गत दिनों हिंदी साहित्य भारती द्वारा ‘राष्ट्र का वंदन वर्तमान का अभिनंदन’ कार्यक्रम के अंतर्गत मुंबई में हिंदी के आराधक डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आयोजित तरंग गोष्ठी सम्पन्न हुई।कार्यक्रम के आरंभ में हिंदी साहित्य भारती का कुल गीत प्रस्तुत किया गया। नेपाल के काठमांडू विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग की अध्यक्ष डाॅ.श्वेता दीप्ति ने उपस्थित अतिथियों का परिचय दिया और डाॅ.उपाध्याय को एक सुचिंतित आलोचक, कुशल प्राध्यापक, विदेश एवं प्रतिरक्षा मामलों का गहन जानकार बतलाया।
सर्वप्रथम परिचर्चा में अपना वक्तव्य देते हुए शिवाजी महाविद्यालय, नयी दिल्ली के प्राध्यापक डाॅ.दर्शन पाण्डेय ने डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय के तीन आयामों – पारिवारिक पृष्ठभूमि, व्यक्तित्व के बहुविध संदर्भ और आलोचकीय व्यक्तित्त्व पर प्रकाश डाला। इन्होंने डाॅ.उपाध्याय के भाषिक चिंतन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि डाॅ.उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी का विश्व संदर्भ’ में हिंदी को विश्व में सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाली भाषा सिद्ध किया है और बड़े ही तथ्यपरक आंकड़े दिए हैं। आपने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी नामक अध्याय में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए दस वैधानिक सूत्र दिए हैं और कहा है कि इस समय विश्व का हर छठा व्यक्ति हिंदी बोलता है। यदि हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ में आधिकारिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठा सहित आसीन नहीं है तो यह विश्व के हर छठे व्यक्ति के मानवाधिकार का उल्लंघन है। आपका लेखन न केवल हिंदी की शक्ति और संभावनाओं का निदर्शन करता है, अपितु वह हिंदी को सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के तरीके भी समझाता है। इसके साथ ही आप हिंदी के संयुक्त परिवार की रक्षा के लिए भी कृतसंकल्प हैं। आपका स्पष्ट मानना है कि बोलियों का संरक्षण व संवर्धन होना चाहिए लेकिन हिंदी की कीमत पर नहीं। आप बोलियों के लिए अलग से अकादमी बनाने का सुझाव देते हैं और लिखते हैं कि बोलियां भी हिंदी के संयुक्त परिवार में ही सुरक्षित हैं। हिंदी ही उन्हें अंग्रेजी और मंदारिन के आक्रमण से बचा सकती है।
इसके बाद मुख्य वक्ता और हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय के संस्कृत व हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाॅ.आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने डाॅ.उपाध्याय को 21 वीं सदी का आचार्य रामचंद्र शुक्ल बतलाया। आपने इनकी पुस्तकों मध्यकालीन कविता का पुनर्पाठ, साहित्य और संस्पाकृति के सरोकार, पाश्चात्य काव्यचिंतन: आभिजात्यवाद से उत्तर आधुनिकतावाद तक तथा आधुनिक कविता का पुनर्पाठ से उद्धरण देते हुए कहा कि डाॅ.उपाध्याय ऐसे आलोचक हैं जो शुक्ल जी और द्विवेदी जी को उद्धृत करने के बावजूद आवश्यकतानुसार दोनों की मान्यताओं से टकराते हैं और उसमें बहुत कुछ नया जोड़ते हैं। आज हमारी बात लोगों को आश्चर्यचकित कर सकती है, लेकिन मैं इनकी आगामी आलोचना कृतियों को देखते हुए मैं अपनी बात गहन चिंतन और विश्लेषण के बाद कह रहा हूँ। डाॅ.