अभी अभी
जंगलों से निकले हैं
काफ़िले
नंगे भूखे आदिमानवों के
अभी अभी
खोजी है आग
भूनना भर सीखा है
पर अनाज नहीं है
फलों का मौसम दूर है
वनस्पतियां झुलस गई हैं
आसमान बरसती आग में
होंठों की पपड़ियां नोंच
चबाते हुए खोजते हैं
अंजुरी भर जल
नखों से खोदते
खोजते कोई कंद कोई मूल
इंद्र की रहमत कब बरसेगी
पता नहीं
पहिए नहीं जनमे अभी
पशु पालतू नहीं हुए
शिकार का साहस नहीं
न सामर्थ्य ही बचा है
जो गिर कर उठते नहीं
एक रात बाट जोहकर
उन्हें छोड़कर चल देते
ज़िंदगी का बोझ ही इतना
तो मुर्दा कौन ढोए
न अभी रिश्ते ही पनपे
न भावनाएं अंखुआईं
न ईश्वर ही जनमे
न समाज ही गढ़ा गया
निरे पशुवत काफ़िले
अभी अभी
चौपायों से उठकर
दो पैरों पर खड़े
नर नारी बच्चे बूढ़े अपंग
छोटे बड़े झुंडों में
अभी अभी
निकले हैं बियाबान वनों से
निचाट नंगे तपते पठार पर
सुना है
चिलचिलाते पठार की
परली ओर
लहलहाती धरती
उफनते झरने
कलकलाती नदियां
फलों फूलों से लदे उपवन
और खिलखिलाती ज़िंदगी
इंतज़ार कर रही है
पूरी दुनिया
अपने अपने घरों में
सुरक्षित अघाई ऊबी
देख रही है
इन काफ़िलों इन झुंडों को
जलती चट्टान पर झुलसते
दुधमुंहे बच्चों को
फूटे छालों से गीले पठार को
धुंधुआती आंखों में उठते
बग़ूलों को
कंदराओं गुफाओं से उठे
कसैले धुंए से बचते
उन्हें भी इंतज़ार है
ज़िंदगी के शुरू होने का.
कवि : हूबनाथ पांडेय
सम्प्रति: प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई
संपर्क: 9969016973
ई-मेल: hubnath@gmail.com
संवाद लेखन:
- बाजा (बालचित्र समिति, भारत)
- हमारी बेटी (सुरेश प्रोडक्शन)
- अंतर्ध्वनि (ए.के. बौर प्रोडक्शन)
प्रकाशित रचनाएं:
- कौए (कविताएँ)
- लोअर परेल (कविताएँ)
- मिट्टी (कविताएँ)
- ललित निबंध: विधा की बात
- ललित निबंधकार कुबेरनाथ राय
- सिनेमा समाज साहित्य
- कथा पटकथा संवाद
- समांतर सिनेमा
2instantaneously