भय सच की कब्र खोदता चलता है!

भय

रामजी यादव

आम तौर पर माना जाता है कि झूठ का जन्म भय की कोख से हुआ था और आज जितने भी प्रकार के झूठ हैं सब भयजनित हैं. भय चाहे प्रकृति का हो या सत्ता का, ईश्वर का हो या नौकरशाह का, वह हमेशा सच की कब्र खोदता चलता है . हमारी टीम में भी एक भय काम कर रहा था. काम के छूट जाने का और संभवतः इसीलिए अमूमन लोग प्रोफेशनल एटीट्युड का परिचय देते हुए चुपचाप मनोज मौर्या के पीछे-पीछे चलने को विवश थे.

सुरजीत शर्मा जो कि मनोज की कुछ फिल्मों में सहयोगी रहे हैं और ऑफ़ द रिकार्ड सब कुछ रहे हैं लम्बे समय से एक ब्रेक की तलाश में थे . जब मनोज अनेक जगहों पर अपने को कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों के निर्देशक बताते तो सुरजीत हिकारत से मुस्कराते और सरगोशियों में कहते कि यह आदमीकितना झूठ बोलता है . इसके बावजूद वे कैमरा उठाकर हर जगह जाने को विवश थे और हर जगह से असंतुष्ट होकर लौटते और अपनी प्रतिक्रिया देते . संजय गोहिल इस तथाकथित इक्कीसवीं सदी के भारत की खोज के सिनेमेटोग्राफर थे और उनके पास महंगे कैमरे और लेंस थे लेकिन अभी तक उन्हें शादी-ब्याह अथवा दूसरे छोटे-मोटे काम ही मिलते थे जिससे उन्होंने अपने को आर्थिक स्तर पर आत्मनिर्भर बना लिया था . लेकिन इस ट्रिप से उन्हें एक फीचर फिल्म में ब्रेक मिलने की सम्भावना थी . वे संगीत के रसिक हैं और उन्हें बहुत से गाने और तथ्य याद हैं. लेकिन उनमें एक रूढ़ प्रोफेशनल ढर्रा था और हर हाल में वे अपना काम पूरा करते . जबटीम के दूसरे लोग असंतोष प्रकट करते तो वे उनके प्रति सहृदयता प्रकट करते लेकिन कोई विरोध जताना उनके बूते और चरित्र से बाहर की बात थी . मनोज अपने अनुभवों से इस बात को अच्छी तरह जानते थे और इसका लाभ उठाते हुए वे दावा करते कि अगर कोई न रहेगा तब भी वे अकेले ट्रिप पूरा कर लेंगे . वे अपने को नेपोलियन बोनापार्ट मानते थे . जाहिर है कि मनोज का अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं था और किसी भी बौद्धिक बातसे उनका कोई रिश्ता कभी रहा नहीं और इसी कारण वे यहाँ-वहाँ से सुनी-सुनाई बातों को अक्सर दुहराकर लोगों को अपने बौद्धिक होने का भ्रम दिलाते लेकिन वास्तव में वे यात्रा में आने वाले किसी भी कद्दावर व्यक्तित्व के सामने अपने आपको प्रायः छोटा मानते और अक्सर ही किसी बौद्धिक व्यक्ति से आमना-सामना होने पर बच निकलते . अभी तक की यात्रा में ऐसा अनेक बार हो चुका था.

दिल्ली पहुँचने से पहले हम कोसली (रेवाड़ी) माधवन के घर गए और 10 घंटे की मेहमाननवाजी स्वीकार कर वाया पटौदी गुडगाँव पहुंचे . मनोज के एक सहपाठी रिंकू ने डी एलएफ चार के एलिस गेस्ट हाउस में हमारे रुकने की व्यवस्था कराई . यहीं से दिल्ली में लोगों से मिलना-जुलना था . थोड़ी ही देर में मनोज के एक और सहपाठी अभिषेक आनंद आ गए जो दिल्ली के घिटोरिनी स्थित सशत्र सीमा बल स्टेशन में सेकेण्ड कमान्डेंट के रूप में तैनात हैं . कुछ समय पहले मैंने कर्ण सिंह चौहान को सूचित कर दिया था इसलिए वे भी आ गए . कर्ण सिंह चाहते थे कि हम डिनर उनके साथ करें लेकिन अभिषेक आनंद ने पहले से फिक्स कर लिया था . लिहाज़ा टीम घिटोरिनी पहुंची.

एक हाल में सशस्त्र सेना के तक़रीबन पचीस सिपाही बैठे थे . सामने चार कुर्सियां थी जिनपर अभिषेक आनंद और लेफ्टिनेंट कर्नल नेहरा बैठ गए और मनोज अपने ढर्रे के हिसाब से माइक लेकर खड़े हो गए . उन्होंने एक टी वी एंकर के रूप में हवा बांधनी शुरू की और अपनी चिर-परिचित अधकचरी हिंगलिश में सिपाहियों से बात शुरू की . प्रश्न तय थे लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों से वही बात पूछना लगभग वैसा ही था जैसे पांचवीं कक्षा के किसी विद्यार्थी से यह पूछना कि अगर तुम प्रधानमंत्री होते तो क्या करते ? एंकर ने सवाल दागा – आप लोगों को फ़िल्में अच्छी लगती हैं . सभी सिपाहियों ने हाथ उठाया – जी सर.

