- डाॅ. अरविंद द्विवेदी, चंडीगढ
गत दिनों हिंदी की शीर्षस्थ साहित्यकार चित्रा मुद्गल ने करुणाशंकर उपाध्याय की सद्यःप्रकाशित पुस्तक मध्यकालीन कविता का पुनर्पाठ पर विश्व हिंदी संगठन द्वारा आयोजित ई-संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए कहा कि यह पुस्तक आलोचना के नए प्रतिमान लेकर आई है और इसमें मुझे वह पढ़ने को मिला जो मैं जीवन के 78 वर्षों में नहीं पढ़ सकीं। डाॅ. करुणाशंकर उपाध्याय अब आलोचकों के प्रतिमान बन गए हैं। जिस तरह किसी समय हिंदी साहित्य रामचंद्र शुक्ल और बाद में नामवर सिंह की ओर देखता था, उसी तरह आज का साहित्य करुणाशंकर उपाध्याय की ओर देखता है। वे आज के सबसे बड़ेआलोचक हैं। इस वक्तव्य के समाचार पत्रों में प्रकाशित होने के बाद से इस विषय पर सोशल मीडिया से लेकर आलोचकों-प्राध्यापकों के बीच एक अनौपचारिक बहस छिड़ गई है।
वैसे तो हिंदी का साहित्य-शिक्षा और संस्कृति जुड़ा हरेक व्यक्ति करुणाशंकर उपाध्याय के लेखन और वक्तृत्व कला से परिचित है लेकिन मुझे लगा कि जिन्हें डाॅ.उपाध्याय के आलोचनात्मक लेखन की जानकारी नहीं है उन्हें इस पक्ष से अवगत कराया जाए। आज प्राचीन और अर्वाचीन, पाश्चात्य और पौरस्त्य, उत्तर आधुनिक और अति पुरातन, वेद-वेदांग समन्वित ज्ञान राशि और ज्ञान- विज्ञान की नवीनतम प्रवृत्तियां एक साथ प्रोफेसर करुणाशंकर उपाध्याय के आलोचनात्मक लेखन और आलोचकीय चेतना में दृष्टिगोचर होती हैं। भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र,इतिहास, दर्शन,संस्कृति, कला, राजनीतिक और सामाजिक सरोकारों से गहरे जुड़ाव के कारण इनके चिंतन, मनन, और लेखन की विश्व संदृष्टि का विकास हुआ है। समकालीन आलोचना की मांग के अनुसार अंतःअनुशासनिक विषयों के विराट अध्ययन फलक निश्चय ही करुणाशंकर उपाध्याय को केवल हिंदी साहित्य ही नहीं बल्कि समाजशास्त्रीय ,दार्शनिक , वैज्ञानिक चिंतक की भूमिका में प्रतिष्ठित करता है। जिस तरह पाश्चात्य साहित्य में होमर से इडियट और विचारकों में अरस्तु से लेकर जाॅक देरिदा तक समस्त साहित्यिक विमर्शों आंदोलनों एवं सिद्धान्तों की गहरी पड़ताल करके आपने हिंदी साहित्य एवं काव्यशास्त्रीय परंपरा को समृद्ध किया है उसी प्रकार वेद, उपनिषद की ज्ञान राशि से लेकर वाल्मीकि, व्यास कालिदास, भारवि, बाणभट्ट,भवभूति आदि संस्कृत के महान कवियों का गहन अध्ययन और विश्लेषण करते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यचिंतन के आलोक में इनकी आलोचना दृष्टि का विकास हुआ है। जिस तरह किसी समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने विश्वप्रपंच लिखकर अपने वैज्ञानिक लेखन का मानक उपस्थित किया था उसी तरह आज डाॅ.उपाध्याय रक्षा व विदेश मामलों के विशेषज्ञ के रूप में भी देशहित में महत्वपूर्ण लेखन कर रहे हैं। मध्यकालीन हिंदी साहित्य में घोरखनाथ, नामदेव, कबीर, जायसी, सूरदास, तुलसीदास, जाम्भोजी और भिखारीदास को आधार बनाकर भारत के लोक-जीवन, तत्कालीन परिवेश, मूल्यमीमांसा, प्रकृति, भक्ति, दर्शन,साहित्य और संस्कृति का आपने विस्तार से मूल्यांकन किया है। आधुनिक काल विशेष रूप से बीसवीं सदी के संपूर्ण साहित्य का तल-स्पर्शी अध्ययन करते हुए आपने जयशंकर प्रसाद को सदी के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार के रूप में स्थापित किया है। प्रसाद का साहित्य मानवीय अंतर्वत्तियों और वैश्विक जीवन की समस्याओं के उद्घाटन में अपना सानी नहीं रखता। डॉ. उपाध्याय के अनुसार भारतवर्ष की राष्ट्रीय प्रकृति, इतिहास , ज्ञान-परंपरा एवं सांस्कृतिक चेतना के उत्थान में तथा युगीन संदर्भों के अद्वितीय चित्रण में प्रसाद जी तुलसीदास के बाद सबसे बड़े महाकवि ठहरते हैं । इन्होंन लिखा है कि जयशंकर प्रसाद को कोई भी विदेशी विचारधारा नियंत्रित नहीं कर सकी और वे आत्मविश्वास का दर्शन बनाते हैं।