दिये की देह में
लबालब तेल भरकर
बाती में बड़ी सावधानी से
आग लगाते हुए
पल भर भी
अहसास नहीं होता
उसकी जलन का
हमें तो सिर्फ़ रौशनी चाहिए
बाती राख हो
या दिया झुलसे
क्या फर्क पड़ता है
क्या ऐसा नहीं हो सकता
किसी को भी
जलना न पड़े
झुलसना न पड़े
और रौशन हो जाए
सारी क़ायनात
किसी की रौशनी की राह में
न आने पाए
हमारे अंतर का अंधेरा
और जलना पड़े ही
तो सबसे पहले
हम ख़ुद जलें
अपनी देह को बनाएं दिया
कामना का तेल
वासना की बाती में
आस्था की अग्नि जगाकर
भस्म कर दें तमस
अपने भीतर और
जग के बाहर का
और तब निश्छल हो कहें
निष्काम हो कहें
निर्मल हो कहें
दीपोत्सव की अशेष शुभकामनाएं !
कवि : हूबनाथ पांडेय
सम्प्रति: प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई
संपर्क: 9969016973
ई-मेल: hubnath@gmail.com
संवाद लेखन:
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