँ-बाप ने कितना पुण्य-संचय किया है। शायद इनकी शानो-शौकत और देश की अन्धी लूप पर उन्हें भी गर्व होता हो। नहीं सुन पाते होंगे वे भी करुण-कातर पुकार आम जनता की। जो आये दिन भारत की बेटियों पर तरह-तरह के अत्याचार करते हैं, मजलूम स्त्रियों को विधवा और मासूम बच्चों को अनाथ बनाने पर तुले हुए हैं, जो विरोधी स्वर को कुचलने के लिए हिटलरी बूटों का इस्तेमाल करते हुए लाचार-बीमार बुजुर्गों को भी काल-कोठरी में क़ैद करके बिना अदालती सुनवाई के मार डालते हैं, जो किसी को घृणा से मार देते हैं, किसी को भूख से, किसी को बीमारी से तो किसी को प्रायोजित दंगे अथवा माॅब लिञ्चिंग से ‘ठिकाने’ लगा देने के अभ्यस्त हैं। वे सब इसी देश के बेटे हैं, हमारे भाई हैं, पूरे कसाई हैं।। इसे भारत के भाग्य की विडम्बना समझा जाय या कुछ और, शायद ठीक-ठीक कोई नहीं बता सकता।

माता-पिता इस जीव्यमान् जगत् के जाग्रत देवता हैं। “माँ के पैरों में जन्नत है”,”जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”, “पिता का स्थान आकाश से भी अधिक ऊँचा है”, आदि अनेक सूक्तियाँ लोगों को बचपन से कण्ठस्थ तो हैं, पर कितने लोग जीवन भर यह महसूस कर पाते हैं?ै वास्तव में वे माता-पिता बड़े अभागे हैं, जिनके खून-पसीने से पोसे हुए समर्थ बच्चे, जो उनकी ही वजह से खड़े होते हैं, पद-गौरव, यश-वैभव पाते हैं और उन्हें उनके कठिन दिनों में किसी पुरानी डायरी के पन्ने पर लिखे सुभाषित की तरह भूल जाते हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि बचपन, जवानी और बुढ़ापा पकती उमर की तीन सीढ़ियाँ हैं, जिनसे सबको गुज़र जाना है, यह हक़ीकत का फसाना है–समझिए कुटिल काल का फेरा है, ना तेरा है ना मेरा है, बेगानों की बस्ती में मुहब्बत का डेरा है। कुछ ऐसे पाकदिल बच्चे, जो अपने बुजुर्गों, बाप-दादाओं के त्याग और बलिदान का मूल्य समझते हैं, वे केवल उन पर झूठ-मूठ का गर्व नहीं करते, बल्कि वे भी वैसा ही नेकदिल, सुयोग्य, सफल ‘मनुष्य’ बनने का प्रयास करते हैं, पर जो अपनी संकुचित-संकीर्ण दुनिया के पंक-जाल में उलझकर रह जाते हैं, उनकी दृष्टि दिगन्ध हो जाती है, बुद्धि कोई निर्णय नहीं ले पाती अथवा भटकाव की ओर ले जाती है। कोई नशीली चकाचौंध उन्हें मनुष्यता के देश से दूर हाँक ले जाती है। वे न तो अच्छे पारिवारिक सदस्य की भूमिका निभा पाते हैं, न एक जिम्मेदार मुखिया की, न आदर्श प्रेरणा-पुरुष की और न ही एक सभ्य नागरिक या नेकदिल इंसान की। “चीफ की दावत” का किरदार पदलोलुप बेटा हो या “बूढ़ी काकी” की दुर्दशा के जिम्मेदार लोग, सबने इस जगत् को जीवित नरक बनाकर छोड़ दिया है। अनन्त भोग-विलास में डूबी दुनिया यदि आज जीने लायक नहीं रह गयी है तो उसका कारण यही है कि नयी पीढ़ी एकदम आलसी, अकर्मण्य, दुष्ट और और दिशाहीन हो रही है। पुरानी पीढ़ी की गलती यह है कि दूसरों को भोग-विलास की ओर बढ़ते देख उनके दिल में भी भी वैसा ही कुछ बनने की चाहत पैदा हो गयी और इसमें असमर्थ होते हुए भी अपने बच्चों को भेड़ की तरह उसी ओर हाँक दिया। उन्होंने कारू का खज़ाना हासिल करने को तरक्की का पैमाना मान लिया। फिर तो बच्चों के मन में ऐसी इन्द्रधनुषी लालसा और महत्वाकांक्षा पैदा हो गयी किे दिन-रात परिश्रम