यह कथन स्वयं डाॅ.उपाध्याय पर भी घटित होता है। निराला, पंत, महादेवी, दिनकर, शिवमंगल सिंह सुमन, नागार्जुन,अज्ञेय, नरेश मेहता, मुक्तिबोध, मोहन राकेश, धूमिल, कुंवर नारायण, उद्भांत, ज्ञानेन्द्रपति, दीक्षित दनकौरी से लेकर शिखर कथाकार चित्रा मुद्गल तक के साहित्य का जिस गहनता से वस्तुनिष्ठ विश्लेषण प्रोफेसर करुणाशंकर उपाध्याय ने किया है वह निश्चित रूप से 21वीं सदी के महान आलोचक के रूप में इन्हें प्रतिष्ठित करता है। आपने महाराष्ट्र और मुंबई की धरती को अपनी कर्मभूमि बनाकर यहां के प्रमुख कवियों श्री बिन्दा करंदीकर और अरुण कोलटकर की कविताओं का भी सूक्ष्म और गहन -विश्लेषण किया है। साथ ही, मराठी रामकाव्य परंपरा का स्वरूप-विकास भी दिखलाया है। अपने गुरुडाॅ. चंद्रकांत बांदिवडेकर के समीक्षात्मक लेखन को समग्रतावादी आलोचना के अंतर्गत विश्लेषित किया है। फलतः पाश्चात्य काव्यचिंतन, आधुनिक कविता का पुनर्पाठ, हिंदी का विश्व संदर्भ, मध्य कालीन कविता का पुनर्पाठ,चित्रामुद्गल संचयन जैसी आलोचना कृतियों के कारण आपका नाम हिंदी साहित्य के इतिहास में एक बड़े आलोचक के रूप में लिखा जाएगा । इनमें से पाश्चात्य काव्यचिंतन तो हिंदी जगत में पाठ्यपुस्तक की तरह लोकप्रिय है। जिस प्रकार बीसवीं सदी की हिंदी आलोचना के मानदंडों को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्धारित किया और समग्र हिंदी आलोचना आचार्य शुक्ल की परिक्रमा करती हुई उनके प्रतिमानों का द्वंद्वात्मक विकास करती दिखाई देती है। उसी भांति निश्चित ही 21वीं सदी की हिंदी आलोचना के प्रतिमान प्रोफेसर करुणाशंकर उपाध्याय हैं जो अपने विराट अध्ययन, विश्व-संदृष्टि, नित्यनवीन और अद्यतन विचारों के कारण आप कई अर्थों में समकालीन और 21वीं सदी के आलोचकों में श्रेष्ठ ही नहीं मैं कहूंगा कि सर्वश्रेष्ठ आलोचक बनने की ओर अग्रसर हैं। इस दृष्टि से चित्रा मुद्गल का कथन एक बडी संभावना की ओर ध्यान आकृष्ट करता है। आपकी आलोच्य चेतना और दृष्टि भारतीय मूल्यों, विचारों, परंपराओं का अवगाहन करती हुई आधुनिक काल की , वैश्वीकरण से उद्भूत बाजारवादी, उपभोक्तावादी मानसिकता का भी संपूर्णता में मूल्यांकन करती है। हिंदी साहित्य, इतिहास, दर्शन, राजनीति आदि के साथ सैन्य-सामरिक व विदेश- मामलों में आप की गहरी समझ उल्लेखनीय है। आपने रक्षा विशेषज्ञ के रूप में भी अपार ख्याति अर्जित की है। संपूर्ण हिंदी साहित्य में अंतर-अनुशासनिक विषयों का इतना गहन और विशद अध्ययन और ज्ञान अज्ञेय के पश्चात करुणाशंकर उपाध्याय जी के अलावा किसी अन्य आलोचक-विचारक में दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ता है। यह आपको सबसे अलग और विशिष्ट बनाता है। ऐसा माना जाता है कि जो रेगिस्तान में पैदा हो, कांटों में पले फिर भी अपना गुण-धर्म न छोड़े और सुगंध बिखेरे वही राजा है। गुलाब इसी कारण फूलों का राजा है। डॉ.उपाध्याय ऐसे ही गुणों के पुरस्कर्ता हैं।
