एक प्रेम कविता – हूबनाथ पाण्डेय

एक प्रेम कविता

शादी में लिया कर्ज़ चुकाने
फागुन में शहर आया
लाॅक डाउन की माया
मिलते ही
रोज़गार गंवाया
भूख से बचने
बैग उठाया और चल दिया
पंद्रह सौ किलोमीटर पैदल
कभी किसी ट्रक के पीछे
कभी टैंपो के ऊपर
कभी किसी पेड़ के नीचे
तो कभी ढाबे के पीछे
मां को मिलती रही ख़बर
पल पल की
समझदार बहू से
आख़िरी फ़ोन किसी
नेशनल हाइवे से आया था
जिसके बाद
कर्ज़ चुकाए बिना
जान गंवाया था
पता नहीं किस गाड़ी ने
उसे अंधेरे में उड़ा दिया
हालांकि वह उड़कर
पहुंचना चाहता था घर
आख़िरी फ़ोन में उसने
बताया था कि बड़ी ज़ोरों
की लगी है प्यास
बहू और सास ने बेंच दी
पुश्तैनी ज़मीन
चुकाया कर्ज़
और गांव से गुज़रते
हाईवे पर बसाई
झोंपड़ी एक
सूरज से पहले आती हैं
सूरज के बाद जाती हैं
मिट्टी की बड़ी सी नाद में
कुएं का साफ़ ठंडा पानी
और चंगेरी भर गुड़ लिए
आते जाते लोगों से पूछतीं
तुम्हें प्यास तो नहीं लगी है
गांव कहता है कि दोनों
पगला गई हैं
क्योंकि दोनों दिनभर
नहीं पीतीं हैं
पानी का एक घूंट भी
आख़िर आप ही बताओ
ऐसे कोई कब तक जिएगा
गांव को क्या पता
उस दिन नेशनल हाइवे पर
एक नहीं तीन मौतें हुई थीं
जिनमें दो लाशें
अब तक नहीं मिलीं.

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