– रीता दास राम
आखिर किस सुख को तरसे मन ..
तमाम हालात को कर आत्मसात
रहता है कोई खंडहर में,
अँधेरों से भरे उजालों में
राजनीति के अखाड़े में
अपनी संस्कृति को भाँजते
इंसानियत की प्यास को समेटे
पीता है पसीने का रक्त
वमन करता हैवानियत
समाज के चबूतरों पर
आखिर किस सुख को तरसे मन ……
न फिक्र बालमन की
न लड़कपन की परवाह
जीता है कोई एक रात जिंदगी
एक ऋतु जीवन
एक बरस चाँदनी
एक लम्हे में
रख कर अलग जीवन को
आखिर किस सुख को तरसे मन ……
शाही अंधकार की गलियों में
ईंट पत्थरों सा दिल लिए
संगीन क़ौमों का वज्राघात
घात प्रतिघात और आघात
दरकिनार करके जज़्बात
शनैः शनैः जीवन से दूर
विचारों की पोटली को कर परे
आखिर किस सुख को तरसे मन ……
मजबूरी के थपेड़ों में
मुफ़लिसी की गर्त
इच्छाओं की ठूंठ लिए
अभावों का प्रहार
जख्मों के पुंज सहते
अश्रु की चमक में
चकाचौंध करती बूंदों के तहत
लालच की खाई में उतराते
आखिर किस सुख को तरसे मन …….
शिक्षित परिपक्व सभ्यता में
रफ्तार की डोर थामे
तजकर पिछड़ापन
उम्मीदों के आसमान को ढोते
ऋतुओं सी जिंदगी भोगते
अलहदा होने की चाहत समेटे
जालसाजी के होते शिकार
आखिर किस सुख को तरसे मन ……
विकास की राजनीति पर
गरीबों का विस्थापन
अच्छों के प्रस्थापन का प्रलोभन
दरकिनार कर स्थानीय संस्कृति
मॉल मल्टीप्लेक्स का बोलबाला
मेट्रो और मोनोरेल का मकड़जाल
फ़्लाइ ओवर, हाइवे से अटा पड़ा संसार
परिवर्तन के इस जंगल में
गढ़ने को अपनी बेहतर पहचान
आखिर किस सुख को तरसे मन ……
जद्दोजहद का साथ साँसों संग
तजने को तत्पर बोझिल जिंदगी
ममता, निश्छल, समर्पण भावनाएं समेटे
बीनती रोडें, बिछे सामाजिक सभी
जीती जिंदगी दो परिवारों को जोड़
वहन करती भार नए संसार का
मर्दन कर अपनी इच्छाएं, कोमल भावनाएं पल पल
आखिर किस सुख को तरसे मन …..
बोई फसल काटने का वक्त
तकदीर का संशय उस पर साँसों का छूटता साथ
हवन में होम होती जिंदगी की याद
रिश्तों की बेवफाई अपनों का दुराव
सुनाई न पड़ती अंतरात्मा की आवाज
मचता मस्तिष्क में मौत का बवाल
झुर्रियों भरा तन और संकुचित इच्छाएं
आखिर किस सुख को तरसे मन ……
ढाई आखर के शब्द का बदला मतलब
न सच्चाई रही न रिश्तों में ईमानदारी
न त्याग, न समर्पण, न अपनापन ठेठ शब्द
जालसाजी, स्वार्थ सिध्दि, भटकाव जाने कितने शब्द
प्यार की पीच पर काक बॉल बनते रहे
खिलाड़ी वही दो एक नर एक नारी
हर बार पीच पर रह जाते बहुतेरे निशान
आखिर किस सुख को तरसे मन ……..
बदलती शिक्षा नीति पालकों पर बढ़ता दबाव
सर्वोच्च सफलता का ध्येय कर रहा बेहाल
दृष्टिगत होता उम्मीद का बोझ मासूमों पर
साक्षरता का बढ़ता ग्राफ बढ़ती बेरोजगारी
डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेशनल होने की चाहत सर्वोपरि
परिणामतः शिक्षा खरीदता समाज का भ्रष्ट वर्ग
बिकती डिग्री, शिक्षक, पेपर, एडमिशन
आखिर किस सुख को तरसे मन …….
कहाँ जा रहा देश ? कैसी हमारी सरकार ?
कैसी हो रही संस्कृति ? कहाँ हैं इंसानियत ?
कैसी सामाजिक व्यवस्था ? कैसा हो चला समाज ?
धोखाधड़ी, जालसाजी, बेईमानी, रिश्वतखोर
इस दलदल में तैरते-तैरते खोती सामाजिक सभ्यता
गरीब-अमीर, साक्षर-निरक्षर, सभ्य-असभ्य
क्या नर, क्या नारी, क्या बच्चे, क्या बूढ़े
साक्षात सादृश्य देख सबको मन में कौंधता एक विचार
क्या है उन्नति ? एक ध्येय का पीछा ! एक पागलपन !
या सिर्फ हवस
आखिर किस सुख को तरसे मन ……… ।
Bahut badhiya diiii…….
बहुत खूब लिखा है आपने……. धन्यवाद।