हम सब इस तथ्य से भलीभाँति अवगत हैं कि एकांगी मूल्यों को लेकर विकसित 1950 के बाद आलोचना की समस्त सरणियों में समतामूलक दृष्टि और समन्वय मूलक भारतीय चेतना का अभाव है। अब खंडन और मंडन की विध्वंसक परंपरा से परे भारतीय ज्ञान-मीमांसा को आधुनिक परिवेश में पुनर्मूल्यांकित करने की आवश्यकता है। चाहे मार्क्सवाद हो, मनोविश्लेषणवाद, अस्तित्ववाद या बाजारवाद आदि के सभी प्रतिमानों को 21वीं सदी में नए मूल्यों और विचारों की दृष्टि से परखने की आवश्यकता है। अज्ञेय के शब्दों में ‘बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है‘ उसी प्रकार हिंदी साहित्य में समकालीन आलोचना के टूल्स पुराने हो गए हैं। उनसे नई एवं बहुस्तरीय चेतना का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। आज जब विमर्शों के नाम पर अमर्ष हो रहा है और खंडित चेतना तथा उच्छिष्ट भावना का प्रकाशन किया जा रहा है तो निश्चय ही साहित्य और साहित्यकारों के प्रति दया और रोष दोनों का जन्म होता है। कविता गद्य के हद तक पहुंच गई है फिर भी कविता होने का गुमान सिर चढ़कर बोल रहा है। गद्य विमर्शों और बाजारवादी मानसिकता के के जाल में उलझा हुआ सतही और अखबारी दस्तावेज बन गया है। ऐसे दारुण समय में करुणाशंकर उपाध्याय भारतीय अस्मिता के प्रतीक राष्ट्रीय, गतिशील लोकोन्मुख परंपरा और सांस्कृतिक चेतना को लेकर हिंदी साहित्य में अवतरित हुए हैं। आपने हिंदी के उत्थान के लिए जय हिंद और जय हिंदी का नारा भी दिया है। डॉ. उपाध्याय के आलोचनात्मक लेखन की तरह भाषिक चिंतन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। आप हिंदी को संयुक्तराष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलवाने के लिए गंभीर प्रयास कर रहे हैं। इस दिशा में आप हिंदी साहित्य भारती के अंतरराष्ट्रीय महासचिव के रूप में भी अपनी भूमिका का सम्यक निर्वाह कर रहे है।इनके संबंध में सागर विश्वविद्यालय के हिंदी और संस्कृत विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष डाॅ. आनंदप्रकाश त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा है कि,” वर्तमान समय में विश्वविद्यालयों में आलोचना कर्म से जुड़े हुए अपनी पीढ़ी के प्राध्यापकों में सबसे अधिक सक्रिय और प्रखर आलोचक प्रोफेसर करुणाशंकर उपाध्याय का नाम सर्वोपरि है।पाश्चात्य काव्यशास्त्र जैसा कठिन विषय हो या मध्यकालीन काव्य और आधुनिक साहित्य, जयशंकर प्रसाद पर उनकी आलोचना नयी दृष्टि सम्पन्न और अपनी पूर्व परंपरा से आगे के विचार बिन्दु पर फोकस करती है।” करुणाशंकर उपाध्याय भारतीय चिंतन और चेतना से संवलित समतामूलक दृष्टि , समन्वय मूलक आलोचकीय चेतना के साथ-साथ उत्तर आधुनिक पाठ-केन्द्रित आलोचना पद्धति लेकर हिंदी साहित्य में प्रवर्धमान हैं। निश्चय ही, डॉ. उपाध्याय के अपने संपूर्ण लेखन के उपरांत आचार्य शुक्ल की भांति महान तथा विश्वस्तरीय आलोचकों में परिगणित होंगे। आप विरुद्धों के सामंजस्य को संघर्ष निराकरण का चरम निदान मानते हैं।हिंदी आलोचना को वैश्विक विमर्श के केंद्र में लाना चाहते हैं। वर्तमान में हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष के रूप में आप अग्रगण्य हैं। इतिहास दर्शन, समकालीन जीवन के प्रति आत्मीय संलग्नता, सभ्यता-समीक्षा के साथ-साथ विश्व के सामाजिक सरोकार का वैश्विक ज्ञान एंव अंतर्दृष्टि आपकी आलोचना का आधार है। आज भले ही हिंदी जगत डॉ. उपाध्याय के लेखन की नवीनता, मौलिकता और गहनता को सही संदर्भ में समझ न पाए परंतु चित्रा मुद्गल की भविष्यवेधी दृष्टि ने आपकी क्षमताओं का सम्यक आकलन कर लिया है। निश्चय ही हिंदी साहित्य में समय की शिला पर आपका नाम अमिट अक्षरों में लिखा जाएगा। निश्चय ही विश्व साहित्य के क्षेत्र में डॉ. उपाध्याय का सार्थक हस्तक्षेप बना रहेगा।
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