पृथ्वी को उसके अक्ष पर
घुमाता रहता है
सूरज को खींच कर
हर रोज़ ला पटकता है
पूरबी छोर पर
धरती की कोख से
खोद निकालता है प्राण
लोहे सा पिघलता है
अलाव सा सुलगता है
पसीने से खेत सींचता
लहू से कारखाने
हड्डियों से वज्र बना
लड़ता है भूख से
भिड़ता है बाढ़ अकाल से
सूख कर झड़ता है
तो खाद बनता है
पानी से लबालब बादल सा
पर आजीवन प्यासा
अनाजों के पहाड़ खड़े करता
कभी पेट भर नहीं खाया
न मौसम का असर
न मार का डर
प्यार तो उसकी कुंडली में नहीं
आदर उसे पता ही नहीं
चट्टान की तरह अड़ा
दीवार की तरह खड़ा
हर मुसीबत अपने सिर
हर आफ़त अपने माथे
इस सिरफिरे का
न कहीं कोई नाम
न कभी कोई ज़िक्र
कंटीले बाड़ की तरह
संभाले है पूरी धरती को
हर संकट से
हर मुश्किल से
न कभी कोई अपेक्षा
न कोई कामना
बस एक ही उद्देश्य
कि जीवित भर रहे
कि जिससे मर सके
उन सब के लिए
जिनके सपनों में भी
फ़िक्र नहीं इसकी
भूले से भी
कभी ज़िक्र नहीं इसका
सबसे शक्तिशाली
धरती की इस संतान ने
सारी शक्ति समर्पित कर दी
कि धरती घूमती रहे
कि सूरज निकलता रहे
कि ज़िंदगी चलती रहे
बिना किसी रुकावट के
पिछले हजारों वर्षों में
दुनिया कहां से कहां पहुंची
पर यह अभी भी
धकेल रहा धरती
खींच रहा सूरज
निचोड़ रहा बादल
मिट्टी को गंध स्वाद सुगंध
प्राणरस में बदलते
जमता है गलता है
भाप बनकर खो जाता है
पृथ्वी के चारों ओर
पृथ्वी को पता तक नहीं
अफ़सोस!
कवि : हूबनाथ पांडेय
सम्प्रति: प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई
संपर्क: 9969016973
ई-मेल: hubnath@gmail.com
संवाद लेखन:
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