बात बहुत पुरानी है, शायद सात-आठ सौ बरस या उससे कुछ पहले की। तब हिमालय और समुद्र से घिरे इस विशाल भूभाग पर छोटी-छोटी बहुत-सी रियासतें ताश के पत्तों की तरह बिखरी हुई थीं, जिनके मालिक रजवाड़े आये दिन परस्पर लड़ा करते, कभी अपनी मूँछों की आन के लिए, कभी किसी रूपसी के नैन-बान के लिए और कभी स्वतन्त्रता के सम्मान के लिए। वे आपस में क्षुद्र स्वार्थवश या फिर बात-बेबात उलझ जाते और अपने बाजुओं की ताकत से लूटी गयी दौलत से मौज-मस्ती करते। आजीविका के लिए श्रम को साधन बनाने वाले साधारण लोग लुटते, उजड़ते, विस्थापित होते और दूसरी जगह जाकर बस जाते।
इसी भूभाग के किसी छोटे-से हिस्से पर नगाड़ानन्द नागरे नाम का एक राजा भी राज्य करता था। वह बहुत ही दूरदर्शी, बुद्धिमान तथा महत्त्वाकांक्षी था। कुशल गुप्तचरों की सहायता से उसे अपने पड़ोसी राजाओं की हर कमजोरी का पता चल जाता और अवसर पड़ने पर वह उसका फायदा उठाने से कभी न चूकता। दोष उसमें यह था कि अपनी महानता के प्रचार में उसका जितना अधिक ध्यान रहता, उससे अधिक दूसरों की काल्पनिक बुराइयों के बखान से पड़ोसी राज्यों में विद्रोह की आग पैदा करने में। वह कपट की कुटिल चिनगारी से कभी-कभी दो राजाओं को आपस में भिड़ाकर उन्हें कमजोर करने की साजिश रचता और इसमें कामयाब भी हो जाता। उसे अपनी अभेद्य कूटनीति का लाभ यह मिला कि कालान्तर में एक-एक कर कई राज्यों पर उसका कब्जा होता चला गया। सबसे अजीब बात यह कि किसी ज्योतिषी के निर्देशानुसार उसने अपने मन्त्रिमण्डल में जिन्हें शामिल किया, उन सबके नाम वाद्य-यन्त्रों तथा संगीत शास्त्र से जुड़े हुए थे, जैसे उसके महामात्य का नाम था – ढिंढोरेलाल ढोलकिया, तो खास सचिव का नाम सारंगीधर बड़बोले और सेनापति था तूर्याचारी शततोपची। इसी प्रकार उसके धर्मगुरु का नाम आचार्य ऋषभ देव था तो उसके दरबार में विहाग तथा मल्हार नाम के दो चारण कवि भी थे। भैरवी नाम की एक वारांगना से राजा के घनिष्ठ सम्बन्ध थे, जिसने राजा के गुप्त प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए ही सात सुन्दर विषकन्याओं को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया था। उस जमाने की प्रसिद्ध नृत्यांगना जयजयवन्ती उसके ही दरबार की रौनक हुआ करती थी। ये सबके सब बड़े ही काबिल और नगाड़ानन्द नागरे के बेहद ईमानदार साथी थे, जो दिन-रात उसकी विस्तारवादी योजनाओं को अमल में लाने का प्रयास करते तथा हँसी-मजाक के फूहड़ चुटकुलों से उसका रसरंजन किया करते। इन सबने मिलकर शस्त्रधारी सेना के अलावा सवा लाख ऐसे अन्धभक्तों की फौज तैयार की जो इशारा पाते ही वेश बदल-बदलकर नगाड़ानन्द के झूठे यश का दूर-दूर तक प्रचार करते और विरोधी राजाओं के अपयश की गढ़ी गयी कहानियाँ जन-जन में संक्रामक बीमारी की तरह फैलाते फिरते। उस नगाड़ानन्द नागरे की अनेक मूर्तियाँ स्थापित की गयीं और उसे भगवान विष्णु का पच्चीसवाँ अवतार भी कहा गया।
