बसंत (कविता) – सुशीला रोहिला

 

बंसत की बहार छाई ,
पत्ता-पत्ता हो गया हरा
उपवन महक उठा
चमन खिल गया सारा

सर्दी की ठिठुरन
कष्टो भरा था दामन
खुले नभ की गहनता
संघर्षों का था साया

उम्मीद की किरण
दिल में जगी फिर होगा
नव उदित जीवन
सहसा बदल गया जीवन

बंसत पंचमी की सीख
पांच विकारो रहित करो मन
सत्य का हो आलिंगन
सद्गुरु कृपा के संग

ज्ञान धारा कंठ बहती
सरस्वती मां कहलाती
हंस को किया धारणा
आत्मा विद्या का पाठ पढाती

सितार वादन अनहद का स्वर
मन का तार आत्मा के संग
झंकार उठे त्रिभुवन
सद्गुरु की लो शरण

जीवात्मा का हो मिलन
सकारात्मक का पुष्प खिले
सद्भावना का हो प्रकाश
नश्वरता में शाश्वत का मेल
जीवन अमरता का बंसत हो जाए।


कवयित्री सुशीला रोहिला
सोनीपत, हरियाणा

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