त्रिपाठी ने उपाध्याय को बहुश्रुत और बहुपठित आलोचक बताते हुए कहा कि इनके अध्ययन और लेखन का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। इसमें दर्शन, समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र, अंतरराष्ट्रीय मामले, भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य शास्त्र और ज्ञान- विज्ञान के तमाम क्षेत्रों का समावेश है। आप गोरखनाथ से लेकर संपूर्ण मध्यकालीन कविता का नया पाठ तैयार करते हैं। इसी तरह आधुनिक काव्य और समकालीन कविता का भी नए प्रतिमानों के आलोक में निर्वचन करते हैं। इन्होंने जिस गहराई और गंभीरता के साथ पाश्चात्य काव्यचिंतन के लगभग सभी आंदोलनों का विश्लेषण किया है, वह हिंदी काव्यालोचन के क्षेत्र की अप्रतिम उपलब्धि है। इनके प्रिय कवि जायसी, तुलसी और जयशंकर प्रसाद हैं और इनके विवेचन में उपाध्याय जी अद्भुत मौलिकता का परिचय देते हैं। इन्होंने कथासाहित्य के विश्लेषण में भी पाठ- केंद्रित आलोचना पद्धति का परिचय देते हुए नूतन स्थापनाएं प्रस्तुत की हैं। एक व्याख्यान में इनके आलोचनात्मक लेखन का मूल्यांकन संभव नहीं है। इनसे हिंदी जगत को बहुत उम्मीदें हैं।
इसी क्रम में चंडीगढ़ से जुड़े तीसरे वक्ता डाॅ.अरविंद द्विवेदी ने कहा कि प्रोफेसर उपाध्याय अज्ञेय के बाद पहले बड़े अंतःअंनुशासनिक साहित्यिक हैं, जिनकी साहित्य, संस्कृति, दर्शन, इतिहास, धर्म, पुराण, ज्ञान-विज्ञान, प्रतिरक्षा, भारतीय और पाश्चात्य आलोचना समेत समकालीन विमर्शों तक समान गति है। आप रक्षा व विदेश मामलों पर जिस अधिकार के साथ लिखते हैं तथा विविध चैनलों पर बोलते हैं वह हतप्रभ करना वाला है। आप पर मां भारती की अद्भुत कृपा है। इन पर मैंने लिखा भी है और वर्तमान दौर की सबसे बड़ी लेखिका चित्रामुद्गल ने इनके संबंध में ठीक ही कहा है कि करुणाशंकर उपाध्याय आज के सबसे बड़े आलोचक हैं। आप अपने व्यापक दृष्टिकोण और गहन अध्ययन के कारण आलोचकों के प्रतिमान बन गए हैं। इनकी मनस्थिति, तेजस्विता और विविध क्षेत्रों की गहरी पकड़ आश्वस्ति प्रदान करती है। मैं कामना करता हूं कि डाॅ.उपाध्याय समस्त आलोचना दृष्टियों के समन्वय एवं भारत-बोध तथा विश्व मानवतावादी दृष्टि से हिंदी साहित्य के वैश्विक इतिहास का लेखन करें; उसका नया पाठ तैयार करें। यह बात मैं इनकी ऊर्जा और क्षमता को देखकर कह रहा हूं। इसमें कोई प्रशंसा का भाव नहीं है। डाॅ.उपाध्याय ने अपने मंतव्य में हिंदी आलोचना की गुटबाजी पर प्रहार करते हुए कहा कि एक विशिष्ट विचारधारा के लोगों द्वारा हिंदी के और भारतीयता के गौरव बोध को उपेक्षित रखने का सोचा-समझा षडयंत्र किया गया है। यह बहुत बड़ी विसंगति है कि उच्चकोटि की रचनाएं वैश्विक विमर्श से बाहर हैं और ‘द गाॅड ऑफ इस्माल थिंग्स’ जैसी सामान्य रचनाएं विश्वस्तरीय विमर्श के केंद्र में आती हैं। हमें इस मिथक को तोड़कर हर रचना को उसकी शक्ति के अनुसार न्याय दिलाना होगा।हमारे समक्ष हिंदी आलोचना को विश्वस्तरीय विमर्श का हिस्सा बनाने की चुनौती है जिसे स्वीकार करके ही हम आलोचना क्षेत्र में गतिशील हुए हैं।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में हिंदी साहित्य भारती के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व शिक्षा व कृषि मंत्री डाॅ.रवीन्द्र शुक्ल ने कहा,
“हिंदी साहित्य भारती इस समय विश्व की सबसे बड़ी साहित्यिक संस्था बन चुकी है और बुंदेलखंड की शब्दावली में कहें तो जो पान का बीड़ा चबाने वाला योद्धा होता है वही सेनापति बनता है। डाॅ.उपाध्याय हिंदी आलोचना के ऐसे ही सेनापति हैं जिनसे आलोचना के क्षेत्र में व्याप्त अंधकार को मिटाने की अपेक्षा है। आप शतायु हों, स्वस्थ और सक्रिय रहकर अपने नीर-क्षीर विवेक से हिंदी साहित्य के साथ न्याय करें, ईश्वर से यही प्रार्थना है। आने वाला इतिहास आपके नाम से जाना जाए, प्रभु से यही प्रार्थना है।”
राजस्थान से विदुषी साहित्यिक डाॅ.प्रियंका कौशिक ने कार्यक्रम का सुन्दर संचालन करते हुए अंत में आभार प्रकट किया।