राजा नगाड़ानन्द की उम्र ढलते-ढलते उसके राज्य का काफी विस्तार हो चुका था और वह अपने को एक चक्रवर्ती सम्राट के रूप में प्रचारित करने में लगा हुआ था, लेकिन उसके भीतर अनेक कमजोरियाँ थी, जिससे उसकी महानता का जो मिथ्या प्रचार किया गया था, वह कुछ दिनों के बाद कुहासे की तरह धीरे-धीरे छँटने लगा। एक पड़ोसी राजा सिकन्दर खान ने नगाड़ानन्द की सारी कमजोरियों का अध्ययन करने के लिए अपने कई जासूसों को लगा रखा था। उन जासूसों ने अपने राजा को इत्तिला दी कि नगाड़ानन्द तो अव्वल दर्जे का झूठा, मक्कार, पाखण्डी, आत्मश्लाघी तथा अहंकारी व्यक्ति है। उसके राज्य में उसकी गलत नीतियों के कारण निर्धन अत्यधिक निर्धन होते चले जा रहे हैं और सूदखोर महाजन तथा वाणिज्य से जुड़े सेठ-साहूकार दिन-रात फल-फूल रहे हैं, छोटे-बड़े काश्तकार और उनके खेतों में मेहनत-मजदूरी करने वाले निरन्तर सताये जाते हुए आत्महत्या करने पर मजबूर हो गये हैं और राजा अपनी ख्याति के प्रचार में लगा हुआ है। जवानी में उसने मृगों का शिकार चाहे न किया हो, पर प्रौढ़ावस्था में भी मृगनयनी सुन्दरता से घिरा हुआ वह एक अजीब नशे में चूर रहता है। वह पूरी दुनिया घूम लेना चाहता है और जब कभी कोई नया देश घूमकर आता है तो खूब गप्पें हाँकता है, दूसरों का मजाक उड़ाता है। शत्रु राजा के गुप्तचरों ने तीर्थयात्री साधुओं के वेश में उसकी सारी कमजोरियों का पता लगा लिया कि वास्तव में नगाड़ानन्द भीतर से बहुत कायर आदमी है, पर बातें वीर रस में करता है, वह बार-बार प्रजा के सम्मुख भरोसा पैदा करने के लिए झूठे सपने परोसता है, सच्ची सलाह देने वाले राजनीति-पण्डितों तथा धर्माधिकारी विद्वानों का मजाक उड़ाता है। लोग भूख और गरीबी से तंगहाल त्राहि-त्राहि किये जा रहे हैं और मित्र राजाओं के यहाँ वह दावतें उड़ाने में लगा हुआ है। उन गुप्तचरों को इस रहस्य का भी ज्ञान हुआ कि राजा नगाड़ानन्द बुढ़ापे में भी दिन-रात सजने-सँवरने में लगा रहता है, विलासियों की तरह रत्नजटित पोशाकों का उपयोग करता है, उत्तेजक जड़ी-बूटियों के साथ तेज गन्ध का सेवन करता है। वह अपने वैद्यों द्वारा पुटपाक विधि से एक ऐसा शक्तिवर्द्धक अवलेह तैयार करवाता है, जिसमें समुद्री यात्रा करने वाले बेकनाटों द्वारा मँगाये गये कीमती मेवे तथा औषधियों का प्रयोग किया जाता है, इस बात को उसके अन्तरंग ही जानते हैं। औघड़-तान्त्रिक, कनफटे योगी, फकीर तथा साधुवेशधारी बहुत से गुप्तचर उसके पास आते ही रहते, जिनकी नजरों से बचना बहुत कठिन होता है। बाहरी दुनिया के लोग उसे एक त्यागी, विरक्त ब्रह्मचारी तथा लोक-कल्याण हेतु अवतरित विष्णु के अंशावतार के रूप में चारों दिशाओं में खूब प्रचारित करते, जबकि वास्तविकता यह कि उसकी कुल पाँच परित्यक्ता रानियाँ हैं, जिनके साथ उसने शास्त्रीय विधिपूर्वक कभी व्याह रचाया था, पर वे सभी निर्वासन का जीवन जी रही हैं। वह रूप का आखेटक रहा है, पर इस बात को कह पाने में हर कोई डरता है इस राज्य में।
नगाड़ानन्द की आन्तरिक बहुत-सी कमजोरियों का पता लगाने के बाद पड़ोसी राजा कलन्दर खान ने बदला लेने का मन बना लिया। अब वह भी इसकी कमजोरियों का फायदा उठा सकता था, सो उसने राजा नगाड़ानन्द के शत्रु राजाओं से मदद लेकर बहुत से हथियार बनवाये और छापामार युद्ध शुरू कर दिया। अकेला पड़ने के कारण दूसरे कई राज्य नगाड़ानन्द से युद्ध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, किन्तु उसे नीचा जरूर दिखाना चाहते थे, सो सबने राजा कलन्दर खान की भरपूर सहायता की। कलन्दर खान ने अपनी युद्धनीति में कुछ बदलाव किये और छद्मयुद्ध से ही नगाड़ानन्द को मजा चखाने का फैसला