करते वे ऐसे चकनाचूर हो गये कि उनके भीतर से सम्बन्धों की सांस्कृतिक रसात्मकता और मूल्यवत्ता, ढेर सारा आदर भाव रिसकर बह गया। धैर्य पिघल गया, साहस ने घुटने टेक दिये, सपनों की लता मुरझाने लगी, वे झूठ बोलने पर मजबूर हो गये। कुछ अलग वातावरण मिला तो कभी झूठे-सच्चे अधपके सपने देख लिए, किसिम-किसिम के दोस्त, साथी-संगी, हुड़दंगी, कुछ आवारा रंगीनियाँ, बेमतलब के सैर-सपाटे ने मन-मिजाज बदल दिया। पहले वक़्त ने उनके साथ कुछ दग़ा किया, फिर उन्होंने वक़्त को भुलावे में रखा। माँ-बाप से झूठ बोलने में कोई परहेज नहीं किया। “कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूल ही कोई बेवफा नहीं होता”। बच्चों को अधिक तनाव नहीं देना चाहिए, कितने माँ-बाप सोच पाते हैं। वे भी अपनी आदत से मजबूर होते हैं। न चाहते हुए भी दोनों एक दूसरे को तनाव देते रहते हैं। कुछ उनकी नाकामयाबियों ने गला घोंट दिया, कुछ सरकार में बैठे लोगों की अराजक कसाई नीतियों ने। इधर माँ-बाप की अपेक्षाएँं, हिदायतें और क्लेश के साथ दी गयी सुविधा-सहूलियत, दोनों तरफ तनाव ही तनाव। प्राणों की पुतली में जिसे सहेजकर रखा, उसे दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मानो मुसीबतों के घने जंगल में छोड़ दिया। बदलती सदी ने इस देश और दुनिया को बहुत कुछ दिया है, पर अन्धविश्वास, पाखण्ड, रूढिरंजन, अनिश्चय, अँधेरा भी खूब बढ़ाया है दुर्जय प्रेतों ने। ऊँची से ऊँची डिग्रियाँ धारण करने वाले नौजवान एक चपरासी बनने को लालायित लम्बी लाइन में में लगा हुआ है। हमारे देश का सर्वोच्च पद झूठ-फरेब के जादू परोस रहा है, वह अपने पीछे पूरे देश को भेड़ की तरह चलते देखना चाहता है, जिसकी आँखों में अपना कोई ख्वाब शेष न हो। सब कुछ के बावजूद इस नयी उमर की नयी फसल को सोचना होगा कि आखिर उसका भला किसमें है। उसे अपनी भाषा, संस्कृति का तिरस्कार करके अन्धी भूलभुलैया में सरपट भागने की जरूरत नहीं। ‘आपदा में अवसर’ की तलाशने की प्रेरणा देने वाली काली ज़बान ने जो रास्ता सुझाया, वह उसके पूरे वजूद को गुलाम बनाने का है। उसे अपने ढंग से अपने लिए, घर-परिवार तथा समाज-देश के लिए कुछ सोचना होगा। सम्मान करना होगा प्रत्येक रिश्ते का, माता-पिता, अपने पुरखों का, नदियों-पहाड़ों का, जल-जंगल-ज़मीन का, धरती का, सम्पूर्ण सृष्टि और सृष्टि का पोषण करने वाले सूर्य-चन्द्रादि सभी ग्रह-नक्षत्र पर्यन्त अनन्त अन्तरिक्ष का भी। फिर से से नयी शुरुआत करनी होगी। लाट साहब के ठाट का सपना धरा रह जायेगा बहुतों का। खेलते रहिए “कौन बनेगा करोड़पति” का जुआ। लाॅक डाउन लागू करते-करते शराब का धन्धा चल निकला और बैलों की तरह सांसद-विधायक खरीद नयीं सरकारें बन गयीं इस देश में। लोगों की ज़िन्दगी ऐसा बोझ बन गयी कि उसे सम्मान की मौत भी नसीब नहीं, कौए और कुत्तों का भोज बनीं लाशें, अभागे मानव की। हजारों किलोमीटर पैदल चलती भूखी-प्यासी बेसहारा अनाथ जनता, आन्दोलन करते किसान, रोजगार माँगने वाले लाठियाँ खाते नौजवान, बेआब होतीं बेआब महिलाएँ और सब कुछ बेचते देश-प्रधान, अपना भारत देश महान, यही बदहाल सिसकता तुम्हारा वर्तमान और यही काला भविष्य, जिसमें सर्वस्व हविष्य। सावधान हो जाओ अब तो नादान बच्चे!

