महेश विश्वकर्मा की पाँच कविताएँ

महेश विश्वकर्मा
  • चुनाव

इस चुनावी
मौसम में
स्वार्थ साधने
सारी पार्टियां
युद्ध स्तर पर
शब्दों के
बाण चलाएंगी
आरोप प्रत्यारोप के स्ट्राइक में
अभद्रता के बम गिरेंगे
कुतर्क के गोले दगेंगे
शालीनता की हदें
लांघी जाएंगी
चौकीदार और जयचंद भी
शामिल किए जाएंगे
चुनावी शब्दकोश में
आश्वासन व लोभ के
फर्स्ट एड से
आहतों के ज़ख्म
भरे जाएंगे
पीड़ितों पर
सहानुभूति का
मरहम लगाया जाएगा
हलाल करने से पहले
सहलाया जाएगा
किला फतह कर
विजय ध्वज
फहराया जाएगा
और फिर
अगले युद्ध तक
हथियार बटोरे जाएंगे
शब्दों की धार
पैनी की जाएगी
ताकी फिर
रेता जा सके गला
लोकतंत्र का।

  • कब तक…

देश की आवाम को,
कितना मूर्ख बनाओगे?
शहीदों के ख़ून से सनी रोटियां
कब तक खाओगे!
राजनीतिक स्वार्थ के लिए
कब तक देश की बलि चढ़ाओगे
कुछ तो शर्म करो,बेशर्मों!
भविष्य को कैसे मुंह दिखलाओगे!

नाज़ है बच्चे बच्चे को,
आज अपनी सेना पर,
हिम्मत है तो गुजारों इक रात
बिना सुरक्षा सीमा पर।
जब चलेंगी दनादन गोलियां,
नहीं निकलेंगी मुंह से बोलियां।
एयर कंडीशन कमरों से
करते हो बकवास,
सीमा छोड़ भागोगे बदहवास।

वीरों की शहादत से,
वीरों की देशभक्ति से,
उनकी वतनपरस्ती से,
क्यों कर रहे हो खिलवाड़।
अगर, खेलना ही है तुम्हें तो
खेलों अपनी मौकापरस्ती से।

चंद दहशदगर्द,
भेज रहे हैं वीरों के ताबूत,
और तुम,मांग रहे हो
उनकी वीरता के सबूत।
सबूत मांग, तुमने किया हैअपमान
देश की कर दी है मिट्टी पलीद।
भविष्य मांगेगा इसका जवाब,
किस मुंह से तब दोगे हिसाब।

क्या कभी तुमने अपने पिता से,
तुम्हारे पिता होने का सबूत मांगा है,
अपनी पत्नी से तुम्हारे ही बच्चे की मां
होने का सबूत मांगा है,
यदि मांगा है, तो भी तुम्हें…
देश के गौरव और वीरों के शौर्य पर
सवालिया निशान लगाने का हक़ नहीं,
तुम्हें यह समझना होगा,
तुम देश से हो, देश तुमसे नहीं।

(इस कविता का संबंध किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति विशेष से कोई संबंध नहीं है।)

कांस्टेबल सलीम शाह
प्रतीकात्मक चित्र
  • मैं जानता हूं…

जानता हूं,
तुम रीढ़ हो,
परिवार की।
पी लेती हो विष,
नीलकंठ की तरह।
आंसुओं को सोख लेती हो,
रेत की तरह।
दायिनी हो जीवन की,
वायु की तरह।
सींचती हो हमें,
वर्षा की हर बूंद की तरह।
जीवन की धारा में,
तुम हो नाव की तरह।
संकटों की धूप में,
तुम हो छांव की तरह।
इमारत की भव्यता में,
तुम हो नींव की तरह।
खुशियों की सौगात हो,
तम में प्रकाश की तरह।
तुम हममें हो,
आत्मा की तरह।
मैं जानता हूं।

  • सफेद कौआ

आदरणीय
परम सनेही
कोमलहृदयी
श्रीमान कौए जी,

त्रेता युग में
शूर्पणखा ने नाक कटाई
राम ने अपनी लाज बचाई
कलयुग में
शूर्पणखा फिर
लुटा रही अपनी लाज
और
राम भी कटा रहे अपनी नाक।

कहते हैं
हनुमान ने जलाई लंका
दरअसल वह तो
रावण के सीता-प्रेम का फल था।
मर्यादा की खातिर
सीता ने दी अग्नि परीक्षा
और समा गईं
धरती की कोख में।
आपको भी देनी पड़ सकती है
अग्नि परीक्षा,
पर प्रश्न है
आप समाएँगे कहाँ ?

लोग कहते हैं
कुछ हद तक
रामायण और महाभारत
देन हैं स्त्रियों की भी
लंका तो आपकी लुट ही रही है
जिंदगी कुरुक्षेत्र बनने में
पल भर की देर है।
जिंदगी को न बनाइए रेगिस्तान
मन में न रखिए कोई तृष्णा।

तो श्रीमान कौए जी
रंग के समान मन भी हो
यह तो जरूरी नहीं।
कपड़े के दाग धुल जाएँगे
किन्तु
चरित्र के दाग कैसे धोएँगे श्रीमान ?

कौन है राम
कौन है सीता
कौन है रावण
कौन है शूर्पणखा
लंका बचानी है या जलानी।
आप ही तय कीजिए जनाब।

  • कविता होती है…

कविता होती है..
जीवन की अभिव्यक्ति,
प्रेम की अनुभूति,
निष्ठुरता की प्रतीक,
कोमलता का संगीत।

कविता होती है…
भावों का उद्दीपन,
अभावों का विज्ञापन,
सुखों की माला,
वेदना की मधुशाला।

कविता होती है..
खुशियों की बहार,
दुखों का प्रहार,
छंदों की प्रस्तुति,
संवेदना की उत्पत्ति।

कविता होती है..
आपसी मिलवर्तन में,
निष्ठुर परिवर्तन में,
जीवन के आलोक में,
मृत्यु के आगोश में।

कविता होती है…
अलौकिक भक्ति में
मानवता की शक्ति में,
प्रेरणा के संचार में,
प्रयास के विचार में।

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