धर्मक्षेत्रे.. (कविता) – हूबनाथ पाण्डेय

धर्मक्षेत्रे
प्रतीकात्मक चित्र

ज़रा देखो संजय
धर्मक्षेत्र में
हमारी सेनाएँ
क्या कर रही हैं?

क्षमा महाराज!

धर्मक्षेत्र में तो मुझे
सिर्फ़ लाशों के ढेर
नज़र आ रहे हैं

बूढ़ी लाशें बच्ची लाशें
जवान लाशें
बेज़ुबान लाशें

किंंतु इनमें से
एक भी सैनिक नहीं
न ही शस्त्रधारी
न योद्धा

ये तो नितांत निरीह
नगर ग्रामवासी हैं
महाराज!

धर्मक्षेत्र
जैसी कोई जगह नहीं बची
न खेत बचे न खलिहान
न घर न अस्पताल

अभिमन्यु तो नहीं बचा
उत्तरा के गर्भ में
परीक्षित भी
झुलस कर मरा
आर्यश्रेष्ठ!

नदियाँ पटी पड़ी हैं
लहू और मांस के लोथड़ों से
और वह जो टीला है
दरअसल
अस्थियों का ढेर है

गिद्धों और भेड़ियों
के दिन फिर गए हैं

धरती के जिस
टुकड़े की ख़ातिर
सेनाएँ उतरी थीं
धर्मक्षेत्र में

वह तो वहीं पड़ी है
रक्तरंजित

सेनाएँ भी खंदकों
बंकरों में सुरक्षित

किंतु
प्रजा राख होती जा रही है
कुरुश्रेष्ठ!

ऐसा प्रतीत होता है
कि दोनों पक्षों को
मनुष्यहीन भूमि से प्रेम है
मनुष्य से नहीं

प्रभु!
इस युद्धक्षेत्र में
न कहीं धर्म है
न कहीं सत्य

सिर्फ़
और सिर्फ़ अहंकार ही
दोनों तरफ़ है
दृष्टिहीन अहंकार
विवेकशून्य अहंकार
क्रूर और हिंसक अहंकार

और परम दुर्भाग्य यह
कि इस बार
कोई ईश्वर
इस धर्मक्षेत्र में
नहीं उतरा
क्योंक

ईश्वर की हत्या के बाद ही
तो इस तरह का युद्ध
आरंभ हो सकता था


– हूबनाथ पाण्डेय

 

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