लिया, क्योंकि नगाड़ानन्द के सारे सलाहकार इसके लिए कोई बुद्धि-कौशल नहीं रखते थे। राजा कलन्दर खान कम शातिर नहीं था। वह भी पहुँचा हुआ धूर्त और शैतान किस्म का इन्सान था। उसने नगाड़ानन्द के राज्य से भी बड़े-बड़े दो राज्यों के शासकों की मदद से प्राप्त नये किस्म के घातक हथियारों से लैस अपने छापामार सैनिकों तथा लूटमार मचाने वाले डकैतों को भी प्रशिक्षित करने का आदेश दिया और उन्हें अलग-अलग जत्थे के रूप में पड़ोसी राज्य में तहस-नहस के लिए भेजना शुरू कर दिया। उन बड़े राज्यों की निगाह भी नगाड़ानन्द के विशाल राज्य पर गड़ी हुई थी और उन्हें ऐसे बिकाऊ कन्धे की जरूरत थी, जिसका वह सहारा ले सके। अब ऐसे दो बड़े राजाओं की सहायता से आये दिन कलन्दर खान के छापामार सैनिक सीमा पर उत्पात मचाते तो लुटेरे नगाड़ानन्द के राज्य में नगरों-बस्तियों पर रात के अँधेरे में न जाने किधर से अचानक प्रकट हो जाते और मार-काट मचाकर सब कुछ लूट ले जाते। नगाड़ानन्द के बुद्धिमान मन्त्री और सेनापति इस बात से बहुत परेशान थे। कलन्दर खान इतना चतुर था कि बहुत दिनों तक पता ही न चला कि यह उत्पात आखिर कौन मचा रहा है। जब कभी कलन्दर खान के सैनिक या लुटेरे कहीं कोई हिंसक वारदात करते और प्रजा त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगती तो राजा तथा मन्त्री उन्हें ढाँढ़स बँधाते हुए कहते-‘‘फिर कभी शत्रुओं ने ऐसा किया तो उसे करारा जवाब दिया जायेगा, हम उन्हें सबक सिखाकर रहेंगे, हमारे सैनिक उनके घरों में घुसके मारेंगे, हम उनके इस दुष्कर्म की घोर निन्दा करते हैं और उनकी बुद्धि-शुद्धि के लिए महान यज्ञ का आयोजन करेंगे, जिसमें पूरी दुनिया के बड़े-बड़े राजाओं को आमन्त्रित किया जायेगा और पड़ोसी कलन्दर खान की इस नीचता का सबको पता चल जायेगा।’’
कई बरस बीत गये पड़ोसी राजा उत्पात मचाता रहा। राजा नगाड़ानन्द की त्रस्त प्रजा आये दिन लूट-पाट को अपना दुर्भाग्य मानकर सन्तोष कर लेती। बल्कि यूँ कहिए कि प्रजा तो भूसा भरे गात वाले बछड़े को निहार पेन्हाने वाली उस गऊ की तरह थी, जो चुपचाप पुलकित भाव से ग्वाल रूपी राजा के विलास-पोषण के लिए समर्पित थी और नगाड़ानन्द के साथ उसके मन्त्री ढिंढोरेलाल ढोलकिया, सारंगीधर बड़बोले तथा तूर्याचारी शततोपची और मल्हार तथा विहाग पड़ोसी देश को धमकी देते, लेकिन उस पर कोई असर ही न पड़ता। स्थिति यह पैदा हो गयी कि नगाड़ानन्द बार-बार कलन्दर खान के सामने दोस्ती का हाथ फैलाता और वह धूर्तता का व्यवहार करते हुए इधर हाथ मिलाता, उधर हमले और तेज हो जाते। नगाड़ानन्द के होंठों पर स्वागत की मुस्कान देख-देख उसकी प्रजा के भीतर अपमान तथा घृणा की एक आग दहकने लगती, पर वह किसी जननायक के बिना बहुत लाचार लगती थी, जिससे अपने राजा के खिलाफ विरोध का स्वर मुखरित नहीं कर पाती थी।
