अकादमिक बनाम सृजनात्मक समीक्षा- शिवकुमार मिश्र

समीक्षा
अपने एक उपन्यास में आलोचना के दृष्टिकोणों को विशद करते हुए गजानन माधव मुक्तिबोध ने एक ऐसे अंतर्ग्रन्थित समीक्षा की जरुरत बताई है जो रचना के ऐतिहासिक-समाजशास्त्रीय, सौंदर्यात्मक-मनोवैज्ञानिक सभी पक्षों को एक साथ उद्घाटित करते हुए रचना के समूचे मर्म को हमारे सामने उद्घाटित कर सके। कोई भी रचना यदि वस्तुतः वह जेनुअन रचना है, अपनी जड़ें जिंदगी के बहुत बड़े विस्तार में फेंकती हैं। ऐसी रचना के वास्तविक मर्म से हम तब तक परिचित नहीं हो सकते जब तक कि उस जमीन को हम पूरे विस्तार और गहराई में, जाकर न नापें …. और थाहें, जिसमें जीवन-रस लेकर वह रचना उगी, पल्लवित और विकसित हुई। रचना के सर्वांग में और उसके तह में जाने और उसे थाहने, परखने का काम आलोचना करती है।  इसी कारण आलोचना कर्म को विशद करते हुए कहा गया है कि आलोचना का काम केवल रचना की व्याख्या करना, उसके आस्वाद और उसके सौंदर्यमूलक प्रभाव को विवृत्त  करना ही नहीं, उसकी निमित्त के श्रोतों तक जाना, उन्हें विशद करना और उस रचना को समग्र मूल्य देना भी है।

सच्ची आलोचना रचना को उसके अपने समय में ही मूल्य और महत्व देकर चुप नहीं हो जाती, वह उस रचना के लिए आगे के समयों में जगह भी बनाती  है। यदि आलोचना इस रूप में अपने कर्म का सम्यक निर्वाह करती है तो वह सच्ची आलोचना है, सार्थक आलोचना है।  रचना हो या आलोचना, या तो वह जेनुअन होगी या छद्म, वह उत्कृष्ट होगी या घटिया, सार्थक होगी या निरर्थक, मूल्यवान या महत्वपूर्ण होगी या महज़ शब्दक्रीड़ा या कोरी बकवास। ऐसी स्थिति में कृत्रिम रूप से आलोचना की अकादमिक और सृजनात्मक जैसी कोटियां बनाना, और एक को दूसरी से बेहतर या घटिया करार देना, बेमानी तो है ही अवास्तविक भी है।

आलोचना को लेकर एक भ्रान्ति यह रचना भी फैलाई गई है कि सृजनात्मक कही जानेवाली आलोचना जहाँ समकालीन रचना से संवाद करने के नाते समकालीन होती है, वहाँ अकादमिक आलोचना अधिकतर अपने समय की रचनाशीलता के प्रति उदासीन रहती है और यदि वह उससे मुखातिब भी होती है तो उसके साथ वास्तविक न्याय नहीं कर पाती है। सच्चाई यह है कि ये दोनों ही आरोप गलत और बेमानी हैं। आलोचना का इतिहास साक्षी है कि अकादमिक मानी जानेवाली आलोचना ने बराबर अपने समय की  नोटिस ली है, और उसका मूल्यांकन  किया है।  जहाँ तक अतीत कि रचनाशीलता कि बात है तो समकालीन रचनाशीलता से संवाद ही किसी रचना को समकालीन नहीं बनाता। समकालीनता के निर्णय की सही जमीन भी नहीं है। यदि आलोचना अतीत की रचनाशीलता को अपने विवेचन की जड़ में लेते हुए भी, अपने समय के सन्दर्भ में उसके नए अर्थ का संधान करती है, विगत के महत्व के साथ उसकी समकालीन अर्थवत्ता को उद्घाटित करती है, वह समकालीन ही होगी और वैसी ही मानी जायेगी।

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