अच्छा आप बताइए कैसी फ़िल्में देखना पसंद करते हैं ? उन्होंने तीसरी पंक्ति के एक सिपाही को इंगित किया .

जी सर देशभक्ति की . जैसे एल ओ सी कारगिल . बोर्डर वगैरह .

वेरी गुड ! मनोज ने उसका उत्साह बढ़ाते हुए उसके बाजू में बैठे सिपाही से पूछा – सर आप फिल्म देखते हैं ?

जी सर ! सिपाही ने अपनी लम्बी नाक को छूते हुए कहा जो उस समय इतनी लाल थी कि निकट भूतकाल में उसको जुकाम होने की तस्दीक करती थी . उसने बताया कि वह धार्मिक फ़िल्में देखता है . और इसी प्रकार सारे के सारे सिपाही धार्मिक और देशभक्ति की फिल्मों के प्रति अपनी रूचि बताते रहे . केवल एक सिपाही ने कहा – तारक मेहता का उल्टा चश्मा !

मनोज ने बात आगे बढ़ाते हुए पूछा – फिल्मों में क्या अच्छा नहीं लगता? सिपाहियों ने पूरी समझदारी से जवाब दिया – जब कोई सीन ऐसा आता है जिसे हम परिवार के साथ नहीं देख सकते.

वेरीट्रू ! मनोज ने अपना तकिया कलाम दुहराया और नया सवाल दागने लगे . वे ऐसे सवाल करते मानो तोप चला रहे हों लेकिन सिपाही इतने असमंजस में थे कि हर सवाल को तोपुल्ली कर देते . मनोज गणित के मास्टर की तरह उन्हें प्रोत्साहित करते लेकिन बात कुछ जम नहीं रही थी. अभिषेक किसी को फोन मिला कर वाघा सीमा पर ट्रिप के लिए इंटरएक्शन फिक्स कर रहे थे . अचानक उन्हें लगा कि असली असमंजस उनकी उपस्थिति के कारण है . वे और नेहरा तुरंत पेशाब के बहाने उठे और बाहर निकल गए . एक सिपाही ने कनखी से उन दोनों को जाते हुए देखा और बताया – सर मुझे हास्य वाली फ़िल्में पसंद हैं . उसके बाद तो होड़ लग गई .

लेखक को यह देखकर हैरानी हुई कि अपने भीतर क्रूरता की हद तक देशभक्ति का जज्बा भरे जाने के बावजूद सिपाही अपने अफसरों के सामने एकदम दब्बू और कुंद ज़ेहन बने रहते हैं . उन्हें डिसमिस और दण्डित होने का भीषण भय सताता रहता है . और इस प्रकार वे अपने लिए एक सतत झूठ का ताना-बाना बुनते रहते हैं . आम आदमी से गरजकर बात करने वाले सिपाही अपने अफसरों के सामने न केवल भींगी बिल्ली बने रहते हैं बल्कि गुलाम की तरह उनके परिवार की चाकरी करते रहते हैं . शायद पेट के सभी पहलवान ऐसे ही होने लिए अभिशप्त हैं. लेकिन भारत की जनता पर जुल्म करने के लिए इन गुलामों का सबसे प्राथमिक इस्तेमाल किया जाता है . यह भारत में संस्थागतदमन का एक घिनौना रूप है जिसका एक रूप वहां मौजूद सिपाहियों में दिख रहा था कि वे किस प्रकार अपने मन के भीतर की बातों को मन की कब्र में दबा रहे थे .

प्रायः हर सिपाही बाद में सवालों का जवाब देते हुए देशभक्ति के जज्बे को दर्शाते हुए कह रहा था कि अगर मझे दुनिया बदलने की ताकत मिल जाये तो वह भ्रष्टाचार को जड़ से मिटा देगा . यह रेटोरिक अगले सभी सवालों पर चलता रहा लेकिन स्त्रियों को लेकर सिपाहियों का नजरिया पतनशील सामंती मूल्यों से बना था और वे बलात्कार जैसी घिनौनी घटना का कारण देश और समाज के सांस्कृतिक और राजनीतिक हालात कोनहीं बल्कि स्वयंस्त्रियोंऔर उनके कपडे को मानते हैं . भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर भी वे अपने अफसरों को खुश रखने के लिए रटे-रटाये वाक्य दुहराते रहे.

यहाँ पर क्रॉस-क्वेशन की अपार संभावनाएं थी और इस प्रकार उनके भीतर की सूखती संवेदना को टटोला जा सकता था लेकिन मनोज स्वयं इन जवाबों पर वेरी ट्रूकहकर उनका मनोबल बढ़ा रहे थे तब किसी प्रकार के नए काम की उम्मीद ही क्या थी. लिहाज़ा उन्होंने सभी सिपाहियों को रेतघड़ी प्रदान की और फोटो खिंचवाते हुए बार की राह ली. हम भी पीछे थे .

अभिषेक आनंद के घर डिनर करते हुए लेखक की नज़र चंदेल नामक एक मोटे-ताजे सिपाही पर गई जो फूर्तिमय खाद्य-पदार्थ ले आता और खाली बर्तन उठाकर ले जाता.  लगता उसकी हलक में जबान ही नहीं है. अंततः ऐसे लोगों के बीच से खा पीकर टीम के प्रोफेशनल गुलाम वापस हुए.

 

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