नगाड़ानन्द ने कुछ दिनों बाद शुतुरमुर्ग की तरह इस ओर से अपनी आँखें बन्द कर लीं और दुनिया की सैर पर निकल पड़ा। राज्य के खजाने से राजा की हर यात्रा पर व्यवस्था करनी पड़ती। उसके मन्त्री भीतर से कुछ खिन्न जरूर थे, पर राजा की हाँ में हाँ मिलाना उनकी मजबूरी थी। उन सबने कुछ तोतों को इस बात के लिए प्रशिक्षित किया कि वे रह-रहकर सिखायी गयी बातें दुहराते रहें-जैसे कि ‘‘करारा जवाब देंगे, अबकी बार सबक सिखा देंगे, मुँह तोड़ जवाब दिया जायेगा, भीतर घुसके मारेंगे।’’ आदि-आदि। पड़ोसी राज्य के लुटेरों-हत्यारों को झूठ-मूठ की यह चेतावनी भी बिल्कुल अच्छी नहीं लगी तो उन्होंने अपने राजा कलन्दर खान से इजाजत माँगी कि इन तोतों का इसका उचित दण्ड दिया जाय। कलन्दर खान को उनकी बात पर हँसी छूट गयी। उसने हँसते हुए ही उन्हें समझाया कि ‘‘रट्टू तोतों से चिढ़ने की जरूरत कत्तई नहीं है, वे सब तो हमारे मनोरंजन के साधन हैं। तुम सब अपना काम ईमानदारी से करते रहो और नगाड़ानन्द के राज्य में तमाम नशीली चीजों की तस्करी से उसकी प्रजा को कायर तथा नपुंसक बना डालो, जिससे वह अपने राजा के खिलाफ कभी विद्रोह न कर सके। ’’
नगाड़ानन्द की प्रजा अपने राजा की असलियत जान चुकी है और भीतर से डरी हुई है, उसे अब कलन्दर खान और नगाड़ानन्द के चरित्र में कोई अन्तर नहीं दिखायी देता। अब वे दोनों एक दूसरे पर आरोप लगाते हैं कि उसने उसके राज्य में उत्पात मचा रखा है और दोनों जब कभी मिलते हैं तो एक दूसरे के गले लगते हैं, परस्पर ईद और होली की बधाइयाँ देते हैं, उनके सथ दावतें उडाते हैं। उनकी दावत के दस्तरखान पर रियाया की रूह बोटियों की शक्ल में दिखायी देती है। भीतर की बात यह कि दोनों ने एक सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर किया है, जिसके अनुसार कुछ गोपनीय समझौते किये गये हैं। उनमें से एक समझौता यह भी है कि‘‘हम ऊपरी तौर पर इसी तरह लड़ते-झगड़ते रहेंगे और हमारी पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ निर्बाध शासन करती रहेंगी। यदि भविष्य में कभी प्रजा में विद्रोह की संभावना पैदा हो तो हम प्रजा की अदला-बदली कर लेंगे’’, लेकिन यह बात कुछ लोग ही जानते हैं…………सन्धि-निर्धारित शर्त के अनुसार नगाड़ानन्द और कलन्दर खान का वह नाटक अभी तक जारी है।
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लेखक परिचय
- डाॅ. अमलदार ‘नीहार’
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
श्री मुरली मनोहर टाउन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलिया - उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और संस्कृत संस्थानम् उत्तर प्रदेश (उत्तर प्रदेश सरकार) द्वारा अपनी साहित्य कृति ‘रघुवंश-प्रकाश’ के लिए 2015 में ‘सुब्रह्मण्य भारती’ तथा 2016 में ‘विविध’ पुरस्कार से सम्मानित, इसके अलावा अनेक साहित्यिक संस्थानों से बराबर सम्मानित।
- अद्यावधि साहित्य की अनेक विधाओं-(गद्य तथा पद्य-कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध, ललित निबन्ध, यात्रा-संस्मरण, जीवनी, आत्मकथात्मक संस्मरण, शोधलेख, डायरी, सुभाषित, दोहा, कवित्त, गीत-ग़ज़ल तथा विभिन्न प्रकार की कविताएँ, संस्कृत से हिन्दी में काव्यनिबद्ध भावानुवाद), संपादन तथा भाष्य आदि में सृजनरत और विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित।
- अद्यतन कुल 13 पुस्तकें प्रकाशित, ४ पुस्तकें प्रकाशनाधीन और लगभग डेढ़ दर्जन अन्य अप्रकाशित मौलिक पुस्तकों के प्रतिष्ठित रचनाकार : कवि तथा लेखक।
सम्प्रति :
अध्यक्ष हिन्दी विभाग
श्री मुरली मनोहर टाउन महाविद्यालय, बलिया(उ.प्र.)
मूल निवास :
ग्राम-जनापुर पनियरियाँ, जौनपुर
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