लालच की लपलपाती जिह्वा ने, अज्ञानता और जड़ता ने, काम-कुत्सित संकीर्णता ने कुछ इस तरह वैचारिकता को जकड़ लिया है कि आज का मनुष्य निहायत खोखला संवेदनशून्य और अमानवीय बनकर रह गया है। परिणामस्वरूप नयी पीढ़ी में ऐसे लोगों का सफर उल्टी दिशा में चलने लगा है। भटके हुए नौजवान संस्कारच्युत हो अपने परिवार, समाज और देश के लिए अभिशाप बन सबको सिर्फ पीड़ा ही पहुँचाते हैं। ऊँचे से ऊँचे ओहदों पर विराजमान कितने लोगों ने माँ-बाप को भूल जाने में अपनी भलाई समझी और दूसरे भाइयों ने भी उन्हें अन्धी काल-कोठरी जैसे अकेला छोड़ दिया है, जिसकी जड़ों से उनकी परवरिश हुई है, जिसकी नसों से उनकी धमनियों में लहू उछाल मारता है, जिनकी साँसें और धड़कनें उनकी आरज़ू, चाहत, पोषण और कठोर त्याग-तप की कर्जदार हैं–अपनी उस उर्वर सर्वंसहा धरती-सी माँ की कोख की, उसे नज़रअंदाज़ करक अथवा एकदम अपनी ज़िन्दगी से खारिज़ करके यह यह नयी पीढ़ी चाहे जितनी ऊँची उड़ान भर ले, जीवन की सार्थकता, सुयश और पुण्य के वैभव से वंचित ही रहेगी। यह नयी पीढ़ी यह कभी न भूले कि बिना किसी ज़मीन के, ऊँची उड़ान का कोई मतलब नहीं हैं। माता-पिता, घर-परिवार जीवन-समुद्र में सुरक्षा प्रदान करने वाले जहाज की तरह होते हैं। कवि सूरदास ने भले ही अपने आराध्य के प्रति समर्पण भाव से यह लिखा हो, पर उसका संदर्भ बहुत व्यापक है –

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै।


लेखक परिचय 


  • डाॅ. अमलदार ‘नीहार’
    amaldar neehar
    डाॅ. अमलदार ‘नीहार’

    अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
    श्री मुरली मनोहर टाउन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलिया (उ.प्र.) – 277001 

  • उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और संस्कृत संस्थानम् उत्तर प्रदेश (उत्तर प्रदेश सरकार) द्वारा अपनी साहित्य कृति ‘रघुवंश-प्रकाश’ के लिए 2015 में ‘सुब्रह्मण्य भारती’ तथा 2016 में ‘विविध’ पुरस्कार से सम्मानित, इसके अलावा अनेक साहित्यिक संस्थानों से बराबर सम्मानित।
  • अद्यावधि साहित्य की अनेक विधाओं-(गद्य तथा पद्य-कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध, ललित निबन्ध, यात्रा-संस्मरण, जीवनी, आत्मकथात्मक संस्मरण, शोधलेख, डायरी, सुभाषित, दोहा, कवित्त, गीत-ग़ज़ल तथा विभिन्न प्रकार की कविताएँ, संस्कृत से हिन्दी में काव्यनिबद्ध भावानुवाद), संपादन तथा भाष्य आदि में सृजनरत और विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित।
  • अद्यतन कुल 13 पुस्तकें प्रकाशित, ४ पुस्तकें प्रकाशनाधीन और लगभग डेढ़ दर्जन अन्य अप्रकाशित मौलिक पुस्तकों के प्रतिष्ठित रचनाकार : कवि तथा लेखक।

सम्प्रति :
अध्यक्ष, हिंदी विभाग
श्री मुरली मनोहर टाउन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलिया (उ.प्र.) – 277001 

मूल निवास :
ग्राम-जनापुर पनियरियाँ, जौनपुर

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